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हार की हार
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इन्दर सिंह नामधारी
गुजरात में अभी-अभी हुए तीन राज्यसभा के चुनावों में वहां के 44 कांग्रेसी विधायकों को सत्ताधारी पार्टी भाजपा की सेंधमारी से बचने के लिए कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरु में जाकर एक होटल में छिपना पड़ा। यह एक ऐसी घटना है जिसने भारत के लोकतंत्र को कलंकित कर दिया है। राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट को जिताने के लिए भाजपाध्यक्ष श्री अमित शाह ने ऐड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया। उनकी इस हरकत ने भारत की एक पुरानी कहावत `यदि बाड़ ही खेत को खाए तो उसे कौन बचाए' पर सोचने को मजबूर कर दिया है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस तरह की अनैतिक चुनावी लड़ाई पहले कभी शायद ही हुई हो। लगभग एक सप्ताह तक बेंगलुरु में रहने के बावजूद कांग्रेस के विधायक संख्या में तो 44 के 44 वापस चले आए लेकिन भाजपा ने बेंगलुरु में ही दो कांग्रेसी विधायकों की सेंधमारी कर ही डाली। उन दोनों कांग्रेसी विधायकों ने अपनी बदनीयती का इजहार उस समय कर दिया जब उन दोनों ने मतदान पत्र पर श्री शाह द्वारा इच्छित चिन्ह पर टिक लगाकर उसे श्री शाह को दिखा भी दिया। राज्यसभा के मतदान की संवैधानिक बाध्यता है कि कोई मतदाता चिन्ह लगाने के बाद उसको अधिकृत एजेंट के सिवाय और किसी अनाधिकृत व्यक्ति को नहीं दिखा सकता। कांग्रेस ने अपने उन दो विधायकों के मतदान को खारिज करने के लिए चुनाव आयोग का दरवाजा खटखटाया। कांग्रेस एवं भाजपा दोनों के दिग्गज नेताओं ने चुनाव आयोग के सामने अपनी-अपनी दलीलें पेश कीं लेकिन कांग्रेस के पक्ष को दमदार मानते हुए चुनाव आयोग ने उन दो कांग्रेसी विधायकों के वोटों को खारिज कर दिया। दो बागी कांग्रेसी विधायकों के वोट खारिज कर दिए जाने के बाद कांगेस के प्रत्याशी एवं सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति श्री अहमद पटेल चुनाव हारते-हारते जीत गए। शायद यही कारण रहा होगा कि श्री अहमद पटेल ने चुनाव जीतने पर पत्रकारों के सामने अपनी जीत को `सत्यमेव जयते' की संज्ञा दे डाली। श्री अहमद पटेल ने उपरोक्त बयान देकर भाजपाध्यक्ष श्री अमित शाह को असत्य का पतीक बताते हुए उन्हें कठघरे में खड़ा कर दिया है।
भारत के लोकतंत्र को यदि सफल और सार्थक बनाना है तो सत्ता में बै"ाr पार्टी को आत्ममंथन करना होगा। भाजपा का पहला कर्तव्य अनैतिक तरीके से किए जाने वाले दल-बदल को रोकना ही होना चाहिए। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि गुजरात में भाजपा द्वारा किए गए इस घृणित कारनामें से लोकतंत्र को गहरा आघात पहुंचा है लेकिन कांग्रेस के बिकाऊ विधायकों ने भी लोकतंत्र को कम शर्मसार नहीं किया है। वर्षों तक कांग्रेस में रहकर सत्ता सुख भोगने वाले विधायकों ने उस पार्टी को लात मारने में जरा भी देर नहीं लगाई। यह भारतीय लोकतंत्र की विडंबना है कि आज के जनपतिनिधि बिना सत्ता के रहना पसंद ही नहीं करते। भाजपा ने यदि विवेक और संयम से काम लिया होता तो उसके दो सदस्य आसानी से राज्यसभा में जा सकते थे लेकिन अहमद पटेल को हराने एवं अपने एक अतिरिक्त सदस्य को जीताने के लिए भाजपाध्यक्ष ने शंकर सिंह वाघेला के समधी कांग्रेसी विधायक बलवंत सिंह राजपूत को जबरन विधानसभा से त्यागपत्र दिलवाकर उसको राज्यसभा के लिए भाजपा का प्रत्याशी भी बना दिया। इसी एक असंयमित कदम से गुजरात की राज्यसभा का पूरा चुनाव इतना प्रदूषित हो गया कि कांग्रेस को अपने विधायकों को सुरक्षित रखने के लिए बेंगलुरु में शरण लेनी पड़ी। श्री अमित शाह के दल-बदलू प्रत्याशी श्री बलवंत सिंह राजपूत यदि जीत भी जाते तो मेरी दृष्टि से इसको भाजपा की नैतिक हार ही कहा जाता लेकिन श्री राजपूत का हार जाना भाजपा को दोहरी चोट पहुंचा गया है।
स्कूली जीवन में हम लोगों ने सुदर्शन जी की एक कहानी पढ़ी थी जिसका शीर्षक था `हार की जीत।' इस कहानी का संदेश आज के वातावरण में इसलिए पासंगिक लगता है क्योंकि कहानी का मुख्य पात्र खड़ग सिंह एक अपाहिज बनकर बाबा भारती का घोड़ा हथिया लेता है। धोखे से घोड़ा छीन लिए जाने के बाद बाबा भारती काफी दुखी थे क्योंकि उन्हें अपने घोड़े का उतना फिक्र नहीं था जितना एक अपाहिज व्यक्ति द्वारा किया गया विश्वासघात।
एक अपाहिज बनकर यदि खड़ग सिंह ने घोड़ा छीन लिया तो कभी भविष्य में किसी अपाहिज की सहायता के लिए कौन आगे बढ़ेगा? कहानी की समाप्ति इसलिए सुखान्तक है क्योंकि खड़ग सिंह अपने द्वारा किए गए अनैतिक कार्य पर पायश्चित करते हुए घोड़े को बाबा भारती के यहां पहुंचा देता है।
गुजरात के उपरोक्त घटनाक्रम में यदि भाजपा का तीसरा प्रत्याशी राज्यसभा के लिए जीत भी जाता तो उससे इस्तीफा दिलवाकर एवं अहमद पटेल को पुनः जितवा कर श्री अमित शाह जी अपनी गलती का परिमार्जन भी कर सकते थे लेकिन अपने प्रत्याशी के हार जाने के बाद अब श्री अमित शाह के लिए वे दरवाजे भी बंद हो गए हैं। श्री अमित शाह के तीसरे प्रत्याशी श्री बलवंत सिंह राजपूत यदि चुनाव जीत जाते तो मेरे इस लेख का शीर्षक होता `जीत की हार' लेकिन उनके प्रत्याशी के हार जाने पर मैंने अपने लेख का शीर्षक `हार की हार' कर दिया है क्योंकि भाजपा के लिए यह घटना केवल चुनावी हार ही नहीं अपितु नैतिकता की कसौटी पर दोहरी शर्मनाक हार है। भारत का मीडिया चूंकि `समरथ को नहीं दोष गोसाईं' की नीति में विश्वास करता है इसलिए उसने भाजपा के इस घृणित कदम की उतनी निन्दा नहीं की जितनी उसे करनी चाहिए थी। राजनीति में सब कुछ चलता है कहकर हम इस घटना को कमतर नहीं आंक सकते क्योंकि इस घटना ने भारत के लोकतंत्र को ही कठघरे में खड़ा कर दिया है। मेरी दृष्टि से भाजपा में आज के दिन ऐसा कोई कद्दावर नेता नहीं दिखता जो श्री नरेंद्र मोदी एवं श्री अमित शाह के किसी अवांछित कदम पर कोई टिप्पणी भी कर सके। यह स्थिति भारत के लोकतंत्र के लिए कत्तई शुभ नहीं हैं। इस आलोक में भारत के महान नीतिज्ञ चाणक्य का एक निम्नांकित नीति-सूत्र बहुत पासंगिक है,
पविचार्योत्तरं देयं सहसा
न वदेत् क्वचित।
शत्रोरपि गुणा ग्राह्या
दोषास्त्याज्या गुरोरपि।।
अर्थात किसी जवाबदेह व्यक्ति या संस्था को सुविचारित कदम उ"ाना चाहिए और अच्छाई का सबक यदि दुश्मन से भी मिले तो ग्रहण करना चाहिए तथा अपने गुरु द्वारा भी यदि कोई बुरा कदम उ"ाया गया है तो उसे अमान्य कर देना चाहिए। भाजपा के कर्णधार नेतागण क्या चाणक्य की उपरोक्त नीति का गहराई से मूल्यांकन करेंगे?
(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)
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