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यह कैसा लोकतंत्र का उत्सव?

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:5 May 2019 3:26 PM GMT
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डॉ. बचन सिंह सिकरवार

वर्तमान में देश में 17वीं लोकसभा का चुनाव यानी 'लोकतंत्र का उत्सव' चल रहा है, जिसमें लोक (आमजन) प्रत्याशियों को अपना मत देकर आगामी पांच वर्ष के लिए अपनी मनपसंद सरकार चयन करता है, ताकि वह इस देश और जनता के हित में बेहतर से बेहतर कार्य करे। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है, इस पर सामान्यतः हम सभी को गर्व भी होना चाहिए। लेकिन सच्चाई इसके "ाrक विपरीत है, तभी तो एक ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी भाजपा के दूसरे नेताओं तो दूसरी ओर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी तथा उनके साथियों के बीच चुनाव जीतने के लिए मिथ्या आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाने के साथ तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जो रहे हैं। देश के कई हिस्सों में विशेष रूप से पश्चिम बंगाल में चुनावी हिंसा के जरिये मतदाताओं को मतदान से वंचित किया जा रहा है तो जम्मू-कश्मीर में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा दहशत फैलाकर लोगों को वोट डालने से रोका जा है। देश के राजनीतिक दलों का यह रवैया और उनके समर्थकों द्वारा की जा हिंसा देश के लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। पर सच्चाई यह भी इससे इन सत्ताकाम सियासी पार्टियों को कोई सरोकार नहीं है, उन्हें तो हर हाल में हर हाल में सत्ता चाहिए। इन्हें सत्ता के लिए सामाजिक, धार्मिक सौहार्द बिगड़ने का ही नहीं वरन मुल्क की आजादी, उसके संप्रभुता, अखंडता को पैदा खतरों से भी कोई लेना-देना नहीं है, क्योंकि उनके लिए सत्ता से बढ़कर कुछ भी नहीं है। चुनाव आयोग के अनुसार 26 अप्रैल तक देश की सत्ता लूटने के लिए इन सत्ता के सौदागरों के एजेंटों से 3000 करोड़ से अधिक नकद रुपए तथा दूसरी चीजें जब्त की गई हैं, जिन्हें वोट खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जाना था।

सत्ताकामी ज्यादातर सियासी पार्टियां और उनके नेता इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर बनाने में कोई कमी नहीं छोड़ रहे हैं, स्वयं तो भ्रष्ट हैं ही, मतदाताओं को भी लालची और भ्रष्ट बनाने पर तुले हैं। अपने देश के राजनीतिक दल इस 'लोकतंत्र के उत्सव' में विजय पाने के लिए न केवल धर्म/मजहब, जाति, संप्रदाय, भाषाई आधार पर लोगों को अपने पक्ष में एकजुट करने को एक-दूसरे के बीच घृणा फैला रहे है, बल्कि उनका वोट पाने को रुपए, शराब और दूसरे नशीले पदार्थ भी बांट रहे हैं। साथ ही एक-दूसरे पर पूर्णतः मिथ्या/ झू"s आरोप लगाने के साथ -साथ अभद्र शब्द/भाषा बोलने, अमर्यादित व्यवहार करने में भी संकोच नहीं दिखा रहे है। महिला प्रत्याशियों के प्रति भी अशालीन शब्दों के साथ उन लांछन लगाने से भ्sााr नहीं चूके रहें। मतदाताओं से अपने पक्ष में वोट लेने को वे कर्जमाफी और सरकारी नौकरियां देने के झू"s वादे कर रहे हैं, जिन्हें पूरा करना किसी भी सूरत में संभव नहीं है। यहां तक कि उनका प्रतिद्वंद्वी चुनावी कामयाबी हासिल न कर ले, इस डर से इनमें से कुछ देशहित, उसकी स्वतंत्रता, एकता, अखंडता को भुलाकर खुलेआम अलगाववादियों, आतंकवादियों, मजहबी नफरत फैलाने वालों की तरफदारी करने के साथ-साथ दुश्मन मुल्क के शासकों की जुबान भी बोल रहे हैं। इससे देश के आम नागरिक को गहरा आघात लगता है। देश के सियासी पार्टियों और उनके नेताओं के ऐसे बर्ताव को देख-सुनकर लोगों को उनसे तथा तथाकथित उनकी राजनीति से न केवल नफरत हो रही है वरन उनके ऐsसे लोकतंत्र से भी मोहभंग हो रहा है। ये राजनीतिक दल नीति, सिद्धांतों की बातें जरूर करते है,किन्तु सही माने में इनसे ज्यादा कोई भी नीति, सिद्धांतहीन नहीं। इनके नेता आज दल के सिद्धांतों की दुहाई देते थकते नहीं, वे ही पद या टिकट न मिलने पर दूसरे दल के गीत गाने लग जाते हैं। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या देश के राजनीतिक दल और उनके नेतागण लोकतंत्र को लेकर आमजन के मन में उ" रहे इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार करने का आवश्यक अनुभव करते हैं? नहीं,क्यों कि इन सत्ता पिपासुओं के लिए सत्ता ही सब कुछ है, क्यों कि उसके जरिये उन्हें कुछ भी कर गुजरकर बच निकलने की ताकत जो मिलती है। इससे उन्हें सार्वजनिक धन को लूट की छूट भी मिल जाती है। इस धन को लूटने पर पहले तो मौजूदा न्याय व्यवस्था में धनबल और बाहुबल वालों को सजा मिलना मुमकिन नहीं। अगर खुदा न खस्ता किसी को सजा हो भी गई तो, वे अदालतों/न्यायाधीशों पर जातिगत भेदभाव लगाने से नहीं चूकते। इनके भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार कार्रवाई होने पर जाति हमला बताने लगते हैं। वैसे उनकी जाति-बिरादरी वालों को भी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता,वे तो उस महाभ्रष्ट नेता को भी अपनी तथाकथित जाति अस्मिता प्रतीक/मसीहा ही समझते हैं। इससे इन जातिवादी भ्रष्ट नेताओं के हौसले बढ़े हुए हैं। उनका कुतर्क होता है, कोई उनके बारे में कुछ भी कहे,जनता तो अपना वोट उन्हें देकर बेकसूर/सही मानती है।

वैसे भी राजनीति शास्त्र में 'लोकतंत्र' के माने 'लोक' द्वारा स्वयं के लिए चुना 'तंत्र' भले ही हो,जो उसके हित में कार्य करने को समर्पित हो। अपने देश में 'लोक' पर 'तंत्र' हावी है। वही देश के स्वतंत्र होने के बाद से लोकतंत्र के माने आम आदमी से किसी भी बहाने पांच साल में सिर्फ एक बार पंचायत से लेकर विधानसभा एवं लोकसभा चुनाव के समय उसे सुनहरे भविष्य के सपने दिखाते हुए तरह-तरह के मिथ्या प्रलोभन/वादे कर वोट (मत) डलवाना है। उसके पश्चात उससे किए गए वादों को भूल जाना है। हकीकत में अपने यहां 'लोक' पर 'तंत्र' न केवल शासन करता आया है, बल्कि उसका हर तरह से शोषण करने के लिए उस पर अन्याय तथा अत्याचार भी करता रहा है।

हमारे मुल्क के लोकतंत्र (जम्हूरियत) के ये फर्जी नुमाइंदे सत्ता की लूट में इतने अंधे हो गए है, कोई किसी को बगैर किसी सबूत के चौकीदार चोर ही नहीं कह रहा है, बल्कि अपनी बात का ज्यादा प्रामाणिक सिद्ध करने को सर्वोच्च न्यायालय का झू"ा नाम भी ले रहा है। फिर खेद/माफी मांगने के बाद भी अपने उक्त झू" बोलने से बाज नहीं आ रहा है। इसी तरह उनकी पार्टी पुलवामा हमले को भी नरेंद्र मोदी द्वारा कराये जाने या फिर बालाकोट की सर्जिकल स्ट्राइक को फर्जी साबित करने में जुटा जाता है ताकि मोदी उसका श्रेय लेकर चुनावी फायदा न ले लें। देश की सियासत देखकर आश्चर्य होता है जब बसपा-सपा, राजद जैसी घोर जातिवादी और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की राजनीति करनी वाली सियासी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस पर जातिवाद और धर्म की राजनीतिक करने का आरोप लगाती हैं, जबकि ये पार्टियां जब-जब सत्ता में आईं, इन्होंने नौकरशाही, पुलिस में भी जातिवाद का जहर घोलने के साथ-साथ प्रशासनिक निर्णयों से लेकर सरकारी नियुक्तियों में भी जातिगत भेद किया। इनके शासन में सार्वजानिक धन की लूट कैसी हुई यह बताने-जताने की जरूरत नहीं है, फिर उनके बाद सत्ता संभालने वाली सरकारों ने उनके भ्रष्टचार की जांच की जरूरत नहीं समझी। लेकिन ये भी सच है कि देश की कोई भी सियासी पार्टी जातिवाद और मजहब की राजनीति करने में पीछे नहीं हैं, भले ही इनके नेता जातिवाद और धर्म का सहारा लेने से इन्कार करते हों,पर अपने प्रत्याशी चुनते समय उस क्षेत्र के लोगों की जाति, मजहब देखकर ही उसे अपना उम्मीदवार बनाते हैं। इसके साथ उसका धनबल और बाहुबल भी देखते हैं। कांग्रेस भाजपा पर सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप लगाती है जबकि कांग्रेस मुसलमानों की सांप्रदायिकता न केवल आंखें मूंद लेती है, बल्कि उसे वोट बैंक बनाने के लिए उसे खुलकर खेलने में मदद भी करती आई हैं। उसकी वजह से न सिर्फ कश्मीर के हालात बिगड़े हुए है, बल्कि देशभर में कट्टरपंथी ताकतें देश की एकता के लिए चुनौती दे रही हैं। उसके इस मजहबी भेदभाव को भाजपा को हिन्दुओं का ध्रुवीकरण आसानी हो गई। इसकी बदौलत वह केंद्र और कई राज्यों में सरकार बनाने में कामयाब हो गई। वह भी चुनाव-प्रचार वह सभी हथकंडे अपनाने में परहेज नहीं कर रही है, जिसके लिए कांग्रेस बदनाम थी। वह भी लोकतंत्र का सुदृढ़ करने की दिशा में ऐसा कुछ नहीं कर रही है, जिससे लोकतंत्र को मजबूती हो।

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