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कश्मीर समस्या क्यों खत्म होने का नाम नहीं ले रही

👤 Veer Arjun Desk | Updated on:16 July 2017 7:32 PM GMT

कश्मीर समस्या क्यों खत्म होने का नाम नहीं ले रही

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आदित्य नरेन्द्र
आतंकियों द्वारा गुजरात के अमरनाथ यात्रियों की बस पर की गई फायरिंग के दौरान सात लोगों की मौत और 19 श्रद्धालुओं के घायल होने के बाद कश्मीर एक बार फिर मीडिया की सुर्खियों में है। इससे पहले भी इस वार्षिक तीर्थयात्रा पर 2001 में हमला किया जा चुका है जिसमें 13 तीर्थयात्री मारे गए थे। तीर्थयात्रियों पर यह हमला उसी कश्मीर समस्या की देन है जो पिछले कई दशकों से खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। इस आतंकी हमले को एक साधारण हमला मानकर नजरंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि अमरनाथ यात्रा कश्मीरियों के एक बहुत बड़े वर्ग की आमदनी का स्रोत है। इसी के सहारे उनके सालभर की गुजर-बसर होती है। यदि यात्रा के अंत में ऐसी वारदात होती तो उन्हें ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। एक तो तीर्थयात्रियों की घटती संख्या और दूसरे यात्रा की शुरुआत में हुए इस हमले ने उन्हें अंदर तक हिलाकर रख दिया है। दिखावे के लिए ही सही अलगाववादी नेताओं तक ने इसकी निन्दा की है। हालांकि इससे स्थिति पर कोई ज्यादा फर्क पड़ने वाला नहीं है। क्योंकि कुछ दिनों के बाद कश्मीर समस्या पर निन्दा करने वाले सभी पक्ष अपने-अपने नजरिये पर लौट आएंगे।
दरअसल कश्मीर समस्या इतिहास और हमारी ऐतिहासिक गलतियों की देन है। आजादी के बाद से इसमें कई नए आयाम जुड़ चुके हैं। उदाहरण के लिए 1947-48 में चीन को कश्मीर से कोई मतलब नहीं था लेकिन आज चीन ही वह देश है जो कश्मीर में आतंक के लिए जिम्मेदार आतंकियों को संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई से बचा रहा है। कुछ गलतियां हमारी खुद की समझ में भी रही हैं तभी तो कश्मीरियों को बाढ़ से बचाने वाले सुरक्षाबलों को उनके पत्थरों का शिकार होना पड़ रहा है। कश्मीर समस्या को सुलझाने के लिए हमें कश्मीर और कश्मीरियों को अलग करके देखना होगा। जम्मू-कश्मीर के तीन हिस्से हैं। जम्मू हिन्दू और लद्दाख बौद्ध बहुल क्षेत्र है जबकि कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं। लगभग 26 साल पहले घाटी से तीन लाख हिन्दू पंडितों को जबरन पलायन के लिए मजबूर होना पड़ा। घाटी में शुरू हुए इस आतंक का हथियार धर्म बना। हमें याद रखना होगा कि यदि कश्मीर के मुसलमान उस समय हिम्मत बटोर कर आतंकियों के आगे खड़े हो जाते तो किसी भी कश्मीरी पंडित को घाटी से जबरन पलायन करने की जरूरत नहीं पड़ती। कट्टरपंथी अपने रास्ते की हर बाधा को हटा देना चाहते थे। कश्मीर की भौगोलिक स्थिति ने इसमें उनकी सहायता की। बगल में ही पाकिस्तान और चीन ऐसी स्थिति से फायदा उठाने के लिए तैयार बैठे थे। उस समय की सरकार और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों के रवैये ने स्थिति को और विकराल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सत्ता से बेदखल होते ही हमने कई नेताओं को सुर बदलते देखा है। हुर्रियत नेताओं के पाक के साथ नापाक संबंध हमेशा शक के दायरे में रहे हैं। उनका असर श्रीनगर और उससे सटे तीन-चार जिलों में माना जाता है लेकिन उनकी हड़तालों और दूसरी कार्रवाइयों का असर पूरे राज्य पर पड़ता है। सैकड़ों युवा दिहाड़ी के पत्थरबाज बनकर रह गए हैं। आजादी और धर्म का तड़का देकर उन्हें सुरक्षाबलों और आतंकियों के बीच एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हमें याद रखना होगा कि इंसान मरते हैं लेकिन विचार नहीं। यही वजह है कि आतंकियों के जनाजों में हजारों लोगों की भीड़ जुटने लगी है। सोशल मीडिया इसमें आग में घी का काम कर रहा है। घाटी में युवा उत्तेजित हो रहे हैं। वह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि पाकिस्तान उनका इस्तेमाल कर रहा है।
कुल मिलाकर स्थिति बड़ी विकट हो चुकी है। राज्य की सत्ताधारी पीडीपी और भाजपा सरकार के साथ ही केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को एक साथ कई मोर्चों पर लड़ना होगा। उन्हें कश्मीर की जनता को पाकिस्तान और हुर्रियत की असलियत के बारे में बताने के साथ-साथ पाक अधिकृत कश्मीर के हाल से भी वाकिफ कराना होगा ताकि वह भारत में अपनी स्थिति को बेहतर ढंग से समझ सकें। जहां तक कश्मीर में शांति स्थापित होने का सवाल है तो घाटी के लोगों को अपनी 26 साल पहले की गई गलती को दुरुस्त करना होगा जब उनकी आंखों के सामने लाखों पंडित घाटी छोड़ गए थे और वह उन्हें चुपचाप जाते हुए देखते रहे थे। पिछले दिनों अमरनाथ यात्रियों पर आतंकी हमले के बाद भी हमने हमलावरों की सिर्फ निन्दा ही सुनी है। उसके विरोध में जनसैलाब सड़कों पर नहीं देखा। जब तक घाटी के बहुसंख्यक मुसलमान वहां फैले पाक परस्त आतंकवाद के विरोध में सड़कों पर नहीं उतरेंगे तब तक कश्मीर में शांति और खुशहाली नामुमकिन है। क्योंकि सुरक्षाबल इस समस्या को दबा तो सकते हैं पर खत्म नहीं कर सकते।

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