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चुनाव आयोग की क्षमता पर उठते सवाल

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:25 April 2019 3:22 PM GMT
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योगेश कुमार गोयल

चुनाव के दौरान देश के लोकतांत्रिक महोत्सव की गरिमा गिराते तमाम राजनीतिक दलों के बड़बोले नेताओं पर लगाम लगाने के लिए जो कदम चुनाव आयोग द्वारा बहुत पहले ही उठा लिए जाने चाहिएं थे, अंतत सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद आयोग को चुनावों की शुचिता बरकरार रखने हेतु उसके लिए बाध्य होना पड़ा। अदालत को कहना पड़ा था कि आयोग ऐसे मामलों को नजरंदाज नहीं कर सकता। चुनावी प्रक्रिया में शुचिता लाने के लिए इससे पहले भी सर्वोच्च न्यायालय ने ही समय-समय पर कड़े कदम उठाए हैं। अदालती सक्रियता के चलते ही चुनावों के दौरान जेल से चुनाव न लड़ पाने, अपराधियों, दागियों, धन-बल या विभिन्न अनैतिक तरीकों से मतदाताओं को लुभाने, कानफोडू प्रचार, गली-मोहल्लों में पोस्टरों इत्यादि से निजात मिल सकी। इस बार भी चुनावी शुचिता के लिए निर्वाचन आयोग को सख्त हिदायत देते हुए अदालत ने जो पहल की है, उसके लिए देश की सर्वोच्च अदालत प्रशंसा की हकदार है। आश्चर्य की बात रही कि अदालत की कड़ी फटकार से पहले आयोग ऐसे बदजुबान नेताओं को नसीहत या चेतावनी देने और नोटिस थमाने तक ही अपनी भूमिका का निर्वहन करता रहा, जिसका किसी भी नेता पर कोई असर नहीं देखा गया और जब अदालत द्वारा आयोग से इस संबंध में सवाल किए गए तो आयोग ने अपने अधिकारों और शक्तियों को लेकर अपनी लाचारगी का रोना रोना शुरू कर दिया। ऐसे में सर्वोच्च अदालत द्वारा आयोग को उसकी शक्तियों और अधिकारों की याद दिलाई गई, जिसके बाद आयोग की तंद्रा टूटी और वह न केवल बदजुबान नेताओं पर कार्रवाई के मामले में सक्रिय दिखा बल्कि आदर्श चुनाव संहिता के उल्लंघन के मामले में उसने कर्नाटक की वेल्लोर सीट पर 18 अप्रैल को होने वाले चुनाव को भी रद्द कर दिया, जहां 10 अप्रैल को डीएमके प्रत्याशी के. आनंद तथा उनके दो सहयोगियों के घरों पर आयकर विभाग के छापों के दौरान 11.53 करोड़ की नकदी बरामद हुई थी। आरोप लग रहे थे कि इस तरह का कोंला धन बड़ी संख्या में मतदाताओं को लुभाने के लिए बांटा जा रहा है।

चुनाव आयोग एक स्वायत्त संवैधानिक संस्था है, जिसके मजबूत कंधों पर शांतिपूर्वक निष्पक्ष और पारदर्शी चुनाव कराने की अहम जिम्मेदारी है। वह किसी प्रकार के राजनीतिक दबाव से मुक्त होकर यह कार्य सम्पन्न करा सके, इसके लिए उसे अनेक शक्तियां और अधिकार संविधान प्रदत्त हैं। देश की चुनाव प्रणाली में शुचिता बरकरार रखते हुए उसमें देश के हर नागरिक का भरोसा बनाए रखना निर्वाचन आयोग की सबसे पहले और आखिरी जिम्मेदारी है किन्तु वह अपनी इस भूमिका का किस कदर निर्वहन करता रहा है, इसका अनुमान अदालती फटकार के बाद योगी आदित्यनाथ, मायावती, आजम खान, मेनका गांधी इत्यादि विभिन्न दलों के कुछ दिग्गज नेताओं पर आयोग की सख्ती पर सुप्रीम कोर्ट की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि ऐसा लगता है कि निर्वाचन आयोग 'जाग गया' है। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने आयोग से ऐसे मामलों को लेकर पूछा था कि आप बताएं कि आप क्या कर रहे र्हैं? चुनाव आयोग के पास अभी तक आचार संहिता के उल्लंघन और मर्यादाहीन बयानबाजी की करीब साढ़े तीन सौ शिकायतें मिली किन्तु आयोग ने उन शिकायतों पर कितना लचीला रुख अपनाया, सभी जानते हैं।

ऐसा नहीं है कि आयोग शक्तिहीन है बल्कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत उसके पास चुनावी रंग को बदरंग करने वाले नेताओं या राजनीतिक दलों के खिलाफ कार्रवाई करने के पर्याप्त अधिकार हैं और चुनावी प्रक्रिया की शुरूआत से ही होना तो यही चाहिए था कि आयोग द्वारा अश्लील बयानबाजी और समाज को बांटने वाली टिप्पणियां करने वाले लोगों से सख्ती से निपटा जाता ताकि आचार संहिता की इस प्रकार सरेआम धज्जियां उड़ाने की दूसरों की हिम्मत ही नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट की पहले से ही यह स्पष्ट व्याख्या है कि अगर कोई नेता धर्म या जाति के आधार पर वोट मांगे तो उस पर कार्रवाई की जाए और आयोग के पास इतने अधिकार भी हैं कि आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले या भड़काऊ अथवा अश्लील बयानबाजी करने वाले नेताओं के स्पष्टीकरण से संतुष्ट न होने पर वह उन्हें दंडित भी कर सकता है। अगर आयोग के दावों के अनुरूप मान भी लें कि उसके अधिकार सीमित हैं तो सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद उसके पास एकाएक बदजुबान नेताओं और आचार संहिता की धज्जियां उड़ाने वाले प्रत्याशियों पर कार्रवाई करने के अधिकार कहां से पैदा हो गए?

वास्तव में अपनी जिम्मेदारी और जवाबदेही का अहसास आयोग को अदालत के सख्त रुख के बाद ही हुआ है। आश्चर्य की बात है कि अदालत को कहना पड़ा कि अधिकारी आयोग के अधिकारों के बारे में जानकारी लेकर उसके समक्ष पेश हों। संविधान के तहत निर्वाचन आयोग को निर्बाध शक्तियां प्राप्त हैं। हकीकत यही है कि मतदान प्रक्रिया को शांतिपूर्ण और निष्पक्ष तरीके से सम्पादित कराने के लिए संविधान में निर्वाचन आयोग को पर्याप्त अधिकार दिए गए हैं किन्तु आयोग अगर अपने इन अधिकारों का सही तरीके से उपयोग ही नहीं कर पाता। यहां सवाल आयोग की निष्पक्षता या एक संवैधानिक संस्था के रूप में उसकी स्वायत्तता पर नहीं है बल्कि सवाल है उसकी क्षमता पर, जो तमाम अधिकारों के बावजूद आचार संहिता के गंभीर मामलों में भी कहीं दिखाई नहीं दी। देश के 90 करोड़ मतदाताओं के दिलोदिमाग में आयोग की क्षमता और निष्पक्षता के प्रति पहले जैसा भरोसा बरकरार रहे, उसके लिए जरूरी है कि आयोग चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों में बेहद कड़ा रुख अपनाए।

देशभर में चुनाव आचार संहिता के सरासर उल्लंघन के अनेकों मामले सामने आने के बाद भी आयोग के नरम रुख का ही असर है कि सुप्रीम कोर्ट के सख्त रुख के बाद चार बड़े नेताओं पर कार्रवाई करने के बाद भी विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की फिजां में जहर घोलने की फितरत बदलने का नाम नहीं ले रही। एक ओर जहां जयाप्रदा को लेकर अश्लील टिप्पणी के बाद आयोग की कार्रवाई के पश्चात भी आजम खान ने दो ही दिन बाद फिर मर्यादाहीन टिप्पणी की कि चुनाव के बाद कलेक्टरों से मायावती के जूते साफ करवाएंगे तो विवादास्पद कांग्रेसी नेता नवजोत सिंह सिद्धू कटिहार में नफरत फैलाने वाली राजनीतिक बयानबाजी करते नजर आए। शिवसेना सांसद संजय राउत ने तो सरेआम बयान दे डाला कि वे न कानून को मानते हैं और न ही उन्हें चुनाव आयोग या आचार संहिता की कोई परवाह है। ऐसे में यह देखना होगा कि अदालत द्वारा पेंच कसे जाने के बाद आयोग अब आचार संहिता का उल्लंघन करने वाले नेताओं पर कितना सख्त रुख अपनाता है।

आयोग के लचीले रुख के कारण ही इस बार राजनीति का बेहद छिछला स्तर देखते हुए कदम-कदम पर यही लगता रहा है, जैसे किसी भी राजनीतिक दल या नेता को चुनाव आयोग के डंडे का कोई भय ही नहीं है। हमारी राजनीति की मर्यादा तो दिनों दिन गर्त में जा ही रही है, कम से कम निर्वाचन आयोग को तो मर्यादाहीन नेताओं पर सख्ती दिखाते हुए अपनी मर्यादा की रक्षा करने के साथ-साथ लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों के लिए एक स्वस्थ मिसाल बनकर सामने आना चाहिए ताकि लोकतंत्र में उनका भरोसा बरकरार रहे। आज आयोग भले ही स्वयं को सीमित अधिकारों और शक्तियों वाली संवैधानिक संस्था के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहा है मगर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कुछ ही दशकों पहले इसी आयोग के टीएन शेषन नामक एक कठोर, निष्पक्ष और सख्त मिजाज अधिकारी ने आयोग की इन्हीं शक्तियों और अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तमाम राजनीतिक दलों और नेताओं की बोलती बंद कर दी थी। अगर इतने वर्षों पहले एक चुनाव अधिकारी इतना कुछ कर सकता था तो आज आयोग स्वयं को इतना बेबस क्यों दिखा रहा है? सही मायने में आज निर्वाचन आयोग में चुनाव सुधारों के लिए विख्यात रहे टीएन शेषन जैसे सख्त अधिकारियों की ही जरूरत है, जो आयोग की अपने अधिकारों का निर्भय होकर इस्तेमाल करते हुए आयोग की विश्वसनीयता बहाल कर आमजन का भरोसा स्वयं के साथ-साथ लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति भी बरकरार रख सकें।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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