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दलित साहित्य : किसके दिमाग की उपज?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:18 Jan 2019 3:20 PM GMT
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डॉ. बलराम मिश्र

`यह दलित साहित्य क्या होता है?' मैंने एक वरिष्" पोफेसर से पूछा। `वह साहित्य जो दलितों की स्थिति से संबंधित है, उन्होंने बताया। निःसंदेह, हिन्दू समाज का एक बहुत बड़ा भाग कई सदियों से वंचित रहा है। सामाजिक बुराइयों की पराकाष्"ा तो यह रही कि उस वंचित और संत्रस्त वर्ग को न केवल यथोचित सम्मान नहीं मिला, उसे `अछूत' और `अस्पृश्य' कहकर अपमानित भी किया गया। ऐसी परिस्थिति बनी कैसे? यह विचारणीय है। व्यक्ति के गुण, कर्म, मनोवृत्ति एवं रुचि के आधार पर, न कि जन्म के आधार पर हिन्दू समाज ने वर्ण व्यवस्था नामक जो वर्गीकरण या श्रेणीकरण स्वीकारा था उसमें काल-दोषजन्य जड़ता को विदेशी आक्रांताओं की कुदृष्टि ने जन्म अथवा जाति से जोड़ दिया और उन धूर्त आक्रांताओं के चाटुकार इतिहासकारों ने उस सामाजिक बुराई अर्थात जातिवाद को सर्वमान्य बनाने में बड़ी भूमिका निर्मित्त की थी क्योंकि उनका एकमात्र उद्देश्य था हिन्दुस्तान को गुलाम बनाकर रखना और इसके लिए यह आवश्यक था कि वे हिन्दू समाज को तोड़े, और उसे कलंकित करने के लिए कुछ भी करें ताकि हिन्दुओं का मनोबल क्षीण हो, वे निष्पभ बनें और गुलामी में रस लेने के आदी बन जाएं। उनके स्वार्थी एवं छद्म पयत्नों के कारण ही हिन्दू समाज पर `जातिवाद' का जो धब्बा लगा था वह आज भी बरकरार है और उसकी निंदा करके हिन्दू समाज को कलंकित करने के लिए वे पूरी कोशिश कर रहे हैं। उन्हें हिन्दू समाज के साथ कोई हमदर्दी नहीं है, वे तो उसे तोड़कर और भारत को कमजोर बना कर उसे पुनः गुलाम बनाने के सपने देख रहे हैं।

जातिवाद की दीवारों ने अपने ही समाज में जो दूरियां बनाई उनसे `अस्पृश्यता' जैसे महापाप-मय कलंक को जन्म दिया। उस कलंक पर लेख लिखे गए, पुस्तकें लिखी गईं, गोष्"ियां-सभाएं हुईं, और उस सभी संबंधित साहित्य को `दलित साहित्य' कहा जाने लगा। विदेशी आक्रांताओं के पिट्ठू साहित्यकारों को मोटी रकमें देकर उनसे वही लिखवाया गया, ("ाrक वैसे ही, जैसे मेकाले को रक्खा गया था) जो हिन्दू समाज के वंचित शोषित एवं पीड़ित वर्ग की दुर्दशा का वर्णन करे। यद्यपि भारतीय संविधान छुआछूत जैसे पापों की अनुमति नहीं देता, तो भी हमारे समाज में जातिपथा अभी भी निर्मूल नहीं हो पाई है। सत्ता लोभियों ने दलितों की स्थिति में सुधार लाने के लिए अपने व्यक्तिगत जीवन कुछ उदाहरण तो नहीं ही बनाए परन्तु दलितों की एक अलग श्रेणी में रखकर उनकी नुमाइश लगानी शुरू कर दी। उनके नाम पर कुछ लोगों की राजनीति खूब चमकी, और उनकी स्थिति पर बुद्धि विलास करने वाले साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं को `दलित साहित्य' बताकर उसे बेचकर मालदार बनने की पक्रिया को बढ़ाया।

दलितों के नाम पर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने वाले वास्तव में क्या दलितों की पीड़ा से परिचित हैं? यह संदेहास्पद विषय है। इस दृष्टि से केवल एक नाम ही पामाणिकता के साथ लिया जा सकता है वह है डॉ. भीमराव अम्बेडकर जिन्होंने 1901 में अंग्रेजों द्वारा दिए गए नाम `दलित वर्ग' को अस्वीकार कर दिया था। उनका कहना था कि दलित समस्या मूलतः हिन्दू समाज के भीतर अस्पृश्य मानी जाने वाली जातियों की समस्या है। उन्होंने मांग उ"ाई थी कि `दलित वर्ग' के स्थान पर `बहिष्कृत हिन्दू' या `पोटेटैंट हिन्दू' शब्दों का इस्तेमाल होना चाहिए। आश्चर्य की बात तो यह है कि दलित साहित्यकार दलितावस्था को बनाए रखने में अधिक रुचि लेते हैं, क्योंकि उस अवस्था के समाप्त होने की स्थिति में वे सारे नेता और साहित्यकार बेकार हो जाएंगे जो दलितों के नाम पर कमाई करते हैं। इसीलिए वे गलती से भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा किए जाने वाले व्यापक कार्यों की अपने साहित्य में चर्चा तक नहीं करते।

हिन्दू समाज में दलित समस्या के निदान के लिए द्वितीय सरसंघचालक श्री गोलवलकर ने सभी धर्माचार्यों को संग"ित कर आगे लाना चाहा। 1969 में उडिपी (कर्नाटक) में विश्व हिन्दू परिषद का एक विराट सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें धर्मगुरुओं के एक बड़े समूह ने तथा 30 हजार से भी अधिक हिन्दू पतिनिधियों ने भाग लिया था। उन धर्माचार्यों से यह निवेदन किया गया था कि वे अपने हस्ताक्षरों सहित एक ऐसा घोषणा पत्र जारी करें जिसमें इस बात का उल्लेख हो कि किसी भी सामाजिक या धार्मिक क्रिया में ऊंच-नीच या छुआछूत संबंधी कोई भेदभाव न रक्खा जाए। सभी ने सहर्ष घोषणा पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए और उसका सभी पतिनिधियों ने अनुमोदन किया। श्री गोलवलकर ने स्वयंसेवकों को एक पत्र लिख कर अस्पृश्यता की समस्या पर व्यावहारिक मार्गदर्शन किया था जिसका एक अंश यहां उद्धृत हैö`अस्पृश्यता पर पारित पस्ताव, जिसे हमारे आचार्यों, धर्मगुरुओं, म"ाधिपतियों एवं अपने अन्य संप्रदायों के संतों का आशीवार्द मिल चुका है, को वास्तविक जीवन में चरितार्थ करने में केवल पवित्र शब्दों का पकटीकरण कुछ सहायता नहीं करेगा। सदियों पुराना पूर्वाग्रहपूर्ण दुर्भाव, शब्दों या चाहने मात्र से ही समाप्त होने वाले नहीं। नगर-नगर तक, गांव-गांव तक, घर-घर तक, क"ाsर परिश्रमपूर्वक पचार कार्य करना होगा और लोगों को समझना होगा ताकि वे पारित पस्ताव में दी गई बातों को स्वीकार करें और उन पर आचरण करें। ऐसा करना केवल आधुनिक युग के दबावों के कारण नहीं, वरन अपनी जीवन पद्धति एवं जीवन के शाश्वत सिद्धांतों पर आचरण-वश होना चाहिए, अतीत की गलतियों के लिए विनम्रभाव से पायश्चित स्वरूप किया जाना चाहिए। हृदयों में, मनोवृत्तियों एवं व्यवहारों में नैतिक तथा भावनात्मक परिवर्तन लाना ही पड़ेगा। अतीत में जो लोग हीनभाव से ग्रस्त बनाकर पीछे कर दिए गए थे उनके आर्थिक तथा राजनीतिक उत्थान हेतु तथा शेष समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए उन्हें आगे लाने का महाव्रती कार्य तो करना ही होगा। किन्तु यह अपने आपमें काफी नहीं है। आवश्यकता है परिवर्तन की, सम्पूर्ण समन्वयन एवं एकीकरण की। यह परिवर्तन लाना सरकारी योजनाओं की राजनीतिक शक्ति के बूते में नहीं है।'

राष्ट्रीय स्वयं संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री बालासाहेब देवरस ने घोषणा की थी, `यदि अस्पृश्यता एक पाप नहीं है तो इस विश्व में कोई दूसरा पाप नहीं है। इसे पूरी तरह से समाप्त होना ही पड़ेगा और उन्होंने स्वयंसेवकों को उपेक्षित बस्तियों में, जहां ऐसे अपने बंधु रहते हैं, व्यक्तिगत रूप से जाकर उनकी समस्याएं समझकर स्नेह और विनम्रतापूर्वक उनकी सेवा करने के लिए पेरित किया। पूरे देश में ऐसी बस्तियों में अनेक सेवा-पकल्प चल निकले। स्वयंसेवक उनकी कुटिया में जाते हैं, उन्हें अपनाते हैं, बातें करते हैं और उनके साथ बराबरी का व्यवहार करते हुए उन्हें स्नेह सम्मान देते हैं। कुछ सम्मानित व्यक्ति जैसे अधिवक्ता, चिकित्सक, व्यवसायी, अध्यापक आदि भी ऐसे घरों में जाते हैं और वहां भोजन करते हैं। वे ऐसे गरीब परिवारों को अपने घरों में भोजन करने के लिए बुला लेते हैं और कुछ अपने अन्य मित्रों के साथ उनका सम्माननीय अतिथियों जैसा स्वागत करते हैं।

करूर के राष्ट्रीय स्वयं संघ के संघचालक के परिवार में एक विवाह का आयोजन था। उन्होंने भोजनशाला के बाहर जू"न और बचा-खुचा भोजन पाने की पतीक्षा कर रहे भूखे और गरीब लोगों को भोजनशाला में बुलाकर भोजन करवाया। स्वयं अपने हाथों से उन्हें पेमपूर्वक भोजन परोसा। भोजन के बाद उन्हें पत्तल-उ"ाने या सफाई करने से मना कर दिया और विनम्रतापूर्वक स्वयं उनके पत्तल और जू"न उ"ाई। उन्हें बचा-खुचा नहीं खाने दिया। मंगलूर में संघ के स्वयंसेवक एक विवाहघर चला रहे हैं जिसका नाम है `संघ-निकेतन'। सामान्यतया, जब विवाह होते हैं तो समाज के कुछ लोग बाहर इंतजार करते हैं जहां भोजनोपरांत बची-खुची जू"न फेंकी जाती है। स्वयंसेवकों ने इस निंदनीय पथा को समाप्त करने के लिए कमर कस ली है। बाहर पतीक्षा कर रहे लोगों को बची-खुची जू"न लेने से रोके बिना वे भोज के आयोजकों को यह समझाते हैं कि इन गरीबों को भवन के अंदर बुलाकर उन्हें स्नेह और सम्मान के साथ भोजन कराएं।

रामनाथपुरम के जिला संघचालक स्वर्गीय आत्मानाथ स्वामी को अपने गांव के मंदिर में निम्न वर्ग के लोगों को पवेश करने देने के लिए गांव वालों को समझाने में पूरी सफलता मिली थी। गांव के मंदिर में एक पारंपरिक उत्सव था। मंदिर के सामने ग्रामवासियों के बै"ने के लिए पंडाल बनाया गया था। उसमें केवल ऊंची जाति के लोग ही बै"s थे और तथाकथित अछूत बाहर खड़े थे। पूजा के समय श्री आत्मानाथ स्वामी पंडाल के बारह चले गए और उन लोगों के साथ खड़े हो गए। स्वामी जी ने कहा कि जब तक पंडाल के बाहर खड़े लोग भी अंदर नहीं आ जाते तक तक वे अंदर नहीं जाएंगे। काफी वाद-विवाद और मंत्रणाओं के बाद गांव के सभी नेताओं ने उन तथाकथित अछूतों को सम्मानपूर्वक अंदर बुलाया और मंदिर के गर्भगृह के समक्ष उनके साथ सहभोज सम्पन्न हुआ।

जिन्हें हम दलित,अनुसूचित जाति या जनजातियां कहते हैं उनका देश और सनातन धर्म की रक्षा में बहुत बड़ा योगदान रहा। वे योद्धा और मातृभूमि के रक्षक थे। धन-सम्पत्तिविहीन किन्तु मान सम्मान की अनमोल थाती लिए ये पीड़ित दलित बंधु इस बात के लिए मजबूर कर दिए गए थे कि वे जंगलों में जाकर साधनहीन कष्टमय जीवन जिएं। ऐसी मान्यता है कि ऐसे अनेक पीड़ित परिवारों के सामने तीन विकल्प रखे गए थे, धर्मांतरण, वन-गमन या समाज में रहते हुए विजेता वर्ग के घरों का मल उ"ाकर बाहर फेंकना। अनेक भाइयों-बहनों ने इस तीसरे विकल्प का भी वरण किया था, किन्तु अपने धर्म के पति अपनी भाव भंगिमा नहीं छोड़ी थी। इसीलिए उन्हें भंगी कहा गया। सवधर्म के पति कट्टरता के कारण ही उन अभिनंदनीय धर्मरक्षकों के वंशजों को अपमान, अभाव एवं संत्रास का जीवन जीना पड़ा।

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