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चुनाव आयोग ः `धोबी से न जीते तो...'

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:16 April 2019 6:52 PM GMT
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पुरानी कहावत है कि `धोबी से न जीते तो गदहा के कान उमे"w' अर्थात शक्तिवान व्यक्ति से न जीत सकने पर हार का गुस्सा कमजोर व्यक्ति पर निकाला जाना। कुछ ऐसी ही यह कहावत लोगों ने गढ़ ली थीö`मजबूरी का नाम महात्मा गांधी'। इसी श्रं=खला में कभी-कभी इस कहावत को भी जोड दिया जाता हैö`अंधेरनगरी, चौपट राजा'।

लखनऊ में मेरी कॉलोनी में सफाई-व्यवस्था "ाrक न होने से मच्छरों की भरमार है, जिससे बीमारी फैलने का खतरा है। कॉलोनी में दो लोगों को चेचक भी हो गई। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार ने तो दावा किया था कि भारत में चेचक का पूर्णरूपेण उन्मूलन कर दिया गया है। मैं अपनी कॉलोनी की कल्याण समिति का अध्यक्ष हूं, इसलिए क्षेत्रवासियों ने मुझसे कहा कि लखनऊ नगर निगम से कहकर मैं कॉलोनी में फॉगिंग करा दूं। मैंने जब लखनऊ नगर निगम को फोन किया तो उत्तर मिला कि चुनाव आयोग की आचार संहिता लगी हुई है, इसलिए इस समय फॉगिंग नहीं की जाएगी। मैंने इस उत्तर पर फटकार लगाते हुए कहा कि आचार संहिता केवल चुनावी राजनीतिक कार्यकलापों पर लागू है। लेकिन लखनऊ नगर निगम ने फॉगिंग नहीं कराई। कई वर्षों के मेरे पयास के बाद नगर निगम ने गत मास मेरी कॉलोनी में पुनरुद्धार कार्य शुरू के। सबसे पहले नाली सही करने का काम आरंभ हुआ, ताकि गंदे पानी की सुचारू रूप से निकासी हुआ करे। होली के पहले काम शुरू किया गया था, जिसके बाद बताया गया कि होली में मजदूर घर चले गए हैं, इसलिए दो-चार दिन में मजदूरों के लौटने पर काम फिर शुरू हो जाएगा। जब कई दिन बीत गए तो पूछताछ करने पर उत्तर मिला कि आचार संहिता लागू हो गई है, इसलिए काम अभी नहीं होगा।

जब मैंने कड़ी आपत्ति करते हुए कहा कि लखनऊ नगर निगम आचार संहिता की आड़ में जनहित के जरूरी काम रोककर बहुत गलत कर रहा है तो एक दिन नगर निगम के एक अधिकारी मेरे पास आए और उन्होंने एक पोस्टर की तस्वीर दिखाकर कहा कि चुनाव आयोग ने वह पोस्टर तत्काल हटाने का आदेश दिया है, इसलिए नगर निगम के सभी लोग शहर के हर गली-मुहल्ले में उस पोस्टर को तलाश रहे हैं, ताकि उसे हटाया जा सके। मजे की बात यह है कि उस पोस्टर में किसी छात्र नेता ने गत जनवरी में गणतंत्र दिवस पर सिर्प शुभकामना संदेश दिया था। वह पुराना पोस्टर कहीं पर लगा रह गया होगा, जिसका वर्तमान लोकसभा चुनाव से कोई वास्ता नहीं है। जब दिमाग में फितूर घुस जाए तो ऐसे ही फालतू कामों में शक्ति नष्ट की जाती है।

निर्वाचन आयोग के कार्यों से ऐसा लगता है, जैसे उसने विवेक से काम लेना छोड़ दिया है। जहां पर उसे ध्यान देकर तत्काल कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए, वहां वह चुप या शिथिल रहता है। किन्तु जहां पर ध्यान देने का कोई तुक नहीं, उधर अपनी एवं पशासन की शक्ति व समय नष्ट किया जाता है। रवीन्द्रालय, लखनऊ में `घोंघाबसंत सम्मेलन' शीर्षक हास्य आयोजन होना था, जो विगत 58 वर्षों से पतिवर्ष आयोजित हो रहा है। पूर्व की भांति राज्यपाल श्री राम नाईक ने मुख्य अतिथि के रूप में पधारने की स्वीकृति दे रखी थी, जब आचार संहिता लागू हो गई तो `घोंघाबसंत सम्मेलन' आयोजन के लिए निर्वाचन आयोग की स्वीकृति लेनी पड़ी। तमाम सांस्कृतिक साहित्यिक आयोजनों को इसी पकार आचार संहिता का `शिकार' होना पड गया। विभिन्न जनपदों में परंपरागत मेलों, पदर्शनियों व महोत्सवों के आयोजन हुआ करते हैं। पता लगा है कि आचार संहिता के दौरान वे आयोजन या तो नहीं होंगे और होंगे भी तो बहुत बेरंग रूप में। अब समाचार पढ़ने को मिला है कि मतदान के दिन शादियों की लगन पर बारातों आदि के लिए भी अनुमति लेनी पड़ेगी। निर्वाचन आयोग का यह रूप देखकर न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू की याद आती है। वह जब पेस आयोग के अध्यक्ष थे तो पत्रकारों के हितों के बजाय दुनियाभर के अन्य तमाम विषयों पर अपनी टिप्पणियां देने में समय नष्ट किया करते थे।

चुनाव आयोग का इस पकार का कृत्य पधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के समय शुरू हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने आजादी के बाद देश में पहली बार सड़कें चौड़ी करने एवं पूरे देश में सड़कों का जाल बिछाने का कार्य शुरू किया था। देशभर में बड़ी संख्या में चौड़े-चौड़े राजमार्गों का निर्माण किया गया। उस अवधि में लोकसभा का चुनाव हुआ था तो सोनिया गांधी की मांग पर उन सभी सड़कों पर अटल बिहारी वाजपेयी का उल्लिखित नाम ढक दिया गया था अथवा मिटा दिया गया था। बाद में ऐसा ही फितूर उस समय देखने को मिला था, जब लखनऊ में मायावती सरकार द्वारा बड़ी संख्या में निर्मित की गई हाथियों की मूर्तियों को चुनाव के समय कपड़े से ढक दिया गया था। यदि ऐसा ही हाल रहा तो चुनाव आयोग यह निर्देश जारी कर सकता है कि चूंकि कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिन्ह `हाथ' है, इसलिए जब तक आचार संहिता लागू है, तब तक लोग अपने हाथों पर दस्ताने पहनकर निकलें। इसी पकार चूंकि कमल भारतीय जनता पार्टी का चुनावचिन्ह है, इसलिए जब तक आचार संहिता लागू है, तब तक तालाबों से कमल के फूल हटा दिए जों तथा देवी-देवताओं के चित्रों में अभिन्न रूप में विद्यमान कमल पुष्पों को ढक दिया जाए या उन पर कालिख पोत दी जाए।

निर्वाचन आयोग की चुस्ती एवं फुर्ती का एक ओर यह आलम है तो दूसरी ओर देशद्रोही तत्वों को जैसे पूरी छूट मिली हुई है। नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी व कांग्रेस के फारुक अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, सैफुद्दीन सोज आदि बड़े नेता एवं अन्य तमाम फर्जी सेकुलरिये अनुच्छेद 370 हटाए जाने पर देश के टूटने व अलगाववाद की खुली धमकियां दे रहे हैं, लेकिन निर्वाचन आयोग `मूंदउ आंख कतउ कोउ नाहीं' की भूमिका में दिखाई दे रहा है। देश में ताल "ाsंककर मुस्लिम कार्ड खेला जा रहा है तथा मायावती ने तो सार्वजनिक सभा में मुस्लिम सांप्रदायिकता का पदर्शन किया। होना यह चाहिए कि निर्वाचन आयोग देश-विरोधी हरकतों की रत्तीभर नहीं छूट दे तथा ऐसे लोगों के खिलाफ अत्यंत क"ाsर कदम उ"ाए। यह भी आश्चर्यजनक है कि निर्वाचन आयोग ने पिछले दिनों भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुई छापामारी को लेकर यह कहा है कि छापे डालने से पहले उसे अवगत कराया जाए। कांग्रेस के जिम्मेदार लोगों के यहां छापे में 281 करोड़ की भारी-भरकम धनराशि, काफी सोना, शराब की सैकड़ों बोतलों आदि की जो बरामदगी हुई है, जाहिर है कि उन सबका चुनाव में इस्तेमाल होना था। अतः निर्वाचन आयोग को तो चुनावों में अवैध धन के इस्तेमाल के खिलाफ छापेमारी का स्वागत कर उसे अधिक से अधिक पोत्साहन एवं संरक्षण देना चाहिए। जहां तक निर्वाचन आयोग को छापों की पूर्व सूचना का पश्न है, यदि ऐसा किया गया तो क्या गारंटी है कि छापों की वह गुप्त सूचना लीक नहीं होगी?

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