कोलकाता में लोकतंत्र की छवि धूमिल हुई
राजेश माहेश्वरी
कोलकाता पुलिस और सीबीआई के बीच जो कुछ भी हुआ उसने कानून और संविधान को चोट पहुंचाने के साथ ही साथ संविधान को भी सवालों के कटघरे में खड़ा करने का काम किया है। उससे भी ज्यादा शर्मनाक यह रहा है कि राज्य की निर्वाचित मुख्यमंत्री आरोपी अफसर के बचाव में सड़क पर उतर आयी और धरने पर बै" गयी। इसी सारी सियासत और उ"ापटक ने भारत के संघीय ढांचे की चूलें हिलाने का काम किया है। वास्तव में, सीबीआई पश्चिम बंगाल के बहुचर्चित शारदा घोटाले में पूछताछ के लिये राजीव कुमार के घर पहुंची थी। राजीव कुमार शारदा घोटाले की जांच की लिए बने विशेष जांच दल के मुखिया रह चुके है और इस कारण एक गवाह भी हैं।
सीबीआई का कहना है कि वे जांच में सहयोग नहीं कर रहे हैं तथा मांगे जाने पर भी जरूरी दस्तावेज उपलब्ध नहीं उपलब्ध करवा रहे। यही नहीं तो बकौल सीबीआई उन्होंने घोटाले से सम्बंधित कुछ फ्रमाण नष्ट भी कर दिए। ये जांच सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर मोदी सरकार के पहले से चल रही है। बीते रविवार ज्यों ही सीबीआई दल पूछताछ हेतु पहुंचा तो बजाय सहयोग करने के राजीव कुमार ने उसके कुछ सदस्यों को गिरफ्तार करवा दिया। कोलकाता पुलिस ने सीबीआई के साथ स्थानीय पुलिस ने जो हाथापाई, धक्कामुक्की की और अफसरों को गिरफ्तार किया, वह बिलकुल अफ्रत्याशित और अभूतपूर्व था। स्वतंत्र भारत में कमोबेश यह पहली बार देखने को मिला है। बेशक दलीलें कुछ भी दी जाएं, सियासी कुतर्क किए जाएं, मुख्यमंत्री ममता बनर्जी धरने पर बै"sं या अनशन भी शुरू कर दें, लेकिन यह संवैधानिक संकट की स्थिति है। यह लोकतांत्रिक अराजकता है।
इन सबके बीच घोटाले की जांच तो पीछे चली गई और राजनीतिक नाटक शुरू हो गया। देश भर से भाजपा विरोधी विपक्षी नेताओं ने ममता बनर्जी को फोन करते हुए समर्थन दे दिया। इस अभूतपूर्व स्थिति के बाद सीबीआई ने सर्वोच्च न्यायालय जाने का निर्णय लिया। पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार को सुफ्रीम कोर्ट से तगड़ा झटका लगा। सुफ्रीम कोर्ट ने सारदा चिटफंड घोटाले में पूछताछ के लिए कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को सीबीआई के सामने पेश होने का आदेश दिया है। शीर्ष अदालत ने साथ ही यह साफ किया राजीव की फिलहाल गिरफ्तारी नहीं होगी। अदालत ने साथ ही राज्य के मुख्य सचिव, डीजीपी और कोलकाता पुलिस कमिश्नर को मानहानि का भी नोटिस भेजा है। कोर्ट के फैसले के बाद ममता बनर्जी ने कहा कि हम कोर्ट के आदेश का स्वागत करते हैं। सुफ्रीम कोर्ट का फैसला हमारे लिए नैतिक जीत है। लेकिन इन सबके बीच एक अहम सवाल है कि यह उ" रहा है कि सीबीआई के नोटिस पर भी राजीव कुमार ने पूछताछ में सहयोग क्यों नहीं किया और यदि उसकी टीम उनके घर पहुंच ही गई तब बजाय उसके सदस्यों को गिरफ्तार करने के वे मांगी गई जानकारी और दस्तावेज उपलब्ध करवा सकते थे।
सीबीआई को सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिए थे कि करीब 3000 करोड़ रुपए के सारदा चिटफंड घोटाले में जांच करे। शीर्ष अदालत ने 2014 में पश्चिम बंगाल के अलावा ओडिशा और असम की पुलिस को आदेश दिए थे कि वे सीबीआई के साथ जांच में सहयोग करें और घोटाले की सभी जानकारियां सीबीआई को दें। कोलकाता पुलिस कमिश्नर राजीव कुमार को भी जांच एजेंसी ने तीन-चार बार समन भेजे थे, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। एक आईपीएस अधिकारी की औकात संविधान और आईपीसी की धाराओं से बढ़कर नहीं हो सकती। सीबीआई और दूसरी जांच एजेंसियों ने मंत्रियों, सांसदों, नेताओं, पूर्व मंत्रियों और आईएएस अफसरों से भी सवाल-जवाब किए हैं। तो पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने में क्या आपत्तियां हो सकती हैं? मुख्यमंत्री ममता बनर्जी सार्वजनिक रूप से कमिश्नर की ढाल क्यों बनीं? क्या कुछ छिपाया जा रहा था? लगता है, ममता सरकार और पुलिस को न लोकतंत्र, न केंद्र-राज्य संबंधों, न ही सर्वोच्च न्यायालय और न ही देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी की परवाह है। कोलकाता की पुलिस भी ममता बनर्जी की `निजी पुलिस' नहीं है। ऐसे भारत सरीखे संघीय राष्ट्र की व्यवस्था कैसे चलेगी?
गौरतलब यह है कि 2013 में ममता सरकार ने ही इस घोटाले में एसआईटी (विशेष जांच दल) का ग"न किया था और राजीव कुमार को ही उसका अध्यक्ष बनाया था। तब घोटाले से जुड़े अहम कागजात, दस्तावेज, रिकॉर्ड आदि गायब हुए थे। आरोप राजीव कुमार पर ही लगे थे। सीबीआई के अंतरिम फ्रमुख नागेश्वर राव का कहना है कि उनके खिलाफ सबूत हैं। सबूतों को मिटाने और कानून में बाधा डालने की कोशिश की गई है। पुलिस कमिश्नर ने सभी सबूतों को जब्त कर लिया है। वह दस्तावेजों को सुपुर्द करने में हमारा सहयोग नहीं कर रहे हैं। लिहाजा वह भी घोटाले में वांछित रहे हैं। अब भी सीबीआई की आशंका है कि घोटाले के साक्ष्य, दस्तावेज तबाह किए जा सकते हैं।
यदि जांच एजेंसी उन्हें गिरफ्तार करती तब तो ममता का बवाल मचाना वाजिब भी होता लेकिन महज सीबीआई के घर पर आ जाने से संघीय ढांचा और संविधान किस तरह खतरे में पड़ गया ये समझ से परे है। इस मसले पर केंद्र और राज्य दोनों ही अपने को सही "हराने में जुटे हुए हैं। ममता के आरोप सही हैं या गलत इस बहस में पड़े बिना ये तो पूछा ही जा सकता है कि एक अधिकारी के घर किसी जांच एजेंसी के जाने पर राज्य के मुख्यमंत्री का धरने पर बै" जाना कहां तक संविधान सम्मत है? क्योंकि इससे एक नई परिपाटी जन्म ले सकती है। ममता को ये नहीं भूलना चाहिए कि राजीव कुमार भले ही उनके राज्य में पदस्थ हों किन्तु वे भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी होने से केंद्र सरकार के अधीनस्थ ही होते हैं। यदि मोदी सरकार उन्हें कोलकाता से हटाकर दिल्ली बुलवा ले तब ममता क्या वहां जाकर भी धरने पर बै"sंगी? कोलकाता से उ"ा ये सियासी बवंडर न तो संघीय ढांचा बचाने के लिए है और न ही संविधान की चिंता इसके पीछे है।
केंद्र सरकार यदि राजनीतिक फ्रतिशोध की भावना से ममता सरकार को परेशान कर रही है तो वे भी कौन सी सौजन्यता दिख रही हैं? यदि राजीव कुमार पाक साफ हैं और शारदा घोटाले में ममता तथा उनके निकटस्थ निर्दोष हैं तो संबंधित कागजात एवं अन्य फ्रमाण जांच एजेंसी को सौंपने में क्या आपत्ति थी? रही बात ममता के धरने की तो उनकी आदत और कार्यशैली से सभी परिचित हैं इसलिए उनके धरने पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ। लेकिन इस विवाद के बाद संघीय ढांचे और केंद्र-राज्य सम्बन्धों को लेकर चलने वाली बहस नए मोड़ पर आ पहुंची है। कल को कोई राज्य सर्वोच्च न्यायालय को भी "sंगा दिखाने लगे तब भी क्या संघीय ढांचे का रोना रोया जाएगा? राजीव कुमार जिस तरह से ममता के धरने में शिरकत कर रहे हैं उसकी वजह से वे सेवा शर्तों के उल्लंघन के आरोप में भी घिर गए हैं।
ममता बनर्जी की शासन शैली कभी भी लोकतांत्रिक नहीं रही और अपने भ्रष्टचार को छिपाने के लिए भी वे तमाम हथकंडे आजमाती रही हैं। वे उन्माद की राजनीति करती हैं, मुद्दों और सिद्धांतों की नहीं। इसीलिए वे उस सरकार की भी हिस्सा थीं जिसने गुजरात दंगों के समय आंखें बद कर रखी थीं। सीबीआई और पुलिस की भिड़ंत देश और लोकतंत्र की छवि धूमिल कर गई। इस फ्रकरण के लिए भी ममता ने फ्रधानमंत्री मोदी को खूब कोसा है। हमारी व्यवस्था में सीबीआई फ्रधानमंत्री के अधीन ही कार्य करती रही है, लिहाजा एजेंसी की किसी भी कार्रवाई के लिए फ्रधानमंत्री को `तानाशाह' करार दिया जाता रहेगा या ऐसे ही अपशब्दों से आरोपित किया जाएगा। ममता के पक्ष में विपक्ष की लामबंदी भी स्वाभाविक है, क्योंकि 2019 के आम चुनाव लगभग सामने हैं। लेकिन इन सबके बीच लोकतंत्र और संघीय ढांचे को गहरी चोट पहुंची है, जिसकी भरपाई संभव नहीं है।