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दशकों के आतंक का लेखा परीक्षण कब!
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सुशील कुमार सिंह
पड़ताल बताती है कि अमरनाथ की यात्रा पर काफी हद तक आतंक का साया रहता है। बीते 10 जुलाई को जब इस यात्रा पर आतंकी हमला हुआ तो यह बात पूरी तरह पुख्ता हो गई। गौरतलब है कि कश्मीर में अमरनाथ यात्रियों पर घात लगाकर किया गया हमला पहली बार नहीं है। डेढ़ दशक में यह सबसे बड़ी घटना है। इसमें कोई शक नहीं कि हमला सुरक्षातंत्र के चूक का नतीजा है। हैरत इस बात की है कि हजारों-लाखों में सुरक्षाकर्मियों एवं अर्द्धसैनिक बलों की तैनाती के बावजूद आतंकी अपने मंसूबों में कैसे कामयाब हो जाते हैं। यह बात भी कचोटती है कि जिस मनोविज्ञान के साथ अमरनाथ यात्री तीर्थाटन करते हैं उसमें जब आतंकियों की घुसपै" होती है तो उससे यह भी इंगित होता है कि भारत को आतंकियों के रास्ते पाकिस्तान से बड़ी चुनौती मिल रही है। दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जो पड़ोस की इतनी बर्बरता सहता हो। ताजा घटनाक्रम में जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग में यात्रियों की बस पर हुए आतंकी हमले के मास्टरमाइंड लश्कर-ए-तैयबा का आतंकी इस्माइल है जिसका पालन-पोषण पाकिस्तान में होता है। आतंकियों ने घटना को अंजाम कैसे दिया, किस पैमाने पर गोली बरसाई, कैसे बच निकले और किस कीमत पर यात्रियों को जान गंवानी पड़ी ऐसी तमाम बातों का उभरना तब-तब रहा है जब-जब ऐसी घटनाएं घटी हैं। सब्र तब जवाब दे जाता है और सरकार की लानत-मलानत करने का विचार तब पनप जाता है जब चंद शब्दों के सहारे घटना को सरकारें इतिश्री की ओर ले जाने की कोशिश करती हैं। इन सबके बीच एक सवाल यह भी उ" खड़ा होता है कि आखिर पुख्ता सुरक्षा का इंतजाम करने वाली सरकारें आतंकियों के किस तरकश से अनभिज्ञ रह जाती हैं। सभी जानते हैं कि कश्मीर बरसों से जल रहा है। हालात अच्छे नहीं है और अलगाववादियों के मंसूबे जिस पराकाष्"ा तक पहुंच गए है मानो वहां अमन-चैन की उम्मीद करना अब बेमानी है। गौरतलब है कि बुरहान वानी कश्मीर की फिज़ा में वह तैरता हुआ दहशतगर्द का नाम है जिसकी गर्मी से आज भी कश्मीर की बर्प पिघल रही है। एक साल का वक्त बीत चुका है पर बुरहान का नाम अभी भी वादियों में गूंजता है।
देश की सरकार न तो कश्मीर में सुरक्षा देने में कामयाब होते दिख रही है और न ही सुलगते कश्मीर को वाजिब हल दे पाई है। हैरत इस बात की है कि जिस जम्मू-कश्मीर में बरसों से अंदर-बाहर की बर्बरता चल रही है, वहीं भाजपा के समर्थन से सरकार चल रही है जबकि नतीजे ढाक के तीन पात हैं। यह बात भी तार्पिक है कि जब-जब सिद्धांत से समझौता करोगे। जमीन पर हकीकत कुछ होगी और दिमाग में कुछ और उपजेगा। उक्त कथन भाजपा और पीडीएफ के बेमेल ग"बंधन पर सटीक बै"ती है। बीते तीन साल के कार्यकाल में और ढाई साल के जम्मू-कश्मीर के शासनकाल में भाजपा यह समझ ही नहीं पाई कि अलगाववाद और आतंकवाद पर उसकी यांत्रिक चेतना क्या हो और निपटने की तकनीक क्या अपनाई जाए? भारत में कब-कब आतंकी हमला हुआ इसकी फेहरिस्त बनाई जाए तो किसी भी सभ्य व्यक्ति का सब्र डोल सकता है। जिस कीमत पर सीमा की रखवाली सैनिकों द्वारा की जाती है उसकी पीड़ा से शायद ही हमारे देश के राजनेता भिज्ञ हों। सख्त सुरक्षा बंदोबस्त के बावजूद आतंकियों ने अमरनाथ यात्रियों को जिस तरह निशाना बनाया उसे देखते हुए अब आतंकवाद को कुचलने के लिए क"ाsर कार्रवाई करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं दिखाई देता पर देखने वाली बात तो यह होगी कि सरकार इसे लेकर कितनी संवेदनशील है। गौरतलब है कि आतंकी घटना के पीछे पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई, वहां की सरकार और उसके सैनिकों का समर्थन रहता है। सब कुछ जानने के बावजूद कार्रवाई के मामले में हम मीलों पीछे छूट जाते हैं। मुंबई आतंकी हमले से लेकर प"ानकोट तक यही हुआ है। रही बात कश्मीर और अमरनाथ यात्रा की तो यहां की सूची भी कम लंबी नहीं है। हालांकि सितम्बर 2016 में उरी की घटना के बाद पाक अधिकृत कश्मीर में सर्जिकल स्ट्राइक की गई थी, 40 से अधिक आतंकियों को ढेर किया गया था और उनके लांचिंग पैड को नष्ट किया गया था फिर भी आतंकी हमलों का सिलसिला रुका नहीं। सरकार के पास हमलों के लेखा का मोटा कच्चा चिट्ठा है पर इसका लेखा परीक्षण कब होगा इस सवाल का उ"ना लाजिमी है। जाहिर है लेखा परीक्षण से ही यह साफ होगा कि आतंकियों की मार सहने में भारत अव्वल रहा है।
इस तथ्य को गैर वाजिब नहीं कहा जाएगा कि आतंकी संग"नों की दिन दूनी-रात चौगुनी की तर्ज पर विकास हुआ है। संयुक्त अरब अमीरात ने भी 83 आतंकी संग"नों की सूची जारी की थी और ऐसी ही सूची अमेरिका भी जारी कर चुका है। देखा जाए तो भारत की जुबान पर भी दर्जनों ऐसे आतंकी संग"नों का नाम दर्ज है जिसके चलते वह दशकों से लहुलूहान होता रहा है। जद्दोजहद का विषय यह है कि इतनी बड़ी संख्या में पनप रहे आतंकियों को खाद-पानी कौन दे रहा है। जाहिर है दर्जनों संग"नों की सिंचाई तो पाकिस्तान ही कर रहा है और खूनखराबा के लिए भारत की जमीन पर इन्हें उतारता रहा है। आतंकवाद पर आंतरिक और बाह्य विमर्श भी समय के साथ हुए है। आतंकवाद से लड़ने वाला हमारा कानून अभी भी इतना सख्त नहीं है जितना कि अमेरिका और इंग्लैंड का है। सभी जानते हैं कि अमेरिका में वर्ष 2001 में एक आतंकी हमला हुआ था जिसे 9/11 की संज्ञा दी जाती है। इस हमले के मास्टरमाइंड अलकायदा का ओसामा बिन लादेन था जिसके खात्मे के लिए अमेरिका ने न केवल अफगानिस्तान की पूरी जमीन खोद डाली बल्कि उसे ढूंढने का सिलसिला तब तक जारी रखा जब तक उसका खात्मा नहीं कर दिया। गौरतलब है कि पाकिस्तान के एबटाबाद में छावनी इलाके के पास ओसामा बिन लादेन को 2011 में अमेरिका ने नेस्तानाबूद किया था और इसे समाप्त करने में अमेरिका का इतना धन व्यय हुआ था जितना कि भारत का एक वर्ष का बजट होता है।
बीते 7 से 8 जुलाई के बीच जर्मनी हैम्बर्ग में जी-20 की बै"क हुई जिसमें आतंक का मुद्दा भी छाया रहा इसके समाप्ति के महज़ दो दिन ही बीते थे कि भारत इसकी जद में आ गया। अमरनाथ यात्रा पर हुए आतंकी हमले से यह भी साफ हो गया कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम में मनमानी नहीं चलेगी। कहा तो यह भी जा रहा है कि हमले की शिकार बस यात्रा के लिए पंजीकृत नहीं थी पर सवाल यह भी है कि तमाम चैक पोस्टों को पार कर बस दर्शन स्थल तक कैसे पहुंच गई। फिलहाल बहस इस बात की होनी चाहिए कि बरसों से आतंक सहने वाला भारत महज लेखा पपत्र ही तैयार करेगा या इसकी ऑडिटिंग भी करेगा। जाहिर है आतंकी घटनाओं की फेहरिस्त से ही काम नहीं चलेगा। पाकिस्तान की हिमाकत पर इस पकार की सादगी वाली परत चढ़ा देने से भी काम नहीं चलेगा। आतकी घटनाओं का लेखा भी हो और इसका परीक्षण भी होना चाहिए। पाकिस्तान और आतंकवाद का रिश्ता पाकिस्तान जितना ही पुराना है। कश्मीर में पाकिस्तानी घुसपै" के मामले 1948 से बदस्तूर अब तक जारी है। आतंक के दर्द के चलते ही 75 हजार से अधिक कश्मीरी पंडित परिवारों को घाटी से विस्थापित होना पड़ा और 70 हजार लोग ढाई दशकों में आतंकियों की भेंट चढ़ गए। आंकड़े यह बताते हैं कि 21 हजार से अधिक आतंकी इतने ही समय में सुरक्षाकर्मियों के हाथों मारे गए हैं जबकि 5 हजार से अधिक सुरक्षाकर्मी भी शहीद हुए। दो टूक तो यह भी है कि आतंक की अपनी एक पवृत्ति होती है जिसमें बंदूक हर पश्न पर होती है तो उत्तर भी उसी पश्न के अनुपात में होना चाहिए इससे कम कुछ नहीं।
(लेखक प्रयास आईएएस स्टडी सर्पिल, देहरादून के निदेशक हैं।)
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