गणतंत्र दिवस पर मंथन
इन्दर सिंह नामधारी
आगामी 26 जनवरी 2019 को भारत के लोग देश के 70वें गणतंत्र दिवस को तामझाम के साथ मनाएंगे। गणतंत्र दिवस भारत के लिए उल्लास का दिन होता है क्योंकि देश के गली-कूचों में देशभक्ति के गीत गाए जाते हैं तथा राष्ट्रपति से लेकर पत्येक पदेश के राज्यपाल अपने-अपने विहित स्थानों से तिरंगा फहराते हैं।
राष्ट्रपति भवन से लेकर राज्यपालों के आवासों में बड़ी-बड़ी पार्टियां की जाती हैं जहां पर मंत्री, सांसद, विधायक एवं बड़े-बड़े नौकरशाह शिरकत करते हैं। सरकारी स्तर पर तो हम बड़ी उमंग के साथ गणतंत्र दिवस को मना लेते हैं लेकिन यदि इन्हीं कार्यक्रमों को हमने सफल गणतंत्र के चिन्ह के रूप में मान लिया तो यह देशवासियों की बहुत बड़ी भूल होगी। मेरी दृष्टि से गणतंत्र दिवस पर केवल सरकारी आयोजनों से ही इतिश्री नहीं की जानी चाहिए अपितु इस अवसर पर भारत के लोकतंत्र पर समुद्र मंथन के समान मंथन भी होना चाहिए। सर्वविदित है कि समुद्र मंथन में चौदह रत्न निकले थे जिनमें एक ओर लक्ष्मी, कामधेनु, ऐरावत हाथी, अमृत, चन्द्रमा इत्यादि अमोलक रत्न मिले थे वहीं हलाहल एवं वारिणी जैसे खतरनाक तत्व भी पाप्त हुए थे।
इस पृष्ठभूमि में यदि हम गणतंत्र दिवस का मंथन करें तो निश्चित रूप से जहां एक ओर गौरवान्वित करने वाले तत्व पाप्त होंगे जिसमें देश की बहुआयामी पगति का परिचय मिलेगा वहीं जहर के समान कई ऐसी त्रुटियां भी पाई जाएंगी जिनको लोकतंत्र के लिए कलंक कहा जा सकता है। इस मंथन के क्रम में यदि हम बहुमुल्य वस्तुओं को पाकर गौरवान्वित हो जाएं और विषैली वस्तुओं को नजरंदाज कर दें तो यह हमारे देश के लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होगा। हमने अपने लोकतंत्र के सात दशक पूरे कर लिए हैं और इस अवधि के दौरान जहां देश ने कई मामलों में बड़ी-बड़ी उपलब्धियां पाप्त कर ली हैं वहीं कई मामलों में देश भयंकर त्रुटियों का सामना कर रहा है। यही कारण है कि मैंने इस लेख में गणतंत्र दिवस के अवसर पर मंथन करने की आवश्यकता पर जोर दिया है।
समुद्र मंथन के समय सबसे बड़ी समस्या उस समय पैदा हुई थी जब विष (हलाहल) को निपटाने का मामला सामने आया था। अमृत पीने के लिए तो मार हो रही थी लेकिन विष पीने के लिए कोई तैयार नहीं था। यही समय था जब महादेव शिव की खोज की गई और उन्होंने विष पीकर अपने आपको नीलकं" बना लिया लेकिन पूरी सृष्टि को त्राण देने का वचन पूरा कर दिया। यही कारण है कि रहीम जैसे दूरदर्शी कवि को लिखना पड़ा कि,
मान सहित विष खाय के,
शम्भु भये जगदीश।
बिना मान अमृत पीयो,
राहु कटायो सीस।।
आज की राजनीति में भी किसी न किसी को शंकर बनना पड़ेगा अन्यथा भारत का लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। वर्ष 2019 में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं तथा लगभग दो महीनों के अंदर उसकी तिथियां भी घोषित कर दी जाएंगी। जैसे किसी विद्यार्थी की पहचान परीक्षा में लिखे गए उसके उत्तरों से होती है उसी तरह किसी देश के लोकतंत्र की परीक्षा चुनावों के दौरान हुआ करती है। भारत का संविधान दो टुक शब्दों में कहता है कि चुनावों के दौरान जाति, धर्म एवं संप्रदाय का कोई स्थान नहीं होगा और हरेक प्रत्याशी संवैधानिक दृष्टि से चुनाव लड़ने के लिए सक्षम होगा।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि जब भारत में चुनाव आते हैं तो सबसे पहले चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति की जाति, संप्रदाय एवं धर्म की पड़ताल की जाती है। राष्ट्रीय पार्टियां भी टिकट देने के पहले प्रत्याशी की जाति ढूंढते हैं ताकि उसकी जाति के बाहुल्य के क्षेत्र में उस प्रत्याशी को टिकट दी जा सके। इसी जाति की खोज से सबसे पहला पहार संविधान पर होता है क्योंकि संविधान में जाति की कहीं चर्चा तक नहीं है। जाति का निपटारा हो जाने के बाद उस प्रत्याशी की आर्थिक स्थिति का आंकलन किया जाता है ताकि वह चुनावों के दौरान पानी की तरह पैसा बहा सके। इस आलोक में प्रत्याशी की योग्यता, कर्म"ता एवं ईमानदारी नेपथ्य में चले जाते हैं तथा जाति और धन उत्तम प्रत्याशियों को पुं"ित कर देते हैं। इस वातावरण में क्या देश के निर्वाचित पतिनिधि संविधान के पति उत्तरदायी रह पाएंगे? अब तो विभिन्न दल बाहुबलियों को भी टिकट देकर लोकसभा एवं विधानसभा जैसे संवैधानिक सदनों में भेजने लगे हैं।
उपरोक्त दो विकृतियों के अतिरिक्त जो सबसे बड़ी हानिकारक खामी हमारे देश के लोकतंत्र में प्रवेश कर रही है उसका नाम है सांप्रदायिकता। भारत विविधताओं से भरा देश है जिसके चलते इसे अनेक जातियों एवं भाषाओं का संगम कहा जाता है। यही कारण है कि भारत की संस्कृति को गंगा-यमुनी संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है। दुर्भाग्य है कि हमारे देश में अब कई दल धार्मिक उन्माद पैदा करके चुनाव जीतना चाहते हैं। इस समय भारत में मुसलमानों की आबादी लगभग बीस करोड़ है और यदि कोई दल यह घोषणा करे कि हमें मुसलमानों के वोटों की कोई परवाह नहीं है तो इस पवृत्ति से स्पष्ट हो जाता है कि वह दल बहुसंख्यक समाज को ध्रुवीकृत करना चाहता है। हिन्दू धर्म अपने आपमें कई जातियों में बंटा हुआ है। अगड़े एवं पिछड़े की भावना को हम सात दशकों के बाद भी दूर नहीं कर सके हैं। शायद यही कारण है कि वर्तमान सरकार को अपने कार्यकाल के अंतिम दिनों में सवर्णों के लिए अलग आरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ी है ताकि उनकी नाराजगी को दूर किया जा सके। वास्तविकता में आरक्षण एक ऐसी नीति है जिससे देश की समस्याओं का हल नहीं खोजा जा सकता। गणतंत्र दिवस पर उपरोक्त समस्याओं पर गहन मंथन होना चाहिए ताकि हम देश के भविष्य को उज्जवल बना सकें। देश की जनता को भी अपने कर्तव्य को गंभीरता से निभाना होगा क्योंकि जनता भी जाति-पाति, बाहुबल, धनबल एवं सांप्रदायिक आधार पर पभावित हो जाती है। जनता अगर सोच ले कि वह उसी प्रत्याशी को वोट देगी जो जिम्मेवार एवं ईमानदार हो तो जाति, धर्म एवं संप्रदाय स्वतः पीछे छूट जाएंगे। भारत के लिए यह चिन्ता की बात है कि जहां उसको उपरोक्त बंधनों से मुक्त हो जाना चाहिए था वहीं देश की राजनीति में उपरोक्त तत्व हावी होते जा रहे हैं।
बेरोजगार युवकों को काम चाहिए, लेकिन तात्कालिक लाभ के लिए उनका ध्यान जबरन कट्टरता की ओर मोड़ा जा रहा है। देश की सत्ताधारी पार्टी युवकों को पेरित करती है कि वे तिरंगा यात्रा निकालें। बहुत कम लोग समझ पाते हैं कि इस तिरंगा यात्रा से आखिर पाप्त क्या होगा? उन्मादित युवक यदि तिरंगे के साथ हुजूम बनाकर अल्पसंख्यकों के मोहल्लों में प्रवेश कर जाते हैं तो अकसर दंगे होने की संभावना बनी रहती है क्योंकि विगत दिनों इस तरह की तिरंगे की यात्रा के दौरान कई शहरों में दंगे हो चुके हैं। गणतंत्र दिवस के पावन अवसर पर क्या हमें इन विकृतियों को दूर करने के लिए मंथन नहीं करना चाहिए? जिस वक्त वोट पाने के लिए धर्म, धन, संप्रदाय एवं जाति का दुरुपयोग होने लगेगा उसी दिन हमारे देश के लोकतंत्र का पतन होने लगेगा।
(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)