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शोरशराबे में और चीखने से हम न दूसरों की सुन सकेंगे, न अंतर्मन की

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:19 Jan 2019 3:23 PM GMT
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हरीश बड़थ्वाल

हमारे जीवन को असहज, बोझिल बनाता एक सच हैöपरिजनों, अजनबियों से तो दूर, अपनों से भी संवाद नहीं बै"ाना। बच्चे माता-पिता के उद्गार नहीं सुनना चाहते, पति-पत्नी एक दूसरे से ईमानदारी से अपने सरोकार साझा नहीं करते, वगैरह। नतीजन आपसी दूरियां बढ़ रही हैं और व्यक्ति एकाकी पड़ रहा है, मानसिक बीमारियों में तेजी से इजाफा आ रहा है। डब्लूएचओ और दिल्ली के एम्स के अनुसार देश का हर पांचवां शख्स मानसिक तौर पर अस्वस्थ है और अगले दस-बारह वर्ष में मानसिक रोगियों की संख्या उतनी हो जाएगी जितना शारीरिक तौर पर रोगियों की। चिंता रहती है तो बाहरी छवि की, वह दुरुस्त चाहिए, इस कदर कि अंदरूनी पीड़ाओं और उलझनों की किसी को भनक न लगे। जाहिर की जाएगी तो अपनी एक नकली, आकर्षक तस्वीर ताकि लोग कह उठें, वाहवाह, या लाइक्स के अंबार लग जाएं। खुदगर्जी का यह आलम कि दूसरा कोई नहीं। एक कवि की पशंसा में जब किसी ने कहा, `इस शहर में दो ही कवि हैं' तो कविवर को बर्दाश्त न हुआ। वे तपाक से बोलेö`दूसरा कौन है?'

एक सवाल मनोभावों और उद्गारों की अभिव्यक्त का है। जिंदा रहने के लिए कंधा चाहिए। हाजमा कितना भी दुरुस्त हो, अपनी व्यथाएं, करुणाएं, पीड़ाएं शेयर करनी ही होंगी, अन्यथा पगला जाने की पबल आशंका रहेगी। चेखव की एक कहानी का नायक कथालेखक है जिसकी कहानियां सुनने को कोई राजी नहीं। उसने भी रूटीन बना लिया, रोज शाम को कहानी अपने घोड़े को सुनाकर राहत पाता था। अपने सरोकार शेयर करने के बजाय घुटघुट जीने और खुदकुशी करने वालों की खासी तादाद है। हम बाज न आए तो इसमें इजाफा तय है।

खुला सोचने, बोलने, लिखने की पथा कमोबेश विलुप्त हो रही है। पारिवारिक और लोक समारोहों में भी यही चलन बढ़ रहा है। बातचीत ऊपरी, औपचारिक शब्दों के आदान-पदान तक सिमट गई है। और जब बोला ही जाएगा तो तुरंत, चीखकर, अकसर तैश में, अविचारे, अमूनन दूसरे को गिराने या फिर दूसरे को इम्पेस करने की मंशा से। समझने-समझाने के आशय से नहीं। यह तो संवाद न हुआ, संवाद में दूसरे का मंतव्य समझने का पयास किया जाता है। संवाद के दौरान वाणी पर लगाम की जरूरत पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन कहते हैं, `सामने वाले की बात हम तभी समझ पाएंगे जब एक-दूसरे पर चीखना-चिल्लाना बंद कर इतना शांत हो कर बोलें कि उनकी आवाजें सुन सकें।'

अपने एक मित्र को कहीं पहुंचने पर, दरवाजे पर हौले से दस्तक देने या जरा-सी घंटी बजाने की आदत थीं। अपने दरवाजे पर भी कुंडे वे हल्के से खट करते थे और भीतर वाले समझ जाते थे, कौन है। एक वे होते हैं जो दनादन लगे रहते हैं। बुद्ध ने कहा था, समझदार वह है जो उस भाव को पकड़ ले जो पकटतः बोला या लिखा नहीं गया है, जिसे कहते हैं पंक्तियों के बीच का पढ़ना (रीडिंग बिटवीन दि लाइंस)।

इसी तर्ज पर पीटर ड्रकर ने कहा, संवाद में सबसे महत्वपूर्ण वह सुनना है जो बोला नहीं गया है। जिनमें समझने की यह पवृत्ति नहीं होगी वह `जज्बात' को `अल्फाज' पढ़ता रहेगा। एश्ली ब्रिलेंट कहते हैं, शब्द भले ही विचारों की अभिव्यक्ति का शानदार साधन हों, किंतु वे आलिंगन, दुलार और शारीरिक स्पर्श का स्थान नहीं ले सकते।

फैंक लुकास का कहना है, किसी बै"क में जो व्यक्ति सबसे ऊंचा बोलने रहा है तो जान लीजिए वह सबसे कमजोर व्यक्ति है। अपनी बात चिल्लाकर तब बोला जाता है जब बोलने वाले में अहंकार हो या उसका सुनने वाले नहीं हों। सोचें, आपकी बातों में अन्यों की दिलचस्पी क्यों नहीं? तभी न जब आप उनके सरोकारों के पति कंसंर्ड रहेंगे, यानि आपमें खुदगर्जी कूट-कूटकर नहीं भरी होगी। सफलता के लिए पस्तुतीकरण को सर्वोपरि मानने वाला सिद्धांत भी व्यक्ति के आत्मिक विकास में बाधक बनकर उसे आडंबरी जिंदगी की ओर धकेल रहा है। सिखाया यह जाता है कि भीतर से आप कितने भी विखंडित, खोखले, क्षीण हों, दूसरे को नहीं पता चलना चाहिए। हमारे व्यवहार, कार्यकलापों और सोच के मूल में बुनियादी मान्यताएं क्या हैं, कितनी खरी हैं, इन्हें दरकिनार करने से बात नहीं बनने वाली।

हमें एक मुंह और दो कान इसलिए दिए गए हैं कि हम बोलें कम, सुनें अधिक। अतः जो भी बोलें, निष्ठा से और सोच समझकर; आपके मुंह से वही शब्द निकलने चाहिए जो आपका आशय है। याद रहे, जो शब्द हम अकसर पयुक्त करते हैं वे एक खास `फिजां' निर्मित करते हैं। दूसरी बात, ज्यादा बोलेंगे तो मुंह से फालतू का, अनर्गल निकलने की संभावना बढ़ेगी। थॉमस जैफर्सन कहते हैं, `मनुष्य की सबसे बड़ी खूबी यह है कि जब एक शब्द से काम सध जाए तो वह कभी दो नहीं बोले'।

बहुत बड़ी जमात है उनकी जो मेल-मुलाकात करने जाते हैं तो शुद्ध मनोरंजन या टाइम पास के लिए, दूसरों के और अपने बुनियादी सरोकारों को सायास दरकिनार रखने में वे अभ्यस्त होते हैं। ये व्यक्ति जब गलत, आपत्तिजनक बोलने पर पकड़ में आते हैं तो सीधे नट जाएंगे या कह देंगे, बातें हैं बातों का क्या! इसके विपरीत, जो व्यक्ति खुदगर्जी के मरीज नहीं हैं, जिनकी मानसिकता जीवनसाथी और संतति से पूरी तरह जकड़ी हुई नहीं है, जिनमें परहित का भाव पधान रहता और जो नेकी करते हैं वे चीखते, चिल्लाते, बड़बड़ाते विरले ही दिखेंगे। इससे बड़ी बात यह कि जीवन की संध्या में वे नितांत अकेले, निरीह नहीं पड़ जाते। वे तुष्ट, पसन्न भाव से जीते हैं।

मेलजोल के दौरान घर-बाहर, बातें करते, मीटिंगों में, शादी-ब्याहों तथा अन्य समारोहों में, हर तरफ शोर है। इन अवसरों पर बजाया भी जाता है तो शोर, संगीत नहीं। संगीत तो सुकून और शांति देता है। पिछले दिनों एक शादी में जाना हुआ, सोचा था लंबे अंतराल के बाद कुछ चिर-परिचितों से अंतरंग बातें होंगी। किंतु अफसोस, वहां के कानफोड़ू माहौल में वैसा कुछ न हो पाया, मन मसोज कर रह गया। बाद में हम लोग अपने अपने मुकामों पर लौट गए।

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