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लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:3 May 2019 6:15 PM GMT
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71 वर्ष पूर्व देश की आजादी के समय भारत में लोकतंत्र की स्थापना करते हुए जिस आम आदमी को इस लोकतंत्र की महत्वपूर्ण नींव माना गया था, वह आम आदमी हर पांच साल बाद इस भरोसे के साथ मतदान करते हुए सरकार का चयन करता है कि चुनी जाने वाली सरकार उसके दुख-दर्द को समझेगी और उसकी तरक्की के लिए हरसंभव जरूरी कदम उठाएगी किन्तु इस आदमी का भरोसा हर बार टूटता रहा और यह सिलसिला यथावत चला आ रहा है। इसके चलते मतदाताओं के मन में रोष पनपता गया क्योंकि चुनावों के दौरान उसके समक्ष कोई विकल्प मौजूद नहीं था लेकिन कुछ वर्ष उसे `नोटा' के रूप में एक ऐसा विकल्प मिला, जिसके जरिये वो चुनाव में पसंद न आने वाले सभी उम्मीदवारों को नकार सकता है। `नोटा' का अर्थ है `नन ऑफ द अबॉव' अर्थात् इनमें से कोई नहीं। गत वर्ष हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जिस प्रकार करीब 12 लाख मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज करते हुए `नोटा' के विकल्प को चुना था, उसके बाद से ही नोटा चर्चा में है और फिलहाल हो रहे लोकसभा चुनाव के इस दौर में लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता पर चर्चा करना और भी जरूरी हो गया है। अनुमान लगाया जा सकता है कि चुनाव में जहां एक-एक वोट की अत्यधिक महत्ता होती है, वहां पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में 12 लाख नोटा वोटों का कितना महत्व रहा होगा।

आंकड़ों पर नजर डालें तो सबसे ज्यादा छत्तीसगढ़ में 2.1 फीसदी वोट नोटा के खाते में गए थे, जहां आप को 0.9 प्रतिशत, सपा और राकांपा को 0.2 तथा भाकपा को 0.3 प्रतिशत वोट मिले थे। मध्य प्रदेश में डेढ़ फीसदी अर्थात् 5 लाख 42 हजार मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था, जहां नोटा को सपा तथा आप से भी ज्यादा वोट मिले, जिन्हें कमश 1 तथा 0.7 फीसदी वोट मिले थे। यहां 22 सीटों पर तो नोटा वोटों की संख्या हार-जीत के अंतर से भी अधिक रही थी जबकि राजस्थान में 15 सीटों पर ऐसा ही हाल देखा गया था, जहां सपा को सिर्प 0.2 फीसदी वोट मिले थे जबकि सभी दलों के उम्मीदवारों को नकारते हुए नोटा पर 1.3 फीसदी मतदाताओं ने भरोसा जताया था। तेलंगाना में माकपा व भाकपा को 0.4 फीसदी तथा राकांपा को 0.2 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे जबकि नोटा के खाते में 1.1 प्रतिशत मत पड़े थे। मिजोरम में भी 0.5 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा को अपनाया था।

अगर 2017 में हुए पांच विधानसभा चुनावों में नोटा के इस्तेमाल की बात करें तो सभी राज्यों में कई उम्मीदवारों की हार-जीत में नोटा एक बड़ा कारक बनकर उभरा था। उन विधानसभा चुनावों में नोटा को कुल 936503 वोट मिले थे, जिन्हें किसी भी दृष्टि से नजरअंदाज करना उचित नहीं होगा। उत्तर प्रदेश में नोटा को 0.9 प्रतिशत अर्थात् करीब 7.58 लाख वोट मिले, जो सीपीआई, एआईएमआईएम तथा बीएमयूपी को मिले कुल मतों से भी ज्यादा थे। इसी प्रकार उत्तराखंड में 50408 लोगों ने नोटा को पसंद किया था और एक प्रतिशत वोट हासिल करते हुए नोटा भाजपा, कांग्रेस तथा बसपा के बाद चौथे स्थान पर रहा था। पंजाब में नोटा को 0.7 प्रतिशत अर्थात् एक लाख 84 हजार लोगों ने पसंद किया था जबकि मणिपुर में 0.5 फीसदी अर्थात् 9062 लोगों ने नोटा का बटन दबाया था। गोवा में नोटा को कुल मतों के 1.2 फीसदी वोट मिले थे और नोटा को पसंद करने वाले लोगों की संख्या 10919 रही। 2016 में हुए पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तो 831835 मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया था, जो कुल मतदान का डेढ़ फीसदी रहा। तमिलनाडु में 557888 मतदाताओं ने जबकि केरल में 1 लाख 7 हजार मतदाताओं ने नोटा बटन दबाया था।

हालांकि बहुत से लोगों और खासकर राजनीतिक दलों द्वारा कहा जाता रहा है कि नोटा बटन दबाने से मतदाता का वोट बर्बाद हो जाता है क्योंकि कानून के मुताबिक नोटा को मिले मत अयोग्य माने जाते रहे हैं और चुनाव में हार-जीत का निर्णय योग्य वोटों के आधार पर ही होता है। उम्मीदवारों की जमानत जब्त करने के लिए भी नोटा वोटों को वैध नहीं माना जाता। दरअसल अभी तक नोटा को मिले मतों का मतगणना पर कोई असर नहीं पड़ता था क्योंकि अगर किसी चुनाव क्षेत्र में नोटा को सभी उम्मीदवारों से अधिक मत भी मिल जाते थे तो भी सर्वाधिक मत पाने वाला उम्मीदवार ही विजयी होता था। दरअसल मतगणना के दौरान भले ही नोटा मतों की गिनती उसी प्रकार की जाती रही है, जिस प्रकार उम्मीदवारों के मतों की गिनती होती है लेकिन नोटा को मिले मतों की वजह से चुनाव निरस्त नहीं होता किन्तु गत वर्ष हरियाणा नगर निगम चुनावों में राज्य निर्वाचन आयोग की ऐतिहासिक पहल के बाद नोटा की सार्थकता लोकतंत्र में पहले के मुकाबले कई गुना बढ़ गई है।

हमें यह समझने की दरकार है कि नोटा वोटर वे मतदाता नहीं हैं, जो कोई न कोई बहाना बनाकर मतदान करने से बचते हैं और चुनाव उपरांत दूषित राजनीतिक व्यवस्था को कोसने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं बल्कि वे ऐसे वोटर हैं, जो किसी के बहकावे में आकर सिर्प वोट देने के लिए ही मतदान प्रािढया का हिस्सा नहीं बनते बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखते हुए लंबी-लंबी कतारों में लगकर मतदान करते हैं और अपना स्पष्ट विरोध दर्ज कराते हैं, इसलिए `नोटा' को वोट बर्बाद करने वाला औजार मानना उचित नहीं। वास्तव में नोटा वर्तमान दूषित राजनीति में बदलाव को गति देने का हथियार है। कुछ वर्ष पहले तक चुनाव के दौरान बहुत से लोगों से प्राय यही सुनने को मिलता था कि वे बहती हवा को देखकर अर्थात् जीत की संभावना वाले प्रत्याशी को अपना वोट देंगे वरना उनका कीमती वोट बर्बाद हो जाएगा किन्तु नोटा ने मजबूरी में जीत की संभावना वाले प्रत्याशी को वोट न देने की स्थिति में वोट बर्बाद हो जाने की धारणा को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई है।

ऐसे में बेहतर यही है कि `नोटा' कानून में संशोधन करते हुए हरियाणा निर्वाचन आयोग की पहल को समूचे देश में लागू किया जाए ताकि लोकतंत्र में नोटा की सार्थकता और उपयोगिता बढ़े और यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को नए आयाम प्रदान करते हुए सौ फीसदी मतदान की दिशा में सार्थक भूमिका निभा सके। बहरहाल, नोटा लोकतांत्रिक व्यवस्था में मजबूती के साथ अपनी सार्थकता साबित कर सके, इसके लिए जरूरी है कि आमजन को `नोटा' की व्यवस्था और उसके महत्व के बारे जागरूक करने के लिए व्यापक स्तर पर अभियान चलाया जाए और उन्हें बताया जाए कि नोटा उनका ऐसा एकमात्र सशक्त अधिकार है, जिसके जरिये वे अपने लोकतांत्रिक उत्तरदायित्वों के निर्वहन के साथ राजनीतिक दलों को राजनीति में शुचिता, नैतिकता एवं ईमानदारी बनाने के लिए योग्य उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारने पर विवश कर सकते हैं।

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