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राष्ट्रद्रोह के फंदे में जेएनयू के छात्र

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:17 Jan 2019 3:23 PM GMT
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संतोष कुमार भार्गव

नौ फरवरी 2016 को जेएनयू विश्वविद्यालय परिसर में हुए एक कार्यक्रम में कथित तौर पर देश विरोधी नारे लगे थे। इस सिलसिले में जेएनयू छात्रसंघ के उस समय के अध्यक्ष कन्हैया और उनके दो साथियों उमर खालिद और अनिर्बन को गिरफ्तार किया गया था। हालांकि तीनों बाद में जमानत पर छूट गए। लेकिन कन्हैया कुमार इससे पहले 23 दिन जेल में रहे। इस केस में तीन साल बाद दिल्ली पुलिस ने चार्जशीट फाइल की है। चार्जशीट दाखिल होते ही उस पर राजनीति शुरू हो गई है। कन्हैया कुमार और उमर खालिद को चार्जशीट मे देशद्रोही का आरोपित बनाया गया है। इनके अलावा इसमें अनिर्बान व सात कश्मीरी छात्र सहित कुल 36 नाम हैं।

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की फ्रतिष्"ित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के परिसर में ऐसी नारेबाजी की गई थी। तारीख भी गौरतलब है। भारत की संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को फांसी पर लटकाने की तारीख 9 फरवरी। अफजल की बरसी पर 2016 में यह आयोजन किया गया था। करीब एक सप्ताह पहले जो पोस्टर लगाए गए थे, उनकी भाषा भी देश विरोधी थीöअफजल गुरु और मकबूल बट्ट की न्यायिक हत्या के खिलाफ आयोजन। कश्मीर पर भारत के अवैध कब्जे के खिलाफ आयोजन। पोस्टरों में बहुत कुछ आपत्तिजनक और राष्ट्रद्रोही था। कमोबेश उसे लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की परिभाषा के दायरे में नहीं रखा जा सकता। भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह, इंशा अल्लाह। अफजल तेरे खून से इनक्लाब आएगा। कश्मीर की आजादी तक जंग रहेगी, जंग रहेगी। इंडिया गो बैक, इंडिया गो बैक। यह नारेबाजी ऐसे ही शब्दों और देश विरोधी तेवरों के साथ की गई थी। यह आयोजन सड़कों पर नहीं किया गया और न ही कश्मीर की सरजमीं पर कोई अलगाववादी रैली थी।

वह आयोजन उस विश्वविद्यालय के परिसर में आयोजित कैसे किया जा सकता है, जिसकी आधिकारिक अनुमति भी नहीं मिली हो? यदि सिर्प नारेबाजी करना ही `देशद्रोह' नहीं है, तो जेएनयू के फ्रांगण में आतंकियों की हमदर्दी और उनके समर्थन में आयोजन को क्या समझा जाए? बेशक कश्मीर भारत का अभिन्न, अविभाज्य हिस्सा है, उसे सार्वजनिक मंच से `अवैध कब्जा' करार दिया जाए, उसके मायने क्या हैं? अब तमाम सवाल, साक्ष्य और गवाह आदि न्यायिक अदालत के सामने हैं, लिहाजा संज्ञान लेकर फैसला उसी पर छोड़ देना चाहिए। बेशक हम अदालत नहीं हैं, लेकिन देश के संवेदनशील नागरिक के तौर पर जो देखा, सुना, पढ़ा है, उसके मद्देनजर फ्रतिक्रियाहीन कैसे बने रह सकते हैं?

तीन साल के बाद दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने 1200 पन्नों का आरोप-पत्र (चार्जशीट) अदालत में दाखिल कर दिया है। हालांकि आरोप-पत्र में इतना वक्त नहीं लगना चाहिए था, लेकिन यह भी तथ्य है कि पुलिस को अलग-अलग राज्यों में जाकर साक्ष्य जुटाने पड़े। कश्मीर के विद्रोहियों की भी पहचान की गई, नतीजतन सात कश्मीरी छात्र भी आरोप-पत्र में दर्ज हैं। सीबीआई को 10 वीडियो क्लिपों की सम्यक जांच सीएफएसएल से करानी पड़ी है। गवाहों और फुटेज को भी जुटाना पड़ा है। ऐसी लंबी फ्रक्रिया के बाद आरोप-पत्र सामने आया है, जिसमें जेएनयू छात्र संघ के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार, उपाध्यक्ष शहला राशिद, उमर खालिद, अनिर्बान भट्टाचार्य समेत दस आरोपियों के नाम दर्ज के गए हैं। धारा 124-ए के तहत देशद्रोह और 120-बी के तहत आपराधिक साजिश समेत अन्य 6 धाराओं में आरोप लगाए गए हैं। अब अदालत को फैसला देना है कि आरोपी नारेबाज बुनियादी तौर पर `देशद्रोही' हैं या नहीं। उससे पहले कोई भी किसी को फ्रमाण-पत्र नहीं दे सकता। इस मुद्दे पर राजनीतिक ढाल बनने का कुकर्म भी छोड़ देना चाहिए।

सवाल कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, सीपीआई सांसद डी. राजा, कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारुक अब्दुल्ला आदि नेताओं से पूछे जाने चाहिए कि उन्होंने नारेबाजों की सहानुभूति और समर्थन में लगातार `राजनीति' क्यों की? जेएनयू में उनकी मंचीय लामबंदी के मायने क्या थे? सीपीआई और लालू की पार्टी आरोपित कन्हैया को चुनावी टिकट देने को तैयार हैं। सभी नेताओं ने जेएनयू परिसर में ही इकट्ठा होकर उस आयोजन की पैरोकारी क्यों की थी? क्या वे सभी आतंकवाद समर्थक नेता हैं?

देशद्रोह के मुकदमों में दोहरे मापदंड की बात करें तो जम्मू-कश्मीर में वहां की सरकार ने भिंडरावाला दिवस की इजाजत दी थी। भिंडरावाला का शहीदी दिवस क्या राष्ट्र विरोधी नहीं ? हुर्रियत नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा क्यों नहीं चलाया जाता। बता दें कि सरकार विरोधी सामग्री लिखना, बोलना, काम करना, देश की शांति भंग करने वाले कार्य करना देशद्रोह की श्रेणी में आते हैं। आईपीसी की धारा 124ए में देशद्रोह को परिभाषित किया गया है। देशद्रोह पर उम्र कैद तक की सजा मिल सकती है। सेडिशन यानी देशद्रोह का कानून अंग्रेजों ने बनाया था। 1870 में बने इस कानून का इस्तेमाल गांधी, तिलक के खिलाफ भी हुआ है। जवाहर लाल नेहरू ने इस कानून का विरोध किया था।

देश में बीते तीन-चार साल में एक चलन से शुरू हो गया है जिसमें अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर देश की संफ्रभुता पर ही सवाल उठाए जाने लगे हैं। यह एक अत्यंत खतरनाक परंपरा है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि हमारा संविधान हम सभी को अपनी बात कहने का अधिकार देता है लेकिन कुछ भी कहने का अधिकार हमें किसी भी सूरत में कहीं से फ्राप्त नहीं हो सकता है। ये दोनों शब्द समय और सत्ता के सापेक्ष होते हैं। एक ही व्यक्ति एक समय `देशद्रोही' होता है और वही व्यक्ति सत्ता बदलते ही देशभक्त हो जाता है। सबसे पहला देशद्रोह का मुकदमा तिलक पर चला था और दूसरा महात्मा गांधी पर। गांधीजी पर एक पत्रिका में लेख लिखने के कथित जुर्म में देशद्रोह का मुकदमा चलाया गया था।

अभी 2010 में तत्कालीन सत्ताधारियों ने आदिवासी, आदिम जातियों और जनजातियों की सेवा करने वाले उस डॉक्टर विनायक सेन पर कथित नक्सलियों की मदद करने का छद्म और झू"ा आरोप लगाकर देशद्रोह का मुकदमा चलाया, जिसे भारत की सर्वोच्च न्यायालय ने 2011 में बाइज्जत बरी कर दिया।

ये चार्जशीट पटियाला कोर्ट में दाखिल की गई हैं। हालांकि देशद्रोह कानून पर नए सिरे से बहस भी शुरू हो चुकी है। क्योंकि ये कानून ना केवल बहुत पुराना है बल्कि इससे अंग्रेज बागी हिंदुस्तानियों को कुचलने का कुचक्र रचते थे। इन तमाम बातों के बीच जानिए, क्या कहता है भारत में देशद्रोह का कानून। आईपीसी की धारा 124-ए के तहत लिखित या मौखिक शब्दों, चिन्हों, फ्रत्यक्ष या अफ्रत्यक्ष तौर पर नफरत फैलाने या असंतोष जाहिर करने पर देशद्रोह का मामला दर्ज किया जा सकता है। इस धारा के तहत केस दर्ज होने पर दोषी को तीन साल से उम्रकैद की सजा हो सकती है। साल 1962 में सुफ्रीम कोर्ट ने भी देशद्रोह की इसी परिभाषा पर हामी भरी। कुछ खास धाराओं के लागू होने पर गुट बनाकर आपस में बात करना भी आपको सरकार के विरोध में खड़ा सकता है और आप संदिग्ध माने जा सकते हैं।

दरअसल यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है। चूंकि यह आपराधिक आयोजन लगता था, लिहाजा देश की एकता, अखंडता कभी भी दांव पर हो सकती थी। जो झुंड देश को तोड़ने के नारे लगा सकता है, वह कल देश के खिलाफ युद्ध के आगाज में भी शामिल हो सकता है, लिहाजा देशद्रोह को व्यापक दायरे में परिभाषित करने की जरूरत है। कोई भी दावा न करे कि कन्हैया ने नारे नहीं लगाए या वह उन नारेबाजों में शामिल नहीं था अथवा वह तो एक गरीब युवा है। इन पहलुओं को पूरी तरह अदालत पर छोड़ देना चाहिए और उसके फैसले की फ्रतीक्षा करनी चाहिए। अगर कोई गुनाहगार है तो उसे सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए, क्योंकि देश की अखंडता, सुरक्षा और एकता सर्वोच्च है। इस मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए।

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