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चौबे गए थे छब्बे बनने दूबे बनकर आए

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:16 Feb 2019 3:22 PM GMT
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इन्दर सिंह नामधारा

लोकतंत्र की परिभाषा तो जनता को ही सर्वोपरि मानती है लेकिन विडंबना है कि उपरोक्त परिभाषा का लगातार उपहास होता रहता है। भारत की राजधानी दिल्ली इसका साक्षात पमाण है। देश की राजधानी होने के नाते केंद्र का पूरा आमला-काफिला दिल्ली में ही अवस्थित रहता है। यहां तक कि दुनिया भर के देशों के दूतावास दिल्ली में ही रखे जाते हैं।

शायद यही कारण रहा होगा कि स्वतंत्रता के बाद केंद्र की सभी सरकारों ने दिल्ली को अपने साथ जोड़ के रखा। जैसे-जैसे दिल्ली का आकार बढ़ता गया वैसे-वैसे यह मांग जोर पकड़ने लगी कि दिल्ली को अलग राज्य का दर्जा दिया जान चाहिए।

विभिन्न दलों की सरकारें दिल्ली को राज्य बनाने का वादा तो करती रहीं लेकिन कई दशकों तक यह मांग पूरी नहीं हो सकी। कालांतर में वर्ष 1992 में दिल्ली को राज्य का दर्जा दे ही दिया गया लेकिन विधि-व्यवस्था का पभार केंद्र सरकार के साथ ही निहित रहा। लगभग तीन दशकों में राज्य बनने के बाद दिल्ली को कई खट्टे-मी"s अनुभव पाप्त हुए हैं। केंद्र की सरकारें भी बदलती रहीं लेकिन किसी ने भी यह अहसास नहीं किया कि जनता द्वारा निर्वाचित राज्य सरकार को कैसे सक्षम बनाया जाए? वैसे तो कांग्रेस नेत्री शीला दीक्षित लगभग 15 वर्षों तक दिल्ली की मुख्यमंत्री बनी रहीं और केंद्र में कई सरकारें आईं और गईं फिर भी वह अपना दैनन्दिन कार्य चलाती रहीं। जब से अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आप पार्टी की सरकार सत्ता में आई है तब से पिछले चार वर्षों में वह सब कुछ देखने को मिला जो एक लोकतांत्रिक देश के लिए शर्म की बात है। यह ज्ञातव्य है कि अरविन्द केजरीवाल एक अलग मिजाज के व्यक्ति हैं जो पधानमंत्री पर भी टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। शायद यही कारण है कि जब से उन्होंने दिल्ली की बागडोर संभाली है तब से दिल्ली सरकार एवं केंद्र सरकार में कसके "नी हुई है। दिल्ली के मुख्यमंत्री एवं लेफ्टिनेंट गवर्नर में अपनी-अपनी शक्ति को लेकर भिड़त होती ही रहती है लेकिन दिल्ली में मोदी जी की सरकार आने के बाद अरविन्द केजरीवाल एवं भाजपा सरकार में टकराव पराकाष्ठा पर पहुंच गया है।

यह पहला मौका है जब आप पार्टी के लगभग आधे सदस्य किसी न किसी मामले में पुलिस की गिरफ्त में आ चुके हैं। पुलिस की बागडोर चूंकि केंद्र सरकार के अधीन है इसलिए हायतौबा करने के बाद भी पुलिस जब चाहती है विधायकों को जेल में "tस देती है। लेफ्टिनेंट गवर्नर अपने आपको सबसे ऊपर समझते हैं इसलिए वे एक तानाशाह के रूप में काम करते हैं जिनके सामने मुख्यमंत्री बौना हो जाता है। इसे लोकतंत्र की विडंबना ही कहेंगे कि केंद्र सरकार द्वारा नामित एक अनिर्वाचित व्यक्ति लेफ्टिनेंट गवर्नर बनकर सरकार का सर्वेसर्वा बन जाता है जबकि जनता द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री उसके सामने बौना हो जाता है।

दिल्ली की 70 विधानसभा में से 67 सीटें जीतकर आप पार्टी की सरकार सत्ता में आई लेकिन उसे लगातार अपमान का सामना करना पड़ रहा है। परंपरानुसार किसी लोकतांत्रिक देश में जनता का चुना हुआ व्यक्ति ही सर्वोपरि होता है और शायद यही कारण है कि भारतीय संविधान में देश का पहला नागरिक होने के बावजूद राष्ट्रपति केवल हाथी के दांत की तरह मुखिया तो होता है लेकिन सारी शक्तियां पधानमंत्री में ही निहित रहती हैं। इसके "ाrक विपरीत दिल्ली में सब शक्तियां तो लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास होती हैं जिसके चलते निर्वाचित मुख्यमंत्री बेचारा बनकर रह जाता है। इस परिस्थिति से तंग आकर दिल्ली की अरविन्द केजरीवाल सरकार ने हाई कोर्ट में एक मामला दर्ज करके दिल्ली सरकार की शक्तियों को निर्धारित करने के लिए एक याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय से जब मनोनुकूल न्याय नहीं मिल सका तो दिल्ली सरकार उस मामले को सर्वोच्च न्यायालय में ले गई। दिल्ली सरकार को पूर्ण विश्वास था कि सर्वोच्च न्यायालय से उन्हें राहत पाप्त होगी ताकि वे सरकारी कामकाज को "ाrक से चला सकेंगे। इसे विडंबना ही कहेंगे कि दिनांक 14 फरवरी 2019 को सुपीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार की शक्तियों को लेकर जो अपना फैसला दिया है उससे दिल्ली की स्थिति ही हास्यास्पद हो गई है। दुनिया में शायद ही कोई ऐसा निर्वाचित मुख्यमंत्री होगा जिसको दैनन्दिन काम करने में अपने आपको पंगू महसूस करना पड़ता हो। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार दिल्ली सरकार के अफसरों के ट्रांसफर तीन जजों की एक पैनल किया करेगी जबकि पशासन, एसीबी (एंटी करप्शन ब्यूरो) एवं सरकारी नीतियों पर लेफ्टिनेंट गवर्नर का ही नियंत्रण रहेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने बिजली एवं कतिपय अन्य मामलों को दिल्ली सरकार के अधीन तो रखा है लेकिन इस आदेश से यह सिद्ध हो गया है कि दिल्ली सरकार व्यावहारिक रूप से कोई भी काम अपने मन से नहीं कर सकेगी।

उदाहरण स्वरूप दिल्ली का कोई पदाधिकारी यदि निर्वाचित सरकार के मनोनुकूल काम नहीं करता तो उस अधिकारी को बदलवाने के लिए दिल्ली सरकार को तीन जजों की पैनल के सामने जाना पड़ेगा। पता नहीं सरकार के आग्रह को तीन जजों की बेंच स्वीकार करेगी भी या नहीं? इस हालत में कोई निर्वाचित सरकार आखिर कैसे काम कर सकेगी क्योंकि निर्वाचित सरकार पर लोगों को पूरा भरोसा होता है कि वह राज्य में जो चाहेगी वह करेगी। दिल्ली जैसे पांत में अनेक तरह के फ्रॉड और दुर्दांत कांड होते रहते हैं। उन पर नियंत्रण रखने के लिए पूर्व में एसीबी पर दिल्ली सरकार का नियंत्रण हुआ करता था और शायद इसी आधार पर अरविन्द केजरीवाल दावा किया करते थे कि वे दिल्ली में भ्रष्टाचार को समाप्त करके ही दम लेंगे। दिल्ली सरकार ने जब एसीबी के बल पर भ्रष्टाचारियों को पकड़ना शुरू किया तो केंद्र सरकार को उनका यह काम रास नहीं आया और केंद्र सरकार ने एसीबी को अपने अधीन में कर लिया। केंद्र सरकार के इस कदम से एसीबी आप पार्टियों के मंत्रियों एवं विधायकों पर ही व्यापने लगी। दिल्ली सरकार को आशा थी कि इन सब विकृतियों को सर्वोच्च न्यायालय का आदेश दूर कर देगा लेकिन हुआ इससे "ाrक विपरीत।

सर्वोच्च न्यायालय का जब फैसला आया तो दिल्ली सरकार सकते में आ गई क्योंकि पहले जो सुविधाएं पाप्त थीं उन पर भी सुपीम कोर्ट ने पाबंदियां लगा दीं। अब दिल्ली में यदि किसी पदाधिकारी पर कार्रवाई करनी है तो दिल्ली सरकार को लेफ्टिनेंट गवर्नर के पास गुहार लगानी पड़ेगी। लेफ्टिनेंट गवर्नर केंद्रीय सरकार का एक नौकर होता है और उसे केंद्र के इशारों पर चलना पड़ता है इसलिए यदि किसी भ्रष्ट आंफिसर को दिल्ली सरकार पकड़ना भी चाहे तो मामला फिर केंद्र सरकार के हाथों में चला जाएगा।

मेरी दृष्टि से सर्वोच्च न्यायालय से दिल्ली के कामकाज का सारा तानाबाना इस तरह से बिखर गया है कि वह जनता को कोई सार्थक काम करके नहीं दिखा सकती। केंद्र की सरकार तो दिल्ली के मामले में पहले से ही मूकदर्शक बनी हुई थी जहां आप पार्टी के विधायकों को जब चाहती है पकड़कर जेल में धकेल देती है। मेरी दृष्टि में यह आप सरकार या अरविन्द केजरीवाल का अपमान नहीं अपितु भारत के लोकतंत्र का सीधा अपमान है।

केंद्रीय सरकार यदि दिल्ली में निर्वाचित सरकार को बर्दाश्त नहीं कर सकती तो उसे वर्ष 1992 के पहले की स्थिति को बहाल कर देना चाहिए ताकि दिल्ली केंद्र सरकार का हिस्सा बना रहे। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश ने देश की एक पुरानी कहावत को सार्थक कर दिखाया है कि `चौबे गए थे छब्बे बनने दूबे बनकर आए।'

(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

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