जो तटस्थ हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध
इन्दर सिंह नामधारी
भारत की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखकर मुझे राष्ट्रकवि दिनकर की उपरोक्त शीर्षक वाली पंक्ति इसलिए याद हो आई है क्योंकि आज भी देश में ऐसे अनेक लोग हैं जो यह महसूस करते हैं कि राजनीति का स्तर गिर रहा है लेकिन वे बोलना पसंद नहीं करते। ऐसे लोगों का मौन रहना सत्ता के प्रति मोह या अपने आपको तटस्थ सिद्ध करना हो सकता है लेकिन वे भूल जाते हैं कि देश के भविष्य के प्रति भी उनका कुछ दायित्व बनता है। बात चाहे द्वापर युग की ही क्यों न हो लेकिन आज भी संवेदनशील लोग यह कहना नहीं भूलते कि भरे दरबार में जब दुर्योधन एवं उनके सहयोगीगण अपनी ही कुलवधु द्रौपदी का चीर हरण कर रहे थे तो कम से कम भीष्म पितामह एवं द्रौणाचार्य जैसे व्यक्तियों को तो इस कुकृत्य का विरोध करना ही चाहिए था। जब द्वापर युग के मौन की आलोचना आज के युग में भी लोग कर रहे हैं तो आज भी देश में जो कुछ हो रहा है उस तरफ मुंह फेर के चुप रहना आने वाली पीढ़ियों के लिए नागवार गुजरेगा। यही कारण है कि दिनकर जी ने लिखा था कि,
समर शेष है नहीं पाप का
भागी केवल व्याध।
जो तटस्थ हैं समय लिखेगा
उनका भी अपराध।।
देश में हो रहे संसदीय चुनावों के दौरान भी हमारे लोकतांत्रिक देश में कुछ ऐसी घटनाएं घट रही हैं जिन पर संवेदनशील एवं देश भक्त लोगों को अपना मुंह अवश्य खोलना चाहिए। मैं उन 66 अवकाश प्राप्त नौकरशाहों के उस पत्र की सराहना करता हूं जिसमें उन लोगों ने भारत के चुनाव आयोग पर मजबूरी का आरोप लगाते हुए देश के राष्ट्रपति को एक पत्र भेजकर विरोध व्यक्त किया है क्योंकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा भारत की सेना को मोदी की सेना की उपाधि दी गई थी। उन 66 नौकरशाहों के पत्र के कारण ही चुनाव आयोग को योगी आदित्यनाथ को एक पत्र भेजकर उन्हें सावधान करना पड़ा है कि वे लोकतांत्रिक परंपराओं का भविष्य में उल्लंघन न करें। वास्तव में चुनाव आयोग की उपरोक्त नरम भाषा भी इशारा करती है कि उनका मौन रहना आखिर किस ओर ध्यान आकृष्ट करता है? इतना ही नहीं वर्तमान चुनाव के दौरान एक से एक ऐसी घटनाएं घट रही हैं जो चुनावी प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर देती हैं। नौकरशाहों की ही तर्ज पर लगभग 150 अवकाश प्राप्त सैनिक पदाधिकारियों ने भी राष्ट्रपति को एक पत्र भेजते हुए उनसे आग्रह किया है कि वे सेना के राजनीतिकरण को रोकने का कष्ट करें। उन 150 सैनिक पदाधिकारियों में से भले ही दो-चार अधिकारियों ने उस पत्र में अपने हस्ताक्षर न किए जाने का खुलासा किया हो और राष्ट्रपति भवन ने भी कोई ऐसी चिट्ठी पाने से इंकार किया हो तथापि कई सैनिक पदाधिकारियों ने पत्रकारों से साफ-साफ कहा है कि आज के दिन देश में सेना का राजीतिकरण किया जा रहा है जो भारत के लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं।
सबसे खतरनाक स्थिति इसलिए पैदा हो गई है क्योंकि देश में पाए जा रहे आतंकवाद को भी धार्मिक लबादा पहनाने की कोशिश की जा रही है। देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर आसीन यानि प्रधानमंत्री के स्तर से आतंकवाद को धार्मिक रंग देना कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। देश के संवेदनशील लोगों को उस समय गहरा झटका लगा जब प्रधानमंत्री जी ने समझौता एक्सप्रेस ब्लास्ट मामले में विशेष जज द्वारा असीमानंद एवं उनके साथियों को रिहा किए जाने के बाद सार्वजनिक सभाओं में कहना शुरू कर दिया है कि कांग्रेस ने हिन्दुओं को जानबूझकर आतंकी सिद्ध करने के लिए असीमानंद जैसे लोगों को झू"s मुकदमों में फंसा दिया था। प्रधानमंत्री जी ने शायद धार्मिक उन्माद पैदा करने के लिए ही यह वक्तव्य दिया होगा कि हिन्दू तो कभी आतंकवादी हो ही नहीं सकता। वास्तव में प्रधानमंत्री जी का यह सार्वजनिक बयान धार्मिक ध्रुवीकरण का एक भोड़ा प्रयास हो सकता है। यह ज्ञातब्य है कि वर्ष 2007 में समझौता एक्सप्रेस में हरियाणा के पानीपत स्टेशन के पास एक धमाके में 68 लोग मारे गए थे तथा अनेक लोग घायल भी हुए थे जिनमें भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नागरिक शामिल थे। समझौता एक्सप्रेस के धमाके के बाद देश में ऐसा वातावरण बना कि धमाके के शक की सुई हिन्दू एवं मुसलमान दोनों की ओर जाने लगी। यह बात सही है कि उस समय यूपीए का शासन था तथा गहन जांच के बाद सरकार ने उपरोक्त घटना की जांच का काम देश की अग्रणी नवग"ित जांच एजेंसी एनआईए (नेशनल इनवेस्टिगेटिंग एजेंसी) को दे दिया। लोग भूले नहीं होंगे जब एनआईए ने स्वामी असीमानंद एवं सेना के एक पदाधिकारी को भी इस घटना के लिए गिरफ्तार कर लिया। मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री के रूप में कार्यरत एवं तत्कालीन गृह सचिव श्री राज कुमार सिंह ने असीमानंद की गिरफ्तारी को भगवा आतंकवाद की संज्ञा दी थी तथा तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने भी श्री सिंह से मिलते-जुलते बयान दिए थे। इस दुर्दांत घटना को घटे बारह वर्ष हो चुके हैं लेकिन उस कार्रवाई को हिन्दू विरोधी कार्रवाई का नाम देकर प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी आखिर देश की जनता को कौन-सा संदेश देना चाहते हैं?
वास्तव में भारत एवं पाकिस्तान की जनता यह जानना चाहती है कि यदि असीमानंद एवं उनके साथी उपरोक्त धमाके के लिए जिम्मेवार नहीं थे तो निरीह 68 लोगों की हत्या को आखिर किन लोगों ने अंजाम दिया? भारत के संस्कृत वांगमय में लिखा गया है कि,
महाजनाः येन गता सा पंथाः।।
अर्थात जिस ओर बड़े लोग जाते हैं वही रास्ता कहा जाने लगता है। इस आलोक में यदि प्रधानमंत्री जी स्वयं ही यह संदेश देना चाहेंगे कि आतंकवाद किसी एक खास धर्म के लोगों द्वारा ही नियोजित किया जाता है तो क्या यह न्यायपूर्ण होगा? यह सर्वविदित है कि देश में घटी विभिन्न घटनाओं में कई धर्मों को मानने वाले लोग पकड़े गए हैं तथा आज भी पकड़े जा रहे हैं। संस्कृत की उपरोक्त पंक्ति यह इंगित करती है कि कोई भी बयान देने के पहले बड़े पदों पर बै"s लोगों को बहुत बारीकी से सोचकर मुंह खोलना चाहिए। सत्ता को हथियाने के खेल में आज देश के विभिन्न राजनीतिक दल स्तर से नीचे की बातें कर रहे हैं। एक तरफ जहां सत्ता में बै"ाr भाजपा के बड़े नेता एवं प्रवक्ता कई उल-जुलूल बयान दे रहे हैं वहीं कांग्रेस के अध्यक्ष श्री राहुल गांधी भी इसमें पीछे नहीं हैं। राफेल लड़ाकू विमान की खरीदगी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय सरकार की दलील को खारिज करने के बाद श्री राहुल गांधी इतने जुनून में आ गए कि उन्होंने अमे"ाr में अपना नामांकन करने के बाद सार्वजनिक तौर पर कह डाला कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया है कि 'चौकीदार चोर हैं'। राहुल जी के इस बयान पर भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिक दायर करके राहुल गांधी पर कोर्ट की अवमानना का केस दर्ज कर दिया है। मेरे इस लेख का लब्बोलुआब यही है कि सत्ता पर कब्जा करना एवं रखना आज के राजनीतिक नेताओं का लक्ष्य बन गया है जबकि निष्पक्ष व्यक्ति को सही बात बोलने की हिम्मत रखनी चाहिए। चुनावी ऊंट किस करवट बै"sगा यह कहना तो मुश्किल है लेकिन यह तय है कि देश में हो रहे संसदीय चुनाव भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस जरूर कर देंगे।
(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)