व्हिप को अविश्वास प्रस्ताव तक सीमित कीजिए
चुनावी लोकतंत्र का वैचारिक आधार जीन जैक्स रूसो नाम के विचारक ने दिया था। उन्होंने कहा था कि जनता द्वारा चयनित लोगों को जनता पर शासन का अधिकार है। वे जनता द्वारा चयनित होते हैं इसलिए अपेक्षा की जाती है कि वह जनता के हित में काम करेंगे। इसी विचारधारा को अपनाते हुए गांधी जी ने स्वतंत्रता के बाद सुझाव दिया था कि कांग्रेस पार्टी को समाप्त कर देना चाहिए और हमें बिना पार्टी के लोकतंत्र को अपनाना चाहिए जिसमें जनता बिना पार्टी की मुहर के स्वतंत्र व्यक्तियों का चुनाव करें और इनके द्वारा जनता के हित में शासन किया जाए। लेकिन हमारे संविधान के निर्माताओं ने पार्टी विहीन लोकतंत्र के स्थान पर पार्टी समेत लोकतंत्र को अपनाया है जिसमें पार्टी के आधार पर चुनाव होते हैं।
इस व्यवस्था के सही संचालन के लिए जरूरी है कि सत्तारूढ़ और विपक्ष की पार्टियों के सांसद पर्याप्त संख्या में सदन में उपस्थित हों विशेषकर प्रमुख मुद्दों पर चर्चा के दौरान अथवा अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान के समय। इसलिए इंग्लैंड में व्हिप की व्यवस्था की गई। व्हिप यानि चाबुक। इस व्यवस्था के अंतर्गत हर पार्टी किसी एक सांसद को व्हिप के रूप में नामित किया जाता है। व्हिप की जिम्मेदारी होती है कि प्रमुख विषयों पर चर्चा के समय पार्टी के सभी सांसदों को संसद में उपस्थित होना सुनिश्चित करें। इस शब्द का स्रोत इंग्लैंड में शिकार की व्यवस्था से लिया गया है। शिकार के लिए कुछ शिकारी कुत्ते रखे जाते थे जिन्हें चाबुक से मार कर एक स्थान पर लाया जाता था। इसी प्रकार सांसदों को संसद में लाने के लिए व्हिप शब्द का उपयोग किया गया। यह व्यवस्था आज सभी प्रमुख लोकतांत्रिक देशों में उपलब्ध है। लेकिन इस व्यवस्था में सांसद द्वारा संसद में किस मुद्दे पर किस प्रकार मतदान किया जाता है इस पर व्हिप का अथवा पार्टी का कोई नियंत्रण नहीं रहता है। व्हिप की भूमिका मात्र इतनी रहती है कि वह सांसद की उपस्थिति संसद में सुनिश्चित करें। संसद में आने के बाद सांसद अपने विवेकानुसार मत देने के लिए स्वतंत्र रहता है। इसका ज्वलंत उदाहरण हाल में इंग्लैंड में हुआ ब्रेक्जिट मतदान है, ब्रेक्जिट यानि इंग्लैंड का यूरोपियन यूनियन से अलग होने का प्रस्ताव पर मतदान है। यह प्रस्ताव कंजरवेटिव पार्टी द्वारा संसद में लाया गया। कंजरवेटिव पार्टी का बहुमत भी था लेकिन कंजरवेटिव पार्टी के कई सांसदों ने अपनी ही पार्टी द्वारा लाए गए प्रस्ताव का विरोध किया और ब्रेक्जिट का प्रस्ताव गिर गया। इसी प्रकार अमेरिका में रिपब्लिकन पार्टी ने प्रस्ताव लाया था की डेपोटिक राष्ट्रपति ओबामा द्वारा स्वास्थ्य व्यवस्था संबंधित बनाए गए कानून को रद्द कर दिया जाए लेकिन रिपब्लिकन पार्टी के ही कुछ सांसदों ने अपनी ही पार्टी के प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया और वह प्रस्ताव भी गिर गया। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि विश्व के प्रमुख देशों में सांसद अपने विवेकानुसार मतदान करने को स्वतंत्र होते थे और पार्टी के व्हिप की भूमिका मात्र इतनी होती थी कि वह सांसदों की संसद में उपस्थिति सुनिश्चित करें।
भारत में सांसदों की इस स्वतंत्रता का दुरुपयोग होने लगा। 80 के दशक में कई राज्यों के विधायक सुबह से शाम तक दो या तीन बार पार्टियों को बदलने लगे। जो पार्टी अधिक धन देती थी, वह उस पार्टी में सम्मिलित हो जाते थे। राज्यों में स्थिर सरकार बनाना असंभव हो गया। उस समय विधायकों को `आया राम गया राम' के नाम से संबोधित किया जाने लगा। उस अस्थिरता से बचने के लिए 1985 में हमने 52वां संविधान संशोधन पारित किया। इसमें व्यवस्था थी कि हर विधायक या सांसद को पार्टी के निर्देशानुसार ही मतदान करना पड़ेगा। यदि वह पार्टी के निर्देशों का उल्लंघन करता है तो विधानसभा अथवा संसद में उसकी सदस्यता समाप्त कर दी जाएगी। इस व्यवस्था को लागू करने के लिए अपने देश में व्हिप की व्यवस्था की गई। व्हिप का कार्य अब केवल यह नहीं रह गया कि विधायकों और सांसदों की उपस्थिति सुनिश्चित करें, बल्कि यह हो गया कि देखें की विधायकों की सदस्यों ने पार्टी के अनुसार मतदान किया या नहीं। जैसे यदि भारत में सरकार ने प्रस्ताव लाया की खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश को स्वीकृति दी जाए और किसी सांसद ने उस प्रस्ताव के विरोध में मतदान किया तो उस सांसद की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। ऐसा करके हमने सांसदों की स्वतंत्रता अथवा विवेक के उपयोग को समाप्त कर दिया। अब सांसद केवल चपरासी हो गए हैं जिनका कार्य है कि उपस्थित होकर पार्टी के आदेशानुसार बटन दबा दें।
यह व्यवस्था गांधी जी के कल्पना के पूर्ण विपरीत है। गांधी जी ने सोचा था कि बिना पार्टी की मुहर के व्यक्ति संसद में पहुंचेंगे और जनता की समस्याओं को उठाएंगे। अब 1985 के बाद हमारी व्यवस्था में पार्टी द्वारा नामित व्यक्ति संसद में पहुंचकर पार्टी के आदेशानुसार मतदान करते हैं। जनता की भूमिका मात्र इतनी रह गई है कि वह पार्टियों में चयन करती है कि वह अमुख पार्टी को वोट देगी। इसलिए आज हमारे देश में आसानी से जन विरोधी कानून पारित हो रहे हैं जैसे भूमि अधिग्रहण कानून में जो सुधार किए गए थे उनको निरस्त करने के प्रयास किए गए; अथवा गंगा नदी के संरक्षण के लिए बनाई गई कमेटी में पर्यावरणविदों को बाहर कर दिया गया इत्यादि इत्यादि। हमारे सामने दो समस्याएं उपलब्ध हैं। एक तरफ हमें निश्चित करना है की सरकारें स्थिर रहे और आया राम गया राम से हमें मुक्ति पानी है जिससे कि सत्तारूढ़ पार्टी अपना कार्य बिना भय के कर सके। दूसरी तरफ हमें विधायकों और सांसदों पर पार्टी के दबाव को समाप्त करना है इसका जिससे कि लोकतंत्र सही मायने में पुन बहाल हो सके। इन दोनों समस्याओं का हल यह हो सकता है कि अपने देश में व्हिप की भूमिका को इंग्लैंड और अमेरिका की तरह केवल सांसद के सदन में उपस्थित होने तक सीमित कर दी जाए। कानून से यह व्यवस्था हटा दी जाए कि विधायक और सांसद को पार्टी के निर्देशानुसार मतदान करना होगा। अविश्वास प्रस्ताव पर यह व्यवस्था जरूर की जा सकती है कि हर विधायक अथवा सांसद को पार्टी के ही पक्ष में मतदान करना होगा। अविश्वास प्रस्ताव पर व्हिप लागू करने से सरकार की स्थिरता बनी रहेगी। लेकिन अन्य सभी मुद्दों पर विधायकों और सांसदों को पार्टी के निर्देशों से मुक्त करने से देश में सही मायनों में लोकतंत्र पुन बहाल हो सकेगा। 1985 में लाए गए संविधान संशोधन पर तुरंत परिवर्तन करने की जरूरत है।