नाराज कार्यकर्ता भाजपा को जिताएंगे?
श्याम कुमार
कल्याण सिंह उन चंद नेताओं में गिने जाते हैं, जिन्हें जनता न केवल सम्मान देती है, बल्कि प्यार करती है। वह वर्तमान दौर में उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रीय नेता हैं। मैंने कल्याण सिंह से अपने दशकों पुराने संबंध में महसूस किया है कि जनता की नब्ज का उन्हें सही-सही पूरा पता होता है। अपने इसी गुण से उनका व्यक्तित्व लाजवाब बना तथा वह अपनेआप में एक संस्था का रूप धारण कर सके। वह बेहद गरीबी में पले-पढ़े। अभाव इतना था कि विद्यार्थी जीवन में जब वह जाड़े की कड़कड़ाती ठंड में नित्य सवेरे साइकिल पर मीलों दूर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा में जाते थे तो मफलर व दस्ताने के अभाव में ठंड से बचने के लिए मुंह और हाथ पर कपड़ा लपेट लिया करते थे। वह घूरे में पड़े ऐसे रत्न थे, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तराशा और फिर जनसंघ एवं भाजपा की जमीन पर उस रत्न को अपनी आभा बिखेरने का सुअवसर प्राप्त हुआ। भाजपा के शीर्ष नेताओं को यह सबक लेना चाहिए कि क्या कारण है कि कल्याण सिंह राजस्थान में राज्यपाल के संवैधानिक पद पर रहने के कारण उत्तर प्रदेश से दूर हैं तथा यहां भाजपा कार्यकर्ताओं का भला कर सकने की स्थिति में नहीं हैं, फिर भी जब वह लखनऊ आते हैं तो उनसे मिलने के लिए लोग उमड़ पड़ते हैं। मुझे कल्याण सिंह के पास बैठकर पूरे प्रदेश की वास्तविक स्थिति का पता लग जाता है। पिछले दिनों जब वह लखनऊ आए तो उनके पास आने वाले सभी लोगों की यह व्यथा थी कि प्रशासन या पार्टी-नेताओं के पास उनकी समस्याओं की सुनवाई या निपटारा बिल्कुल नहीं होता है तथा उन्हें अनाथ वाली स्थिति में रहना पड़ रहा है। कल्याण सिंह चुपचाप सबकी बातें सुनते हैं, लेकिन संवैधानिक पद पर होने के कारण इस बार भी पूरे समय वह मौन धारण किए रहे।
भाजपा जब सत्ता में आती है तो वह अपने को `अहंब्रम्हास्मि' मानने लगती है। उसके बड़े नेता अपने आगे किसी को कुछ समझना छोड़ देते हैं। कार्यकर्ता उनके लिए वह सीढ़ी बन जाता है, जिसके सहारे वे ऊपर चढ़ गए हैं, किन्तु अब उस सीढ़ी का उनके लिए कोई महत्व नहीं है। यही कारण है कि भाजपा कार्यकर्ता अपने कष्ट व समस्याओं को लेकर चारों ओर भटकता फिरता है तथा जब उसे हर तरफ उपेक्षा मिलती है तो हारकर वह चुपचाप घर बैठ जाता है। तब उसकी भावना हो जाती हैö`कोउ नृप होय, हमें का हानी!' छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, राजस्थान में यही तो हुआ। नेता इस मुगालते में रहे कि उन्होंने जनकल्याण की इतनी अधिक योजनाएं कार्यान्वित कर डाली हैं कि जनता तो उन्हें वोट देगी ही। लेकिन वे भूल गए कि जनता को मतदान-केंद्र तक लाने वाले पार्टी के कार्यकर्ता ही होते हैं। वे घर-घर जाकर हांका लगाते हैं कि वोट देने चलो। अपने प्रेमपूर्ण व्यवहार से वे मतदाताओं को वोट डालने के लिए घर से बाहर निकलने को प्रेरित करते हैं। लेकिन नेताओं के अहंकार व उपेक्षा के शिकार कार्यकर्ता जब अपने नेताओं के प्यार को तरसते रह गए तो वे आम मतदाताओं को कहां से प्यार दें? उत्तर प्रदेश में भी यही स्थिति है।
भारतीय जनता पार्टी में इस समय बूथ-प्रबंधन की बड़ी हवा बांधी जा रही है। वैसे पार्टी में यह `बूथ-प्रबंधन' कई वर्षों से अस्तित्व में है तथा उसके लिए नए-नए जुमले सुनाई दिया करते हैं। वर्ष 2014 में ऐसी भयंकर मोदी-लहर थी कि उस लहर में भाजपा आसमान की ऊंचाइयों पर पहुंच गई। लेकिन प्रकृति के नियमानुसार कोई लहर हमेशा नहीं कायम रह सकती है। पार्टी को अपने स्थायित्व के लिए धरातल पर सक्रिय होकर उपलब्धि हासिल करनी पड़ती है। यह सक्रियता कार्यकर्ताओं के बल पर होती है, अन्यथा `बूथ प्रबंधन' के गुब्बारे की सारी हवा निकल जाती है। तीन राज्यों के चुनाव में ऐसा ही तो हुआ। मध्यप्रदेश में `नोटा' ने भाजपा की नैया डुबो दी। मात्र सात सीटों पर वह सत्ता से पीछे रह गई। भाजपा का कार्यकर्ता चूंकि मन से राष्ट्रवादी एवं देशभक्त होता है, इसलिए वह कांग्रेस को वोट नहीं दे सकता था, साथ ही अपनी पार्टी से असंतुष्ट था, इसलिए चुपचाप घर बैठ गया। मतदाताओं को मतदान-केंद्र तक ले जाने में भी उसने कोई रुचि नहीं ली।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में सत्ता छिन जाने से भाजपा को जो धक्का लगा है, वह कमर तोड़ देने वाला है। लेकिन भाजपा नेता उत्तर प्रदेश में कोई सबक ले रहे हों, ऐसे लक्षण नहीं दिखाई देते हैं। सबक ले रहे होते तो प्रदेश के उपचुनावों में पार्टी की हार से सबक ले लेते और तीन राज्यों में भाजपा की दुर्गति नहीं होती। उत्तर प्रदेश में पार्टी व सरकार के `बड़े लोग' अभी भी पहले जैसे अहंकारी एवं लापरवाह दिखाई देते हैं। उन्हें जनता व कार्यकर्ताओं की चिंता के बजाय अपने ऐशोअराम की अधिक चिंता रहती है। वे नहीं समझ पाते हैं कि जब वाहनों के काफिले के साथ हूटर बजाते हुए वे निकलते हैं तो आम जनता अब उन्हें गाली देने लगी है। पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी यह स्वीकार नहीं हो रहा है कि जिन नेताओं को उसने इतना आगे बढ़ाया, वे उसे अब हीन समझते हुए उपेक्षा कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश-मुख्यालय जब से `कारेपोरेट स्टाइल' वाला हुआ है, तब से वह जनता से और अधिक दूर हो गया है। वहां आम जनता के बजाय `कारपोरेट स्टाइल' वाले बड़े-बड़े लोगों के अधिक दर्शन होते हैं। प्रदेश मुख्यालय में नित्य `जनता दर्शन' हुआ करता था, हालांकि वह अधिक सार्थक रूप में नहीं होता था, उसे भी बंद कर दिया गया है। वहां सप्ताह में मात्र एक दिन जनता के कष्टों की सुनवाई होती है। भाजपा में बूथ-प्रबंधन की बातें जोरशोर से सुनाई देती हैं, लेकिन उस प्रबंधन से जुड़े कुछ कार्यकर्ताओं ने बताया कि जब लोगों के यहां वे जनसम्पर्प करने जाते हैं तो लोग उनसे अपनी समस्याएं बताकर उनका निराकरण कराना चाहते हैं। लेकिन कठिनाई यह है कि जब शासन-प्रशासन में स्वयं कार्यकर्ताओं की नहीं सुनी जा रही है तो वे वहां आम जनता की समस्याएं भला कैसे हल कराएं? इसी से यह `जनसम्पर्प' निरर्थक सिद्ध हो रहा है।
पिछले दिनों जब प्रदेशाध्यक्ष महेंद्र नाथ पाण्डेय ने पत्रकारों को चाय पर आमंत्रित किया तो कई पत्रकारों ने व्यंग्यात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त की कि इस आमंत्रण से पता लगा कि प्रदेश में पार्टी का कोई अध्यक्ष भी है। पत्रकारों को पूर्व प्रदेश अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी बहुत याद आते हैं, जो बहुत आसानी से उपलब्ध होते थे तथा वरिष्ठ पत्रकारों का बड़ा ही सम्मान करते थे। उनकी सक्रियता एवं कठोर परिश्रम के फलस्वरूप उत्तर प्रदेश में लगभग समाप्त हो चुकी भारतीय जनता पार्टी को नया जीवन प्राप्त हुआ था। लक्ष्मीकांत वाजपेयी महीने में चार-छह बार पत्रकारवार्ता किया करते थे, जिसमें लंच भी हुआ करता था। वह लंच खर्चीला न होकर साधारण, किन्तु स्वादिश्ट होता था। लक्ष्मीकांत वाजपेयी लंच के दौरान पूरे समय मौजूद रहकर पत्रकारों के बीच बड़ा आत्मीय वातावरण बना देते थे। इस समय तो प्रदेश मुख्यालय में मौजूद रहने वाले महामंत्री (संगठन) सुनील बंसल से भेंट हो पाना भी लगभग असंभव माना जाता है। मीडिया में मृदु व्यवहार वाले के रूप में मशहूर हरीशचंद्र श्रीवास्तव को प्रभारी के बजाय मात्र प्रवक्ता बना दिया है तथा ऐसे लोग भी मीडिया विभाग में तैनात हैं, जो अहंकार में चूर रहते हैं तथा वरिष्ठ पत्रकारों को नमस्कार करने के बजाय आशा करते हैं कि वे वरिष्ठ पत्रकार उन्हें नमस्कार किया करें।