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गठबंधन न बंधन "गबंधन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:28 April 2019 3:16 PM GMT
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राजनाथ सिंह 'सूर्य'

उत्तर प्रदेश की बुआ बबुआ की जोड़ी अलग-अलग राग अलाप रही है। पता नहीं समाजवादी पार्टी को क्या हो गया है साम्यवादियों की संगत में रहने के कारण है या कुछ और बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी में कभी एकता हो सकती है। इसकी किसी को शायद ही कल्पना रही हो। लेकिन जिस प्रकार से दोनों दलों के बीच उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा के बीच सीट का बंटवारा हो गया उससे यह लगा कि दोनों दलों में आंतरिक विरोध बढ़ा है। मंच से कम से कम एकता की अभिव्यक्ति कि अवधारणा बनने ही नहीं पाई थी कि पहला गोला मायावती जी ने यह कहकर गिरा दिया कि हमारा समझौता केवल 23 मई तक है। शायद उसका कारण यह हो सकता है कि वह समाजवादी पार्टी के भीतर समझौता किए जाने के खिलाफ आवाज उ"ने लगी है। समाजवादी पार्टी के जनक मुलायम सिंह यादव ने सार्वजनिक रूप से कहा था कि बसपा से समझौता करके आधी सीटें बिना लड़े ही हार गए। लड़कर कितना पायेंगे लोकसभा चुनाव परिणाम बताएगा। यहां अखिलेश यादव बार-बार यह कहते हैं कि देश का प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश का ही बनेगा। वहीं मायावती मुलायम सिंह के निर्वाचन क्षेत्र मैनपुरी में आयोजित सभा में भाग लेकर एकता बनाए रखने की कोशिश में हैं।

2017 के विधानसभा चुनाव के समय यूपी के दो लड़के जनता की पसंद नहीं बन पाए थे। अखिलेश और राहुल गांधी के बीच स्थान-स्थान पर जनसभाएं करने के बाद भी दोनों ही दलों की जो दुर्दशा हुई है वह अपने-अपने में महत्वपूर्ण है। 50 से ज्यादा सीटें जीतकर अखिलेश ने पार्टी की इमेज बनाए रखी वहीं कांग्रेस को सिर्फ सबसे छोटी इकाई बन कर रह गई। बुआ बबुआ की जोड़ी अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उसी प्रकार समझौता किया है इसका भी हश्र चुनाव परिणाम में वैसा ही होगा या कुछ और। अब यह आकलन किया जा रहा है। समाजवादी पार्टी का तिलिस्म बहुत जल्दी खुलने लगा। विधानसभा चुनाव के बाद उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लग गया। मायावती पिछले दो चुनाव से हाशिये पर चली गईं। लेकिन उनका यह विश्वास कायम रहा कि देश का एक सबसे बड़ा मतदाता वर्ग उनका साथ कभी नहीं छोड़ेगा। उनका यह विश्वास इतना दृढ़ रहा कि उन्होंने पार्टी के लगभग सभी बड़े नेताओं को पार्टी से निकाल बाहर किया। और वह टिकट बांटने में घोर आपराधिक कृत्य में शामिल लोगों और जो जेल में उन्हें टिकट दिया गया। यह व्यक्ति मुख्तार अंसारी कोई अज्ञात व्यक्ति नहीं है।

जेल में रहते हुए भी लोकसभा का उम्मीदवार बना है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के पूरे क्षेत्र में वह जिस संप्रदाय का व्यक्ति है उसकी तूती बोलती है। दलीय आस्था के मुद्दे के नाते वह कभी सपा में चला जाता है कभी बसपा में। एक और व्यक्ति जिसे कई बार पार्टी में लिया गया और निकाला गया। जिसके आपराधिक कृत्यों पर मुख्यमंत्री रहते अपने आवास से गिरफ्तार कराया। उसे भी लोकसभा का टिकट मिला हुआ है। अपराधियों के बारे में समाजवादी पार्टी और बसपा में बहुत मतभेद नहीं है। राजनीति में आने वाले अपराधी प्रवृत्ति के लोगों का प्रभाव से सजातीय मतदाताओं को अपनी ओर मोड़ने का पासा फेंका जाता है। अब कांग्रेस भी उस रास्ते पर चल दी है।

तीनों दलों के बीच चुनावी समझौता करने के लिए किस धारणा ने काफी प्रभाव डाला था। किस स्थिति में तीनों दलों में समझौते का आधार उसी प्रवृत्ति के कारण उपयुक्त लेकिन किस प्रकार मायावती अपने सक्षम होने वाले नेताओं को पंगु बनाने के लिए उनका वार्षिक निष्कासन करते रहते हैं। इसीलिए उत्तर प्रदेश में 80 सीटों पर होने वाले चुनाव में और चुनाव के बाद की रणनीति के लिए अपना अलग मत रखने के संकेत भी दे दिए हैं। भाजपा विरोधी दलों के नाम पर राजनीति करने वाले दल कुछ राज्यों में बंगाल उड़ीसा तमिलनाडु कर्नाटक तेलंगाना में भी क्षेत्रीय दलों के प्रभाव पाने के लिए मंचीय एकता प्रदर्शन कर मंच से उतरते ही अपनी अपनी ढफली अपना-अपना राग अलापने लगते हैं और मोदी बनाम कौन। किसी को महत्वहीन बताने की होड़ में जुट गए हैं। और ज्यों-ज्यों नेता के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष के नाम को पार्टी की ओर से उछाला गया और कोई विषय रोकने के लिए तैयार दिखाई नहीं दिया। ऐसे में नेता का चुनाव निर्वाचन के बाद कर लेंगे का सहारा लिया। जहां तक कि यह दल अपने को आगे करने के लिए एक दूसरे की निन्दा पर उतारू हो गए हैं। इससे न केवल महाग"बंधन की गां"s खुलती गईं और चुनाव के बाद भाजपा के पास आने का माहौल उभरता गया। भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी यद्यपि के रुख में इन दलों की अभिव्यक्तियों में वह तल्खी नहीं रह गई जो एक महीना पहले थी।

उत्तर प्रदेश की राजनीति सपा और बसपा की ऐसी धाक बनी हुई थी कि भाजपा और कांग्रेस दोनों को ही बार-बार इन दलों की अभिव्यक्ति ने नया स्वरूप दिया। अब वे दल केवल भाजपा से ही नहीं कांग्रेस से भी समान दूरी बनाए रखने की अभिव्यक्ति कर रहे हैं। जिस समाजवादी पार्टी ने नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह को समर्थन देकर 15 वर्ष तक उनकी सरकार चलाने में सहयोग किया बाद में भाजपा के साथ गोपनीय सां"गां" कर अपनी पार्टी के ही उम्मीदवारों को हराने में कोई संकोच नहीं किया। उस भावना ने ऐसा पलटा मारा कि दो लड़कों की जोड़ी यूपी को पसंद है के बावजूद चुनाव आते-आते जोड़ी टूट गई और दोनों ने एक दूसरे का साथ छोड़ दिया। जन्मजात कांग्रेस विरोधी जिस भावना पर समाजवादी पार्टी की नींव रखी गई थी उसे तिलांजलि देकर जैसा समझौता किया था वैसा ही बुआ और बबुआ की बनी जोड़ी धीरे-धीरे एकाकी की ओर बढ़ रही है। मायावती ने यह कहकर कि हमारा समझौता 23 मई तक है इस ग"बंधन के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। वहीं भाजपा से अधिक जोश-खरोश के साथ समाजवादी पार्टी की अभिव्यक्ति ही अगली दिशा का संकेत देगी।

समाजवादी कुनबे में नए लोगों को जोड़ने का कार्य मुलायम सिंह यादव ने किया था। उसको ध्वस्त कर समाजवादी पार्टी ने लीक से हटकर चलने की जो मानसिकता अखिलेश यादव ने निकाला है उससे पुरातन समाजवादियों को बहुत "sस पहुंची है। मुलायम सिंह के भाई शिवपाल सिंह ने अलग एक पार्टी बना ली है। शब्द युद्ध कांग्रेस और सपा के बीच ज्यादा होने लगे हैं। जिस कारण से चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार और केरल के वामपंथी ने जैसी अभिव्ययिक्तयां की है उससे तो यही लगता है कि 2014 के चुनाव के समय से अधिक क्षति कांग्रेस को पहुंच रही है।

मायावती अपने सिद्धांत पर अडिग हैं। 1993 में जिस प्रकार मुलायम सिंह और कांशीराम के बीच समझौता दोनों पार्टियों के उत्थान के लिए उपयोगी साबित हुआ वैसा ही इस चुनाव में बुआ-बबुआ का रिश्ता का हश्र होने का अनुमान लगाया जा रहा है।

(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

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