राजनीतिक क्षितिज से ओझल वामपंथ
जब शक्ति को वैधानिकता मिलती है तो वह सत्ता में बदल जाती है। यही एक बड़ी वजह रही है कि राजनीतिक दल शक्ति पदर्शन के मामले में न पीछे हटते हैं और न ही किसी अन्य के डटे रहने को बर्दाश्त करते हैं। दरअसल राजनीति के अपने स्कूल होते हैं जिसका अभिपाय विचारधारा से है और इन्हीं के चलते राजनीतिक संग"नों का अस्तित्व कायम रहता है। भारत में कांग्रेस, भाजपा सहित आधा दर्जन राष्ट्रीय दल हैं जबकि अनेकों राज्य स्तरीय और सैकड़ों की मात्रा में गैर मान्यता पाप्त दल उपलब्ध हैं जो किसी न किसी विचारधारा के पक्षधर होने की बात करते हैं। भारतीय राजनीति में वैचारिक संक्रमण भी खूब आते रहे हैं। राजनीतिक पार्टियों के इतिहास को देखा जाए तो कई दल स्वतंत्रता से पूर्व के हैं तो कई बाद के। इन्हीं में वामपंथ भी शामिल हैं जो स्वतंत्रता आंदोलन के उन दिनों में कमोबेश कांग्रेस के समकालीन थी। इतिहास में इस बात का भी लक्षण उपलब्ध है कि वामपंथ और कांग्रेस उस काल में भी एक-दूसरे के विरोध में थे। यह समय का फेर ही है कि वामपंथ मत और विचार की अस्वीकार्यता के चलते आज भारत की राजनीति में कहीं ओझल सा हो गया है। पश्चिम बंगाल से समाप्त हो चुके वामपंथ अब त्रिपुरा भी खो चुके हैं। पूरे भारतीय मानचित्र में केवल केरल में इनकी उपस्थिति देखी जा सकती है। रोचक यह भी है कि वामपंथ को सियासी क्षितिज से ओझल करने में पहले कांग्रेस और अब भाजपा को देखा जा सकता है। इतना ही नहीं मौजूदा भाजपा के पवाहशील राजनीति में तो कांग्रेस भी तिनका-तिनका हो गई थी पर दिसंभर 2018 के नतीजे में मध्यपदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में वापसी करके कांग्रेस ने अपना कुनबा ढहने से बचा लिया और मौजूदा लोकसभा चुनाव में कड़ी टक्कर देने की फिराक में है।
फिलहाल 25 बरस पुराने त्रिपुरा में वामपंथ सरकार को भाजपा ने जिस तर्ज पर ध्वस्त किया उससे भी साफ है कि भाजपा केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं बल्कि पूर्वोत्तर की भी पार्टी बन चुकी है। हालांकि असम पहले ही भाजपा जीत चुकी है। नागालैंड में बड़ी जीत और मेघालय में मात्र दो सीट जीतने के बावजूद ग"बंधन की सरकार का निरूपण करने में मिली सफलता सियासी जोड़-तोड़ में भी इसे अव्वल बनाए हुए है जबकि यहां 21 सीटों के साथ कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। वामपंथ का देश की राजनीतिक में मिटने की ओर होना वाकई में नए तरीके के विमर्श को जन्म देने के बराबर है। वामपंथ की भारतीय स्थिति पर सोच, विचार और जन उन्मुख अवधारणा क्या है? इसे खोजना वाकई में मशक्कत वाला काज है। इनकी अपनी एक वैश्विक स्थिति रही है परन्तु आम जनमानस में इनकी स्वीकार्यता लगभग खत्म हो चुकी है। भारत के परिपेक्ष्य में वामपंथ एक विरोध की विचारधारा मानी जाती थी और इसकी लोकपियता में इन दिनों कहीं अधिक गिरावट देखी जा सकती है। एक दशक पहले वर्ष 2004 के 14वीं लोकसभा के चुनाव में दोनों वामदल में सीपीआई (एम) और सीपीआई की लोकसभा में सीटों की संख्या क्रमशः 43 और 10 थी जबकि कांग्रेस 145 और भाजपा 138 स्थान पर थी। ऐसे में वामपंथ ने कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया। इतिहास में यह पहली घटना है कि कांग्रेस को कोसने वाले वामदल ने कांग्रेस को ही समर्थन दे दिया। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उन दिनों में वामपंथियों ने गांधी को खलनायक और जिन्ना को नायक की उपाधि दी थी। यह कथन वामपंथ के कांग्रेसी तल्खी का भी बेहतर नमूना है। 1962 के चीनी आक्रमण को लेकर भी वामदल एकमत नहीं था। ये पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के विरोधी और कम्युनिस्ट विचारधारा से पेरित दल हैं जिसकी जड़ सरहद पार है। ऐसे में कांग्रेस को इनके द्वारा दिया जाने वाला समर्थन एक बेमेल समझौता था।
सवाल यह है कि क्या वामदल भारतीय मानसिकता को समझने-बूझने में विफल हुआ है? पिछले तीन चुनावों से इनकी स्थिति को परखा जाए तो 14वीं लोकसभा में जहां 53 सीटों के साथ इनकी हैसियत सरकार के समर्थन के लायक थी वहीं 15वीं लोकसभा में केवल 20 पर सिमट गई जबकि वर्ष 2014 के 16वीं लोकसभा चुनाव में तो मात्र 10 का ही आंकड़ा रहा। यह संख्या सीपीआई (एम) और सीपीआई को जोड़कर बताई जा रही है। 17वीं लोकसभा में भी इनकी संख्या संभव है कि गिरावट में ही रहेगी। साल 2016 के पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव से दशकों सत्ता पर रहने वाला वामपंथ यहां से भी बुरी तरह उखड़ गई। ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस के 211 सीट के मुकाबले सीपीआई मात्र एक और सीपीआई (एम) 26 सीटों पर ही सिमट कर रह गई। यहां त्रिपुरा से भी खराब स्थिति देखी जा सकती है। त्रिपुरा में माणिक सरकार 60 सीटों के मुकाबले 18 पर सिमट गई जबकि भाजपा दो-तिहाई बहुमत के साथ इतिहास ही दर्ज कर दिया और कांगेस न तो त्रिपुरा में और न ही नागालैंड में खाता खोल पाई। परिपेक्ष्य और दृष्टिकोण को देखते हुए क्या यह माना जा सकता है कि वामपंथ देश से पूरी तरह खत्म होने की ओर है। जिन क्षेत्रों में इनकी स्वीकार्यता थी वहां इनकी बड़ी हार कुछ ऐसे ही इशारे किया है। वामदल को बारी-बारी से सभी ने खत्म किया है जिसमें तृणमूल कांग्रेस, भाजपा और काफी हद तक कांग्रेस भी शामिल रही है। आगामी चुनाव में राहुल गांधी अपनी परंपरागत सीट अमे"ाr के साथ केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ेंगे। यहां साफ है कि केरल के 20 लोकसभा सीट पर उनका निशाना है। जहां 2016 से वाम की सरकार चल रही है। जाहिर है वामपंथ के गढ़ में राहुल लोकसभा के माध्यम से बड़ी सेंध लगाना चाहते हैं। इसे देखते हुए वामपंथी अब भाजपा को ही नहीं कांग्रेस को भी हारता हुआ देखना चाहते हैं। हालांकि कांग्रेस के निशाने पर दक्षिण का केवल केरल ही नहीं बल्कि तमिलनाडु की 39 और कर्नाटक की 28 सीट भी है। पहली वामपंथी सरकार 60 के दशक में केरल में ही आई थी और इस समय केरल तक ही सिमट कर रह गई है।
वामपंथी विचारधारा का इस अवस्था में पहुंचने के पीछे एक कारण इनके पारंपरिक तौर-तरीके से जनता का ऊबना भी है, दूसरा यह कि भाजपा नए क्लेवर और फ्लेवर की राजनीति करती रही। कहा जाए तो किसी जमाने में जिस राजनीति के लिए कांग्रेस जानी जाती थी आज उसका स्थान भाजपा ने ले लिया है। जनमानस को भी नई और सही राह चाहिए क्योंकि अब आस्थावादी दौर जा चुका है। एक ही विचारधारा की चाबुक से जागरूक जनमत को अपने पक्ष में नहीं किया जा सकता। शायद यही कारण है कि वामपंथ का ही नहीं कांग्रेस का तिलिस्म भी भरभरा गया। ऐसे में सवाल यह है कि क्या जनमानस का वामपंथ पर से भरोसा उ" गया है? क्या नई विचारधारा इनकी रूढ़िवादी सोच पर भारी पड़ रही है? वास्तव में देखा जाए तो विचारधारा की भूख किसे नहीं है इसके बावजूद वामपंथी अपने अस्तित्व के लिए इसमें संघर्ष करते हुए भी तो नहीं दिख रहे हैं। मीडिया के चुनावी बहस हो, चुनाव हो, सरकार की आलोचना या उस पर दबाव ही क्यों न हो वामपंथ के पोलित ब्यूरो का संदेश और संचार दोनों नदारद हैं। ऐसे में इनमें मनोवैज्ञानिक टूटन भी देखी जा सकती है। एक कमी वामपंथियों में यह भी रही है कि इन्होंने देश के अंतर्देशीय ताकत बढ़ाने के बजाय वर्ग भेद में अधिक समय व्यतीत किया। 1962 के चीन आक्रमण के चलते वैचारिक संघर्ष पनपे। परिणामस्वरूप दो वर्ष बाद इनके दो गुट बन गए जो बाकायदा आज भी कायम है। रोचक बात यह भी है कि इसके बावजूद भी इनके विचारों का भारत पर कोई खास पभाव नहीं रहा बल्कि सोवियत पभावित नेहरूवाद इन पर हमेशा भारी पड़ा। एक असलियत यह भी है कि वामदल क्लास की विसंगतियों से पैदा हुआ एक वैचारिक और राजनीतिक आंदोलन है जबकि भारतीय राजनीति में आज भी यह पश्चिमी अवधारणा मुखर नहीं हो पाई है। यहां विकास के साथ जाति, धर्म और क्षेत्रीय फैक्टर महत्वपूर्ण रहा है और वामपंथी इस मामले में भी विफल करार दिए जा सकते हैं। ऐसे में राजनीति से वाम का ओझल होना बाखूबी समझा जा सकता है।
(लेखक प्रयास आईएएस स्टडी सर्पिल, देहरादून के निदेशक हैं।)