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समलैंगिकता : विधिक व सामाजिक मान्यता

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:6 Dec 2018 3:24 PM GMT
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अजय कुमार झा

अभी हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने देश के मौजूदा दंड विधान संहिता के धारा 377 में उपबंधित और सालों से समलैंगिकता को रखे गए अपराध की श्रेणी को असंवैधानिक और नागरिक अधिकारों के प्रतिकूल करार देते हुए इसे अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया। जनहित याचिका (आपराधिक) संख्या 76/2016 को यौनिक व्यवहार में संप्रभुता, अपना यौन साथी चुनने का अधिकार और यौनिकता का अधिकार जैसे विषय को लेकर दायर की गई थी।

जनवरी 2018 में यह याचिका जब यह याचिका तीन सदस्यों वाली पीठ के समक्ष रखा गया तब उसमें सुरेश कौशल बनाम राज्य में दो न्यायमूर्तियों द्वारा सुनाए गए उस निर्णय का सन्दर्भ था जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय में संस्थापित वाद नाज फाउंडेशन बनाम राज्य में आए निर्णय (इस निर्णय में भी समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से मुक्त कर दिया गया था) को अपील में सर्वोच्च न्यायालय ने उलट दिया था।

धारा 377 में वर्णित `प्रकृति के विरुद्ध' की पुनर्व्याख्या जैसे गंभीर विषय होने के कारण इसे और बड़ी पांच न्यायाधीशों की बड़ी पीठ द्वारा सुने जाने की आवश्यकता महसूस की गई, जिसने विस्तार से सभी पहलुओं की जांच कर अपना निर्णय सुनाया। यहां यह महत्वपूर्ण है कि न्यायालय ने स्पष्ट कर दिया कि धारा 377 के तहत आने वाले अन्य कृत्य इस याचिका में विचार के विषय नहीं हैं। अत वे इस निर्णय से किसी भी तरह प्रभावित नहीं होंगे।

याचियों ने किन्नर समाज जिनका कुल आबादी में सात-आठ प्रतिशत का योगदान है, की विषम परिस्थितियों और इस मौजूदा कानून के कारण होने वाली कठिनाइयों को मुख्य रूप से रेखांकित किया। याचियों ने अदालत को बताया कि मौजूदा कानून के कारण न सिर्प उन्हें सामाजिक भेदभाव, अत्याचार व अलगाव झेलना पड़ता है बल्कि अपराध की श्रेणी में रखे जाने के कारण वे पूरा जीवन ग्लानि में बिताने को विवश होते हैं। यह एक इंसान के रूप में स्वत प्राप्त निजता, समानता, स्वतंत्रता आदि के मिलने वाले संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है।

समलैंगिकता के इतिहास पर नजर डालते हुए मशहूर अन्वेषी श्री देव दत्त पटनायक अपने लेख में बताते हैं कि एक पुरुष का एक बालक के प्रति आसक्ति जैसे मामले सबसे पहले यूनान के सामुराई और कुछ अफ्रीकी जनजातियों में संस्थापित हुए थे। अरबी साम्राज्य के एक यात्री के वर्णन में वो दावा करता है कि `स्त्राr घर और चूल्हे के लिए हैं और युवक आनंद के लिए।' एक रोचक बात यह है कि ऐसी लत को जहां अंग्रेजी समाज `यूनानी प्रेम' कहता था वहीं फ्रांसीसी इसे `अंग्रेजी ऐब' के नाम से जानते थे।

भारत में समलैंगिकता की पड़ताल के लिए वे तीन साक्ष्यों पर अपना अध्ययन केंद्रित करते हैं वे हैं, मंदिरों की दीवारों पर उकेरी गई चित्रकारी, धार्मिक साहित्य और पुरातन कानून व्यवस्था। वे बताते हैं कि मंदिरों, पगोडा आदि में उकेरी गई चित्रकारियों में देवी, देवताओं, दानवों, यक्षों, पशुओं तक के उत्तेजित चित्रों की जानकारी मिलती है। किन्तु उस समय मौजूद सामाजिक व्यवस्था की हर कड़ी को काम, धर्म, अर्थ और मोक्ष की कसौटी पर देखा-परखा जाता था और इस कसौटी के आधार पर हर ऐसे कार्य की मौजूदगी के प्रमाण के बावजूद वो सर्वस्वीकार्य नहीं था।

हालांकि इसके बावजूद गुप्तकाल में रचित वात्सयायन के कामसूत्र में निमोंछिए चिकने नौकरों, मालिश करने वाले नाइयों के साथ शारीरिक संबंध बनाने वाले पुरुषों बखान विस्तार से किया गया है और इस संभोग सुख के तरीके भी दर्ज हैं। स्त्रwण गुणों वालो व्यक्तियों को पापी या अपराधी नहीं घोषित किया गया है। स्त्रियों की आपसी रतिक्रीड़ा का भी सहज वर्णन है। खजुराहो के मंदिर हों या ओडिशा के, उनकी दीवारों पर जो मूर्तियां उकेरा गई हैं उनमें भी यही खुली सोच दिखलाई देती है।

अगर अपने आसपास के देशों और अन्य देशों में समलैंगिकता की स्थिति पर नजर डालें तो नेपाल ने 2007 में ही इसे अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया था और इस प्रकार भारत दक्षिण एशिया का दूसरा देश है जिसने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, अफगानिस्तान, म्यांमार आदि में यह अब भी अपराध की श्रेणी में आता है जबकि चीन में इसे 1997 में ही अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। किन्तु वहां इसे एक मानसिक बीमारी माना जाता था।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय भविष्य में समलैंगिकों को उनकी कठिनाइयों से कितनी आजादी दिलवाएगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा किन्तु हाल ही में लिव इन और अब समलैंगिकता जैसे बदलावों का भारतीय समाज में परिवर्तन आएगा यह तय है।

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