जेट को है सरकार से तुरन्त मदद की दरकार
आदित्य नरेन्द्र
देश की दूसरी सबसे बड़ी एयरलाइन जेट एयरवेज का परिचालन ठप हो जाना कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके ठप हो जाने से एक ओर जहां इसके 22 हजार कर्मचारियों की रोजी-रोटी पर संकट आया है वहीं दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हवाई चप्पल वाले नागरिक को भी हवाई यात्रा करने का अवसर देने वाले सपने को धक्का लगा है। आम चुनावों के बीच इस एयरलाइन के ठप होने की खबर आने से हालात और भी विकराल हो गए हैं। ऐसे समय में सरकार की निर्णय प्रक्रिया पर असर पड़ना स्वाभाविक है। जेट के कर्मचारियों में अफरातफरी का माहौल है। उनकी कोशिश समय रहते दूसरी नौकरी ढूंढ लेने की है। खबर है कि स्पाइजेट ने जेट के 500 से भी ज्यादा कर्मचारियों को नौकरी पर रख लिया है। एयर इंडिया द्वारा भी अगले कुछ महीनों में एक हजार एयर होस्टेस की भर्ती की खबर है। इससे जेट की एयर होस्टेस को नौकरी का अवसर एयर इंडिया में मिल सकता है लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। जो खबरें मिल रही हैं उससे पता चल रहा है कि दूसरी एयरलाइनें मौके का फायदा उठाकर काफी कम यहां तक कि आधी सैलेरी में भी जेट के कर्मचारियों को भर्ती करने का प्रयास कर रही हैं। इससे उन्हें दो फायदे हो रहे हैं। पहला फायदा तो स्पष्ट तौर पर आर्थिक है जबकि दूसरे फायदे के रूप में उन्हें कर्मचारी मिल रहे हैं। जेट के कर्मचारियों के लिए यह एक बेहद खराब स्थिति है जब उन्हें उनका पूरा मेहनताना मिलना भी मुश्किल हो रहा है। सिर्फ 25 साल के छोटे से कालखंड में फर्श से अर्श तक पहुंचने वाली और फिर वापस फर्श पर आ जाने वाली जेट के लिए कोई और नहीं बल्कि इसके प्रमोटर नरेश गोयल के लिए गए दो बड़े फैसले जिम्मेदार माने जा रहे हैं। इनमें से पहला फैसला सहारा एयरलाइंस का अधिग्रहण था। यह फैसला लेने के बाद जेट के पास फंड की कमी आने लगी और वह अपनी योजनाओं को वैसा मूर्तरूप नहीं दे पाया जैसा कि वह चाहता था। दूसरी बड़ी गलती एयरक्राफ्ट लेने के मामले में रही। जेट ने अपने बड़े एयरक्राफ्टों में 400 की बजाय 308 सीटें रखने का फैसला किया ताकि प्रीमियम ग्राहकों को लुभाया जा सके। जब देश में सस्ती हवाई यात्रा का दौर चल रहा हो तो ऐसे में गोयल के इस फैसले का यह नुकसान हुआ कि बड़े एयरक्राफ्टों में उनके पास 23 प्रतिशत सीटें कम हो गईं। एक दिन में लगभग 650 फ्लाइटें ऑपरेट करने वाले जेट के पास दिसम्बर 2018 में 124 विमान थे जिसमें से 16 विमान उसके खुद के थे और बाकी लीज पर लिए गए थे। महंगे तेल व अन्य संचालन खर्च ने रही-सही कसर पूरी कर दी। कंपनी को घाटा होने लगा और जेट को कर्ज लेना पड़ा। इस स्थिति में निर्णायक मोड़ तब आया जब गत मंगलवार को बैंकों ने जेट एयरवेज को 400 करोड़ रुपए का इमरजैंसी फंड देने से मना कर दिया, क्योंकि जेट पर पहले से ही बैंकों का 8500 करोड़ रुपए का कर्ज था। अब बैंक अपने कर्ज की वसूली के लिए इंवेस्टर तलाश रहे हैं ताकि उनके कर्ज की भरपाई नीलामी द्वारा हो सके। इसी बीच जेट के 16 निजी विमानों को दूसरी एयरलाइंस को भी देने का प्रयास किया जा रहा है। एयर इंडिया के सीएमडी अश्विनी लोहानी ने भी इन विमानों को लेने में दिलचस्पी दिखाई है। यह विमान खासे मुनाफे वाले रूटों पर चल रहे हैं। यदि यह विमान किसी एयरलाइन को मिल जाते हैं तो इनका इस्तेमाल होने से इनकी हालत भी सही बनी रहेगी और इनसे आमदनी भी होगी। लेकिन सबसे बड़ा संकट बैंकों की कर्ज वापसी और जेट के कर्मियों के रोजगार का है। जेट की असफलता का असर सिर्फ उसके अस्तित्व पर ही नहीं पड़ेगा बल्कि फ्लाइटों के किराये बढ़ने से लोगों को आर्थिक नुकसान व परेशानी भी होगी। सरकार की इच्छा के अनुरूप हवाई यात्रियों की संख्या में बढ़ोत्तरी मुश्किल होगी और पर्यटन उद्योग को भी नुकसान होगा। जाहिर है कि ऐसे हालात में सरकार इस समस्या से पीछा नहीं छुड़ा सकती। जेट एयरवेज को सरकारी मदद की दरकार है। वह चाहे किसी भी रूप में हो। जेट भारत के विमानन इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है जो बताता है कि एक या दो गलत फैसलों का असर भी कितना दूरगामी हो सकता है। आगामी नई सरकार के सामने यह पहली बड़ी चुनौती होगी जिससे उसे आते ही जूझना होगा।