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अर्थव्यवस्था की कमजोर स्थिति

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:6 May 2019 3:24 PM GMT
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डॉ. भरत झुनझुनवाला

वर्तमान चुनाव हमें एनडीए सरकार के आर्थिक कार्यों की समीक्षा करने का अवसर प्रदान करता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कथन में सत्यता है कि उनकी सरकार ने भ्रष्टाचार मुक्त शासन दिया है, नई आईआईटी और आईआईएम की स्थापना की है, ग्रामीण विदुतिकरण में सुधार किया है कि हर घर को बिजली मिल सके, मंगल ग्रह पर भारत ने आपना यान भेजा है, किसानों को मासिक निश्चित रकम उपलब्ध कराई है और सोलर एनर्जी में तीव्र वृद्धि की है। प्रधानमंत्री द्वारा बताई गई ये उपलब्धियां सही दिखती हैं और इन्हें हासिल करने के लिए उन्हें बधाई। लेकिन अर्थवयवस्था की मूल स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं दिखती है।

प्रधानमंत्री ने बताया कि विश्व बैंक द्वारा बनाए गए व्यापार करने की सुगमता के सूचकांक में भारत का स्थान 142वें से उछल कर 77वें पर आ गया है। यह बात सही है। लेकिन इसमें भी रहस्य छिपा हुआ है। इस सूचकांक को बनाने में विश्व बैंक द्वारा लगभग 10 कारकों का अध्ययन किया गया जैसे बिजली कनेक्शन लेने में कितना समय लगता है अथवा प्रॉपर्टी के रजिस्ट्रेशन में कितना समय लगता है। मैंने भारत की रैंक में सुधर की पड़ताल की तो पाया कि इस सुधार में विशेष योगदान सरकार द्वारा लागू किए गए दिवालिया कानून के कारण है। इस कानून में उद्यम को बंद करने एवं उसके द्वारा बैंक से ली गई रकम को वसूल करने की त्वरित व्यवस्था है। उद्योग को बंद करने को निश्चित रूप से सुगम बनाया गया है। लेकिन यह सुगमता उद्योग को बंद करने की है न कि उद्योग को चलाने की अथवा नए उद्योग को खोलने की। विश्व बैंक ने चार अन्य कारकों में भारत की परिस्थिति में गिरावट बताई हैöएक, नए उद्योग को चालू करने में लगने वाला समय, विदेश व्यापर, प्रॉपर्टी के रजिस्ट्रेशन में लगने वाला समय एवं नए बिजली के कनेक्शन में लेने में लगने वाला समय। समग्र रूप से देखा जाए तो देश में व्यापर बंद करना आसन हुआ है जबकि नया व्यापार चालू करना कठिन हुआ है। इसलिए व्यापार करने की सुगमता के सूचकांक में हमारी रैंक में सुधार से हमें प्रसन्न नहीं होना चाहिए।

प्रमाण यह है कि व्यापार की सुगमता में इस सुधार के बावजूद बैंकों द्वारा उत्पादक क्षेत्रों को लोन देने की गति मंद पड़ी हुई है जो की अर्थव्यवस्था की मंदी को दर्शाती है। वर्ष 2016 से 2018 में बैंकों द्वारा दिए गए कुल लोन में 9 प्रतिशत प्रति वर्ष की वृद्धि हुई है जो की सम्मानजनक दिखती है। लेकिन इसमें अधिकतर हिस्सा व्यापार यानि ट्रेड तथा पर्सनल व्यक्तिगत लोन जैसे मकान खरीदने इत्यादि के कारण है। अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्र यानि उद्यम, पर्यटन तथा कंप्यूटर में बैंक लोन की वृद्धि दर मात्र 0.5 प्रतिशत प्रति वर्ष रही है। अर्थ हुआ कि अर्थव्यवस्था के उत्पादक हिस्से मंद पड़े हुए हैं। लोगों द्वारा खपत के लिए लोन लिए जा रहे हैं ना की उत्पादन के लिए। ऐसा भी संभव है कि लोगों की आय कम होने के कारण वे ऋण लेकर खपत कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए लोगों को फैक्ट्री और कॉल सेंटर स्थापित करने के लिए लोन लेने थे। अत व्यापार की सुगमता के सूचकांक में सुधार को अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता से जोड़ना अनुचित लगता है।

प्रधानमंत्री ने इस बात पर जोर दिया है कि उनकी सरकार विकासोन्मुख और गरीबोन्मुख दोनों है जो की पहले कभी नहीं हुआ है। पहले विकास पर विचार करें। ज्ञात हो कि देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर यानि सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर पर बीते समय विवाद रहा है। पूर्व में इसी सरकार द्वारा ही प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार यूपीए सरकार के दौरान विकास दर अधिक थी जबकि इसी सरकार द्वारा ही प्रकाशित नए आंकड़ों के अनुसार एनडीए सरकार के दौरान विकास दर अधिक रही है। अत विकास दर के आंकड़ो के आधार पर कुछ भी कहना उचित नहीं दीखता है। लेकिन हम दूसरे ठोस आंकड़ों को प्रॉक्सी के रूप में देख कर अर्थव्यवस्था की असल स्थिति का अंदाज लगा सकते हैं। संकट इस बात में दिख रहा है कि जीएसटी कि वसूली में बीते दो वर्षों में मामूली वृद्धि ही हुई है। शून्य विकास दर पर ही महंगाई के अनुपात में जीएसटी में वृद्धि होनी चाहिए थी। यदि वास्तव में अर्थव्यवस्था की ग्रोथ रेट 7 प्रतिशत होती तो जीएसटी में वृद्धि 5 प्रतिशत महंगाई एवं 7 प्रतिशत ग्रोथ जोड़ कर 12 प्रतिशत होनी चाहिए थी। परन्तु जीएसटीकी वसूली में वृद्धि लगभग 7 प्रतिशत ही रही है जो की अर्थव्यवस्था की शिथिलता की ओर संकेत करता है। यदि जीएसटी के आंकड़ों को हम ठोस मानें तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि संदिग्ध हो जाती है। इसी क्रम में रोजगार की परिस्थिति भी विवादित है। सरकार ने बीते समय में रोजगार के आंकड़ो को जारी नहीं किया है। लेकिन सेंटर फॉर मोनेटरिंग इकोनॉमी की एक रिपोर्ट के अनुसार जुलाई 2017 में देश में बेरोजगारी दर 3.4 प्रतिशत थी जो मार्च 2018 में बढ़कर 6.2 प्रतिशत हो गई है। उनका अनुमान है कि वर्तमान वर्ष में यह 6 प्रतिशत से ऊपर ही रहेगी। इसी क्रम में छोटे उद्योगों की परिस्थति में भी सुधार नहीं दीखता है। छोटे उद्योगों के मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2014 में छोटे उद्योगों का कुल उत्पादन में हिस्सा 29।8 प्रतिशत था जो 2016 में घटकर 28।8 प्रतिशत रह गया था। इससे पता लगता है कि छोटे उद्योगों पर दबाव है और उनका संकुचन हो रहा है। रोजगार और छोटे उद्योगों दोनों की ही परिस्थति कमजोर है। अत प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य पर संदेह बना रहता है कि अर्थव्यवस्था गरीबोन्मुख है।

हमें विचार करना चाहिए कि भ्रष्टाचार उन्मूलन, आईआईटी आईआईएम स्थापित करना, ग्रामीण विद्युतिकरण, मंगलग्रह तक पहुंचना, किसान को रकम देना एवं सौर उर्जा के विकास के बावजूद उत्पादक उद्यमों, पर्यटन एवं कंप्यूटर जैसे छेत्रों को बैंकों द्वारा लोन कम क्यों दिए जा रहे हैं, जीएसटी की वसूली सपाट क्यों है और रोजगार और छोटे उद्योग दबाव में क्यों है? यह भी सही है कि कभी-कभी मरीज की बीमारी को दूर करने के लिए सर्जरी करनी पड़ती है और इस दौरान मरीज को कष्ट बढ़ता है। लेकिन इस आकलन में संकट यह है कि कष्ट सुधार के ओर ले जा रहा है या मृत्यु की और यह समझना पड़ता है। इसके अलावा 5 वर्ष का समय कम नहीं होता है। याद रखना चाहिए कि लालू यादव ने ऐसा ही कह कर 15 वर्षों में बिहार को डुबा दिया था। अत मेरी समझ से आगे के सुधार को देखना के स्थान पर पिछले 5 वर्षों में एनडीए सरकार की उपलब्धियां और कमियां दोनों को देख कर वोट देने का निर्णय मतदाता को लेना चाहिए।

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