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जिंदगी से कितना आसक्त रहे, कितना विरक्त?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:13 April 2019 3:34 PM GMT
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हरीश बड़थ्वाल

'ब्रह्म सत्यम् जगन्मिथ्या' यानि एक आदि शक्ति ही सत्य है, समूची दुनिया मिथ्या है, एक जंजाल है। ऐसा इसलिए कि जो कुछ भी दुनिया में उस परम शक्ति से इतर है वह क्षणभंगुर है, नश्वर है। सत्य तो अटल है, स्थाई है, अमर है। 'सत्य' वृद्धि और क्षरण के परिक्षेत्र में नहीं है। उसी प्रकार मृत्यु भी सत्य है-जीवन नहीं। हमारा जीवन मृत्यु की अमानत है, उसी भांति जैसे शरीर शमशान की अमानत है, बेटा बहू की और यह धरती, भावी पीढ़ियों की। अमानत में चित्त लगाना और उस पर अपना अधिकार समझना-जमाना नादानी है, बेइमानी है। अमानत से आसक्ति "ाrक नहीं। इनकी संवार करना आपका कर्तव्य अवश्य है, इस कार्य में चूक उचित नहीं। दूसरा, मनुष्य की वृत्ति एकाकी है। व्यक्ति संसार में अकेला आता है, अकेला ही जाता है। उसका मन, शरीर और प्रकृति, उसकी अंदुरुनी बायोकैमिकल संरचना सहित, सबसे जुदा है। उसकी उंगलियों और आंखों की छाप किसी अन्य व्यक्ति से मैच नहीं करतीं। इसके मायने हैं, उससे प्रभु की कुछ खास अपेक्षाएं हैं, उन अपेक्षाओं की पूर्ति जिस मनोयोग से करेंगे उतना ही प्रभु की कृपा हम पर बनी रहेगी। वास्तव में आसक्ति के योग्य कोई अस्मिता है तो केवल प्रभु। सांसारिक घटनाओं और व्यक्तियों से पूर्णतया अलग-थलग, अप्रभावित रहें, उनसे सरोकार महसूस न करें, यह संभव नहीं। प्रश्न उस जुड़ाव के स्वरूप और मात्रा का है। विचारणीय है कि आपके मनोभावों में प्रधान क्या है।

रासायनिक प्रक्रियाओं (रिएक्शन) में उत्प्रेरक (केटलिस्ट) की आपने सुनी होगी। केटलिस्ट की विशेशता है कि इसकी गैरमौजूदगी में दो अन्य तत्वों के बीच रासायनिक रिएक्शन सम्पन्न नहीं होगा हालांकि रिएक्शन के केटलिस्ट की अंदुरुनी संरचना में कोई विकार नहीं आएगा। केटलिस्टरूपी साधक को निर्लिप्त भाव से दायित्व निभाने होंगे, तभी प्रभु के विधान की अनुपालना होगी। सहप्राणियों से दुराव उचित नहीं, किंतु आसक्ति किससे, और कितनी हो, यह समझने के लिए पर्याप्त जिज्ञासा और साधना चाहिए जो साधारण बुद्धि के वश की नहीं। प्रचंड निष्"ा से सराबोर साधक, संत, ज्ञानी ही सत्य का आभास करने में सक्षम होते हैं और उस सुख का आस्वादन करते हैं जो जनसाधारण को सुलभ नहीं होता। तो भी प्रभु ने मायावी जगत की रचना इसलिए की ताकि सामान्य बुद्धि के व्यक्ति धन-संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा, इनाम-खिताब सरीखी मूर्त, नश्वर वस्तुओं को ही सर्वस्व मानते हुए आपसी होड़ और प्रतिस्पर्धाओं में दैनंदिन उलझते-जूझते रहें, इन्हें पाने के लिए जीजान से उ"ापटक करते रहें। सोचिए, अधिसंख्य व्यक्तियो को सत्य का ज्ञान हो जाएगा तो वे 'यह मेरा', 'यह तेरा' भाव से ऊपर उ" जाएंगे, जीवन के प्रति आसक्ति भाव उनमें शून्य हो जाएगा, नाना कार्यकलापों के प्रति उनका उत्साह "ंडा पड़ जाएगा, उनकी अभिलाषाएं-आंकाक्षाएं खत्म हो जाएंगी। तब तथाकथित विकास कैसे होगा? यहां तक कि लोगों की संतानें नहीं होंगी और सृष्टि "प हो जाएगी!

महिलाई अबूझ महाशक्ति

जीवनपर्यंत मनुष्य को फुसलाए, भ्रमित रखने के लिए जो कुछ प्रभु ने प्रस्तुत किया उनमें महिला का स्थान सर्वोपरि है। लड़कियों या कमतर आयु की युवतियों को देखते ही केवल सार्वजनिक परिवहन की बसों के वे ड्राइवर ही चौकड़ी नहीं भूल जाते जो बुजुर्गों-बच्चों की अनदेखी कर खाली बस फर्राटे से दौड़ाते रहते हैं, और खचाखच भरी बस को हसीन युवती के लिए रोक देते हैं बल्कि अनेक प्रतिभाशाली युवा महिलाई मोहपाश में पड़ कर अध्ययन या कैरियर चौपट कर डालते हैं। भरे परिवार वाले अधेड़ या उम्रदार पतियों द्वारा प्रत्येक दृष्टि से बेमेल किंतु हसीन महिलाई लोथड़े की छांव तले तमाम आन-बान की सुधबुध खो बै" पत्नी और परिवार को दरकिनार कर डालने के मामले आपने देखे न हों तो विश्वस्त सूत्रों की जबानी सुने जरूर होंगे।

सम्राट विक्रमादित्य के अग्रज आदिकवि भर्तृहरि ने श्रृंगारशतक और वैराग्यशतक नामक सुविदित ग्रंथों में महिलाओं की अदाओं के जादू, मंद मुस्कान, आकर्षण में बांधते मी"s बोल, नजाकत से शरमाने, दिल पर प्रहार करती नजरों, घायल करते हावभावों जैसी अथाह मायावी शक्तियों का विषद वर्णन किया है। उनका निखरा लावण्य कैसे-कैसे संयत, शांत व्यक्तियों के दिल डांवाडोल कर देता है। भर्तृहरि ने लिखा, 'महिलाओं की चूड़ियों की खनक, पायल की छमछम और मासूम अदों राजहंसिनियों की चाल को मात देती हैं ... जब तक हिरणतुल्य महिलाओं के आंचल की हवा किसी विद्वान को नहीं लगती तभी तक उसका विवेक कार्य करता है।' कामदेव के अचूक शस्त्र के बाबत उनका कहना है-कई दिनों से भूखा, प्यासा निढाल कुत्ता भी भोजन या पानी के बदले काम आवेश में कुतिया की ओर लपक पड़ता है। महिलाई फितरत को रहस्यमय मानते हुए ऑस्कर वाइल्ड ने कहा कि महिलों समझने के लिए नहीं, केवल प्यार पाने के लिए बनी हैं। मोहम्मद अली जिन्ना ने कड़ी पारस्परिक प्रतिस्पर्धा वाली कलम और तरवार की दो शक्तियों से बढ़कर एक तीसरी शक्ति महिलाओं की ताकत बताया है।

दो व्यक्तियों के बीच बराबरी का लौकिक प्रेम नहीं हो सकने की विडंबना पर एक कथा है। एक ब्राह्मण की तपस्या से प्रसन्न हो कर प्रभु ने ब्राह्मण को वरदानस्वरूप अमर फल दिया, इसके सेवन से सदा युवा और अमर रहा जा सकता था। यह सोच कि वह तो भिक्षा से गुजर कर लेता है, ब्राह्मण ने राजा भर्तृहरि को अमर फल इस मंशा से भेंट किया कि वह सदा प्रजा की सेवा कर सकेगा। फल आगे बढ़ता गया; राजा ने वह फल अपनी पत्नी को, पत्नी ने अपने चहेते नगर के कोतवाल को और कोतवाल ने अपनी प्रेमिका राजनर्तिका को दे दिया। नर्तिका ने सोचा, इस नारकीय जिंदगी को ज्यादा क्यों झेलना, इसके सही पात्र तो हमारे राजा हैं। राजा के पास दोबारा वही अमर फल लौटा। पूछताछ के बाद उन्हें पूरा माजरा समझ आया तो उन्हें वैराग्य हो गया। समस्त राजपाट अपने भाई विक्रमादित्य को सौंप कर वे जंगल में चले गए जहां राजा भर्तृहरि ने 'वैराग्यशतक' की रचना की।

साधना मार्ग की अड़चनें

मनुष्य को सांसारिकता में लिप्त करती अन्य प्रमुख बाधों हैं पद-प्रतिष्ठा की ललक या किसी भी जोड़तोड़ से धन, संपत्ति बटोरते रहने की, कभी संतुष्ट नहीं होने वाली चाहत। मृगतृश्णा व्यक्ति को सुख-शांति से नहीं जीने देतीं। उम्रदराजों की अधिकांश समस्याएं बेटों-बहुओं, नाती-पोतों के मोहावेश से पिंड नहीं छुड़ाने से जुड़ी हैं। समझना होगा कि उन्होंने भावी पीढ़ियों की खैरख्वाही का "sका नहीं ले रखा है। जैन मुनि तरुण सागर की राय में सा" वर्ष पर पहुंचने पर व्यक्ति को धन-संपत्ति जुटाने और सभी प्रकार के लेनदेन से पीछे हटकर प्रभु में चित्त लगाना चाहिए। घर-परिवार, समाज और दुनियादारी के दैनंदिन सरोकारों-विवादों से विरक्त भाव की स्थिति को वैराग्य भी कह सकते हैं।

जहां आसक्त है वहीं अपेक्षाएं होंगी और कालांतर में दुख भी, चूंकि वे पूरी नहीं होंगी। यह नहीं कि कर्म का प्रतिफल नहीं मिलेगा किंतु अपेक्षित व्यक्ति या हालातों से नहीं। जैसा ऊपर उल्लेख है, आप जिसे चाहते हैं वह तो किसी अन्य को चाहता है। इसके विपरीत, विरक्त भाव से दायित्व निभाए जाने और प्रभु से जुड़े रहकर आप स्वयं के लिए परमानंद के भागी बनेंगे।

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