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मानवाधिकार अथवा दानवाधिकार?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:26 Feb 2019 3:43 PM GMT
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श्याम कुमार

मानवाधिकार का आधारभूत सिद्धांत यह है कि नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा हो तथा उनके साथ अन्याय न होने पाए। इसीलिए मानवाधिकार आयोग अस्तित्व में लाया गया था। किन्तु हमारे यहां अर्थ का अनर्थ होना आम बात है। जिसे जो दायित्व सौंपा जाता है, उस दायित्व का निर्वाह करने में या तो शिथिलता बरती जाती है अथवा उसके बजाय अन्य कार्यों का निष्पादन किया जाने लगता है। न्यायमूर्ति मारकंडेय काटजू जब भारतीय पेस परिषद के अध्यक्ष थे तो वह पत्रकारों का हित-चिंतन करने के बजाय नित्य अन्य तमाम विषयों पर बयानबाजी करते रहते थे। उदारता के आत्मघाती रोग ने भी हमें बहुत क्षति पहुंचाई है। आजादी के बाद 70 वर्षें में हमारी केंद्र सरकार उदारता के रोग से इतनी अधिक ग्रस्त रही है कि उसके कारण विश्व में हमारी छवि एक बहुत कमजोर एवं डरपोक देश की बन गई थी। हर कदम पर हम समर्पण करते दिखाई देते थे। उस मनोवृत्ति का हमारे यहां सर्वत्र बड़ा दुष्पभाव पड़ा। हमारी मानवाधिकार की परिभाषा भी बदल गई। मानवाधिकार का वास्तविक उद्देश्य था सज्जन नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करना, किन्तु इसके बजाय मानवाधिकार दुर्जनों के मूल अधिकारों के रक्षक के रूप में परिवर्तित हो गया। हमारे यहां ग"ित किए गए मानवाधिकार आयोग हकीकत में `दानवाधिकार' आयोग बन गए। उन्हें सज्जन नागरिकों के अधिकारों की चिंता के बजाय गुंडों, बदमाशों, हत्यारों, देशद्रोहियों आदि के अधिकारों की चिंता रहने लगी। मानवाधिकार आयोग हमेशा अपराधियों के हित में ही सक्रिय दिखाई देने लगे।

वस्तुतः गलती हमारे मानवाधिकार आयोगों की ही है। उन्हें चाहिए था कि वे सज्जन लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए पयत्नशील होते, लेकिन इसके बजाय वे अपराधियों की ओर अपनी सक्रियता एवं उदारता पदर्शित करने लगे। आम नागरिकों के हित की बात वे जैसे भूल गए। कभी सुनने में नहीं आया कि आम लोगों को मिलने वाले कष्टों एवं यातनाओं की ओर देश के मानवाधिकार आयोगों ने ध्यान दिया हो। हमारी ट्रेनों में निचली श्रेणी के डिब्बों में यात्रियों को जिस पकार भेड़-बकरियों की तरह एक के ऊपर एक लदकर सफर करना पड़ता है, वह दिल दहलाने वाला होता है। आमतौर पर पूरी ट्रेन में साधारण श्रेणी वाली मात्र दो बोगियां लगाई जाती हैं, जिनमें टिकट होने के बावजूद तमाम लोग भीड़ के कारण बोगी में च़ढ़ नहीं पाते। बच्चों व महिलाओं की और भी अधिक दुर्दशा होती है। कभी-कभी तो लोग उस घुटन में बेहोश हो जाते हैं। क्या यात्रियों का मानवाधिकार नहीं है कि वे टिकट लेकर ट्रेन में सुविधापूर्वक सफर करें? शहरों में स्थानीय निकाय जब नागरिकों को मूलभूत सुविधों नहीं पदान करते, जबकि उनसे टैक्स लिया जाता है तो क्या यह उन नागरिकों के मानवाधिकार का हनन नहीं है?

नागरिकों के मानवाधिकारों का कदम-कदम पर उल्लंघन किया जाता है, किन्तु उसके लिए जिम्मेदार अफसरों को हमारे देश अथवा पदेश के मानवाधिकार आयोगों ने कभी दण्डित नहीं किया। तार-बंधी पतंगें उड़ाए जाने पर उन तारों में उलझकर कितने ही राहगीर घायल हो जाया करते हैं और मौतें भी होती हैं, लेकिन मानवाधिकार आयोगों ने कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया। सड़कों पर गड्ढों में गिरकर अथवा मानक के विपरीत बनाए गए गतिरोधकों (स्पीडब्रेकर) से टकराकर नित्य बड़ी संख्या में लोग मरते हैं। मिलावटखोरी के पति पशासन के शिथिल रवैये से जनता का स्वास्थ्य चौपट हो रहा है और लोग मौत के मुंह में समा रहे हैं। मानवाधिकार आयोगों ने कभी उस ओर ध्यान देने का कष्ट नहीं किया। विगत में उत्तर पदेश मानवाधिकार आयोग में एक सदस्य न्यायमूर्ति विष्णु सहाय थे, जिन्होंने नागरिकों की समस्याओं को लेकर दो-चार बार सक्रियता दिखाई थी, जिसके लिए मैंने पत्र लिखकर उनकी सराहना की थी। मानवाधिकार आयोगों को अपने रवैये व कार्यपणाली में बुनियादी परिवर्तन करना होगा, तभी आम नागरिकों का कल्याण हो सकेगा। आयोग अपराधियों के हित की चिंता में शक्ति लगाने के बजाय शरीफ व निरीह नागरिकों के हित की चिंता में अपनी शक्ति लगाएं।

मानवाधिकार के नाम पर मजहबी जुनून का पोषण भी किया जाता है, जिससे देशद्रोह को पश्रय मिलता है। आतंकवादियों की हिमायत करते हुए कांग्रेस पार्टी के एक जाने-माने मुसलिम नेता ने हाल में साफ-साफ यह शर्मनाक बयान दिया था कि आतंकवादियों का भी मानवाधिकार होता है। उन्होंने कभी उन लोगों के मानवाधिकार के बारे में चिंता नहीं व्यक्त की, जिनकी हत्यों आतंकवादियों द्वारा कर दी जाती हैं। मानवाधिकार के नाम पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की दुहाई दी जाती है, लेकिन अभिव्यक्ति की उस स्वतंत्रता के नाम पर वस्तुतः देशद्रोही हरकतों को संरक्षण दिया जाता है। इसका वीभत्स रूप कश्मीर में विद्यमान है। वहां देशद्रोही राजनीतिक तत्व व पत्रकार आतंकवादियों एवं पत्थरबाजों के मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर जहर उगलते हैं तथा किसी पत्थरबाज या आतंकी गतिविधि में शामिल अन्य किसी व्यक्ति को चोट लग जाए अथवा वह मारा जाए तो तूफान खड़ा कर दिया जाता है। लेकिन सेना, अर्द्धसैनिक बल या पुलिस के जवानों को जब आतंकवादियों द्वारा हताहत किया जाता है तो उनके मानवाधिकार के पक्ष में कोई नहीं बोलता। क्या देश की रक्षा के लिए अपने सुख निछावर कर देने वाले जवानों एवं कष्ट झेल रहे उनके परिवारों का मानवाधिकार नहीं होता है? न्यायालयों में तीस-तीस साल तक मामले लटके रहते हैं तथा लोगों को न्याय नहीं मिल पाता है। क्या यह मानवाधिकार का घृणित उल्लंघन नहीं है?

अतिक्रमणों एवं अवैध निर्माणों के कारण छोटे-बड़े, सभी शहरों में रास्ते बेहद संकरे होते जा रहे हैं, जिससे यातायात अवरुद्ध रहता है। तमाम सड़कों पर दिनभर जाम लगना आम बात हो गई है तथा जाम में फंसकर लोगों की ट्रेनें तक छूट जाती हैं। जाम में एम्बुलेंसों के फंसने से मरीजों की मौत हो जाती है। गत दिवस बलरामपुर अस्पताल के मुख्य द्वार पर एक एम्बुलेंस जाम में फंस गई और जब किसी तरह उसे जाम से निकालकर आकस्मिक(इमरजेंसी) वार्ड तक लाया गया, तब तक मरीज की सांसें थम चुकी थीं। उस अस्पताल के पवेशद्वार के पास नित्यपति जाम लगता है, जिससे मरीजों को बहुत परेशानी होती है। पुलिसकर्मी जाम की ओर ध्यान देने के बजाय इधर-उधर बै"कर आराम फरमाते रहते हैं। ऐसी घटनाओं पर मानवाधिकार आयोग में कभी जुम्बिश होती नहीं दिखाई देती। गरमी के दिनों में घंटों जाम में फंसे लोग बीमार पड़ जाते हैं। बच्चों एवं महिलाओं की बेहद दुर्गति होती है। जाम में फंसे हुए लोगों को यह भी जानकारी नहीं हो पाती है कि जाम लगा क्यों है और उससे कब निजात मिलेगी? क्या जनता को नित्यपति की इन नारकीय स्थितियों से मुक्ति दिलाना मानवाधिकार आयोगों की जिम्मेदारी नहीं है? वह जिलाधिकारी, वरिष्" पुलिस अधीक्षक एवं सम्बंधित अन्य वरिष्" अधिकारियों को क"ाsर दंड क्यों नहीं देता है? यदि मानवाधिकार आयोग इस दिशा में कड़े कदम उ"ाए तो शहरों को जाम, अतिक्रमण, अवैध निर्माणों आदि से मुक्ति मिल सकती है।

थानों में जनता की रिपोर्टें दर्ज नहीं की जाती हैं तथा शरीफ लोगों को अपमानित किया जाता है। पुलिस की घूसखोरी की पवृत्ति से दबंग एवं अपराधियों की मौज रहती है, लेकिन आम जनता घूस की चक्की में पिस जाती है। आम जनता की कहीं कोई सुनवाई भी नहीं होती है। पायः ऐसे उदाहरण सामने आते हैं कि पुलिस दबंगों का साथ देकर उलटा पीड़ित व्यक्ति को ही जेल भेज देती है। इस दिशा में मानवाधिकार आयोग क्यों नहीं सक्रिय कदम उ"ाते हैं? वर्तमान समय में हमारे मानवाधिकार आयोगों का रूप मात्र `शोपीस' अथवा `दानवाधिकार आयोग' का बना हुआ है।

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