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कांग्रेस ने किया अपने नेतृत्व का अवमूल्यन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:24 Jan 2019 3:22 PM GMT
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

कांग्रेस में जश्न का माहौल है। प्रियंका गांधी वाड्रा पार्टी की महासचिव बनी, इसी के साथ उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान सौंपी गई है। लेकिन यह आनंद का नहीं आत्म विश्लेषण का विषय है। इस निर्णय से अनेक प्रश्न उजागर होते है। क्या यह राहुल गांधी की क्षमता के प्रति अविश्वास तो नहीं है। प्रियंका गांधी पार्टी की सामान्य नेता नही है। यदि सामान्य नेता को महासचिव बनाया जाता, पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा जाता तो इस पर खास चर्चा नहीं होती। लेकिन परिवार आधारित राजनीति के हिसाब से पार्टी पर उनका दावा राहुल की अपेक्षा ज्यादा न्यायसंगत था। वह सोनिया गांधी की बड़ी पुत्री है। राजनीति के प्रति उनका लगाव भी रहा है। ऐसे में यह सहज स्वभाविक निर्णय नहीं है। अभी तक यह था कि प्रियंका गांधी सक्रिय राजनीति से दूर रहेगी। कांग्रेस की कमान राहुल ही संभालेंगे।

बताया जा रहा था कि सोनिया गांधी की यही इच्छा थी। वह प्रियंका को अध्यक्ष बनाने के लिए सहमत नही थी। ऐसे में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का एक साथ अवमूल्यन हुआ है। यह निर्णय किसकी सलाह पर हुआ, यह तो कांग्रेस के शीर्ष नेता ही जानते है। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इससे यह संदेश गया है कि राहुल गांधी के नाम पर पार्टी के ग्राफ को बढ़ाना आसान नहीं है। इस प्रकार अध्यक्ष के रूप में यह राहुल का अवमूल्यन है। प्रियंका में कभी पार्टी अध्यक्ष की संभावना देखी जा रही थी, उन्हें महासचिव बनाकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों तक समेट दिया गया। यह सोनिया गांधी का अवमूल्यन है।

इसी से जुड़ी हुई बात यह भी है कि विपक्षी गठबंधन के नाम पर चल रही कवायद में राहुल को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। इस कारण भी प्रियंका को पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गई है। कांग्रेस को लग रहा है कि इस प्रयोग से उसकी स्थिति में सुधार आ जाएगा। पहले राहुल गांधी के नेतृत्व पर गौर कीजिए। चुनाव में जय पराजय स्वभाविक है। लेकिन किसी नेता की पद के अनुरूप गंभीरता का भी अपना महत्व होता है। लेकिन राहुल गांधी इस मोर्चे पर विफल रहे है।यह माना जा रहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उनमें गंभीरता आ जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। भाषाई मर्यादा के प्रति वह पहले से ज्यादा लापरवाह हुए है। नेशनल हेराल्ड घोटाले में वह स्वयं पेरोल पर बाहर है, लेकिन चौकीदार चोर जैसे बचकाने नारे लगवाते है। सुप्रीम कोर्ट ने राफेल विमान खरीद प्रक्रिया और मूल्य दोनों को उचित माना है। इसके बाद राहुल बार-बार एक जैसे प्रश्न दोहराते है। उनका जवाब मिल जाता है, लेकिन उन्हें समझने की जगह वह फिर वही प्रश्न उठा देते है। नोटबंध, जीएसटी,ईवीएम के अलावा उनके पास कोई मुद्दे नहीं है। अभी तीन राज्यों में कांग्रेस को सफलता मिली। लेकिन इसका केडिट भी राहुल को नहीं मिला। कहा गया कि भाजपा पराजित हुई है। लेकिन छतीसगढ़ को छोड़कर कहीं भी कांग्रेस या राहुल का करिश्मा दिखाई नहीं दिया। कर्नाटक में भी उसे अपने से आधे संख्याबल वाले दल के सामने झुकना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में राहुल के सभी प्रयोग बेअसर रहे है। सत्ताईस सल यूपी बेहाल के नाम से खटिया सभाएं की, लेकिन इसी के बाद सपा से समझौता कर लिया। परिणाम सबके सामने है। सपा बसपा ने मिल कर कांग्रेस को दूध की मक्खी की तरह फेंक दिया। इसके बाद भी राहुल में उनके विरोध का साहस नहीं है। वह सपा बसपा की आलोचना नहीं करना चाहते। ऐसे में कांग्रेस स्वत मुकाबले से बाहर रहेगी। अत यह सोचना बेमानी होगा कि प्रियंका प्रभारी बन कर पार्टी को बचा लेंगी।

राहुल के बयान से यही लग रहा है। उन्होंने कहा मुझे काफी खुशी है कि मेरी बहन, जो बहुत सक्षम और कर्मठ हैं, वे मेरे साथ काम करेंगी। ज्योतिरादित्य सिंधिया भी डायनामिक युवा नेता हैं। प्रियंका और ज्योतिरादित्य को मैंने दो महीने के लिए उप्र नहीं भेजा है। उन्हें कांग्रेस की सच्ची विचारधारा के लिए लड़ना है।

मुझे उम्मीद है कि दोनों काम करेंगे और उप्र के युवाओं को जो चाहिए, वह कांग्रेस पार्टी उन्हें देगी। राहुल ने कहा कि हमारी माया अखिलेश से कोई दुश्मनी नहीं है। हम उप्र में पूरे दम से चुनाव लड़ेंगे। जहां तक हम भाजपा को हराने के लिए एक साथ काम कर सकते हैं, वहां करेंगे। हमारी लड़ाई भाजपा के खिलाफ है। हम सहयोग के लिए तैयार हैं। राहुल ने कहा कि हम उप्र के युवाओं से कहना चाहते हैं कि उन्होंने यहां भाजपा की सरकार बना रखी है, लेकिन भाजपा ने उप्र को बर्बाद कर दिया। हम नई दिशा देंगे। हम चाहते हैं कि उप्र नंबर एक बने। अब भाजपा घबराई हुई है। हम बैकफुट पर कहीं नहीं खेलेंगे, हमे जहां मौका मिलेगा हम खेलेंगे। राहुल का यह बयान ही विरोधाभाषी है। यहां उन्हें भाजपा के साथ साथ सपा बसपा से भी लड़ना होगा। सपा बसपा के सामने दीनता दिखाने का नुकसान कांग्रेस को ही होगा।

अब प्रियंका स्थिति पर विचार करिए। पूर्वी उत्तर प्रदेश का उन्हें प्रभारी बनाया गया है। आजमगढ़, बलिया, बांसगांव, बस्ती, भदोही, संतकबीर नगर, वाराणसी, फूलपुर, इलाहाबाद, कौशांबी, प्रतापगढ़, फतेहपुर आदि में वह प्रचार करेंगी। इसका मतलब है कि कांग्रेस ने उन्हें चंद सीट तक सीमित कर दिया है। यह उन्हें विफल करने वाला फैसला है। प्रियंका किसी पद की दावेदारी में नहीं रहेगी। ऐसे में वह क्या कहेगी कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट मांग रही है। क्या यह सुनकर लोग उनकी बात मान लेंगे। इसके अलावा प्रियंका गांधी के पति रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जमीन घोटाले की जांच अंतिम चरण में बताई जा रही है। राजस्थान और हरियाणा में उन पर कृषि भूमि के अनियमित सौदे से बड़ा मुनाफा हड़पने का आरोप है। प्रियंका को इसका भी जवाब देना होगा। कांग्रेस की प्रदेश में जो दशा है, उसमें प्रियंका कोई बड़ा सुधार करने की स्थिति में नहीं है। वैसे यह निर्णय राहुल और प्रियंका की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाला नहीं है। इसके विपरीत इसने दोनों का अवमूल्यन किया है। इसका पार्टी को नुकसान होगा।

(लेखक विद्यांत हिन्दू पीजी कॉलेज में राजनीति के एसोसिएट पोफेसर हैं।)

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