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आजादी की चिंगारी भड़काई मंगल पांडे ने

👤 admin5 | Updated on:14 Aug 2017 3:16 PM GMT
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दिनेश कपूर

अंग्रेज आए 1601 में व्यापारी बनकर। तब जहांगीर बादशाह थे। 1601 से 1757 तक व्यापार करते-करते समझ गए कि राजनीतिक ताकत हो तो क्या बात है। व्यापार पर पूरा काबू हो जाएगा। हिन्दुस्तान की `एwपल-पाई' में उंगलियां गढ़ाए पुर्तगाली, स्पेनिश और फ्रैंच पहले से ही वैस्ट कोस्ट में उछल-कूद कर रहे थे। व्यापार तो कर रहे थे धर्म-परिवर्तन भी करने लगे थे। उसी `एwपल-पाई' में अंग्रेजों ने भी अपनी उंगलियां गड़ा दीं।
1757 में बंगाल के नवाब शिराज-उद-दौला, अपने वजीर मीर जाफर की वजह से अंग्रेजों से हारे और अंग्रेज व्यापारी हिन्दुस्तान के राजा, रजवाड़ों की राजनीति में उछलकूद कर सत्ताधारी बनने लगे। 1857 आते न आते उनके जुल्म अपनी सीमा लांघने लगे थे। हिन्दुस्तानी, जैसे कि हम हैं, सब कुछ धैर्यपूर्वक, किसी पभु के चमत्कार की पतीक्षा में, सब सह रहे थे। इतनी बड़ी अंग्रेजी ताकत से कौन टक्कर ले? यह तो राजा ही कर सकते थे और राजा अपने मद्-विलास में डूबे थे। पर अपनी ताकत के अहंकार में चूर अंग्रेज वर्ष 1857 में एक गंभीर चूक कर बै"s। उन्होंने राजों-रजवाड़ों को तो अपने कब्जे में कर लिया था परवह हिन्दुस्तानी जनता को नहीं समझ सके। हिन्दुस्तानी-चाहे मुस्लिम हो चाहे हिन्दू-सब कुछ सह सकते थे बस अपने धर्म या मजहब का अपमान नहीं सहन कर सकते थे। डर को अगर कोई चीज दबा सकती है तो वह है गुस्सा और वह गुस्से में थे, बहुत गुस्से में।
हुआ यूं कि 1857 वर्ष के आरंभ में एक अफवाह उड़नी शुरू हुई कि अंग्रेज एक नई कारतूस ला रहे हैं अपनी एनफील्ड 5 राइफल के लिए। यह कारतूस एक `वायल' के आकार की एक पोटली-सी थी जिसके एक सिरे को दांत से काटना पड़ता था ताकि उसमें भरा बारूद बंदूक की नली में भरा जा सके और दागा जा सके। काटने में आसानी हो इसलिए उस वायलनुमा पोटली के सिरे में चिकनाई लगाई जाती थी। यह चिकनाई सुअर तथा गाय की चर्बी से बनाई जाती थी। चूंकि सुअर मुसलमानों के लिए हराम है और गाय हिन्दुओं के लिए पवित्र है इसलिए दोनों धर्म के लोगों को इस पर एतराज भी था और गुस्सा भी। आश्चर्य तो यह कि इतने चालाक और मक्कार अंग्रेज ऐसी गलती कर कैसे गए। एक साथ हिन्दू और मुसलमानों से दुश्मनी? बात फैली, गुस्सा भड़का और भड़कता ही गया।
एक कहावत के अनुसार बड़ी से बड़ी यात्रा का आरंभ एक छोटे से कदम से होता है। उसी तरह एक बड़ी लड़ाई का आरंभ एक छोटी-सी गोली से भी हो सकता है जो चाहे किसी पुरानी सी बंदूक से भी दागी गई हो।
वह 29 मार्च 1857 का दिन था और स्थान था बैरकपुर जो कलकत्ता के पास है। उस दिन ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल नेटिव इंफेंट्री रेजीमेंट के एक सिपाही ने अपनी आदिम बंदूक एनफील्ड-5 से एक गोली अपनी रेजीमेंट के लेफ्टिनेंट बॉ पर दागी थी। यह हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के लिए हुए संग्राम की पहली गोली थी जिसने अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी आजादी का बिगुल बजा दिया था। उस सिपाही का नाम थाöमंगल पांडे।
मंगल पांडे उच्च ब्राह्मण कुल में 19 जुलाई 1827 को पैदा हुआ था। उसका गांव नागवा, बलिया जिले में पड़ता था जो उत्तर पदेश में है। वह 1849 में बंगाल फौज में बतौर सिपाही भर्ती हुआ था। अंग्रेज शासक थे और उनके लिए अनपढ़ भारतीय कीड़े-मकौड़ों से अधिक कुछ न थे। जब भी उन्होंने हिन्दू, मुस्लिम या किसी और धर्म की कद्र की वह केवल अपने स्वार्थ के लिए की, हिन्दुओं और मुसलमानों में फूट और लड़ाई करवाने के लिए की। जब उनसे पूछा गया तो उनके मिलिट्री ऑफिसर्स ने इस बात से इन्कार कर दिया और उन्हें हुक्म दिया कि वे उस कारतूस को इस्तेमाल करें। चूंकि कंपनी के हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने उस पारसी की फैक्ट्री में गाय और सुअर की चर्बी खौलते देख ली थी, उन्होंने अपने ऑफिसर्स के आश्वासन पर विश्वास नहीं किया। लेकिन वह क्या कर सकते थे। गुस्से में उबल रहे थे और समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। अपनी 8 साल की सिपहसलारी में मंगल पांडे यह तो समझ गया था कि अंग्रेज हिन्दुस्तान की और इसके लोगों की कद्र नहीं करते। परवह भी नहीं समझ पा रहा था कि लड़े तो कैसे लड़े इतने ताकतवर दुश्मन से। कुछ कहते हैं कि हिम्मत जुटाने के लिए उसने अफीम भी ली और पहुंच गया अंग्रेजी शस्त्रागार के सामने। तब उसकी आयु केवल 29 वर्ष की थी। उन दिनों अफीम का पचलन सामान्य बात थी। इतिहास में ऐसे कई पमाण हैं जब राजपूत योद्धा अपनी अंतिम लड़ाई लड़ने अफीम खाकर निकलते थे ताकि पीड़ा का अहसास कम हो और वो एक सीमा तक भयमुक्त हो रहें। गुलामी चुभती तो सभी को होगी पर कोई एक ही होता है ऐसा दीवाना जो इसे चुनौती देने के लिए तैयार होता है। कुढ़न तो मन में कब से सुलग रही थी, इस पसंग ने उसे हवा दे दी। गुस्साए मंगल पांडे कंपनी के शस्त्रागार पहुंचा और उसने अपने साथियों को कैंप से बाहर आने के लिए ललकारा।
इतने में लैफ्टिनेंट बॉ आ गया। मंगल पांडे ने कसम खाई थी कि जो पहला अंग्रेज उसे दिखेगा वह उसे गोली मार देगा। उसने उस अंग्रेज बॉ पर गोली दाग दी। गोली उसके घोड़े को लगी और वह जमीन पर गिर कर तड़पने लगा। आस पास सिपाही इकट्ठे हो गए थे। मंगल ने उनसे कहा कि देखो ये अंग्रेज कोई हौव्वा नहीं हैं, इन्हें भी मारा जा सकता है। उसने उस अंग्रेज को "ाsकर मारी ताकि सैनिकों में उत्साह जागे। इतने में उस अंग्रेज अफसर का सहायक सार्जेंट मेजर ह्यूसन आ गया और उसने वहां मौजूद जमादार ईश्वरी पसाद को हुक्म दिया कि वो मंगल को पकड़ ले। पर ईश्वरी पसाद ने कहा कि उसके साथी चले गये हैं और मंगल उससे अकेला नहीं संभलेगा। उसके इस बहाने पर बाद में उसे फांसी का दंड दिया जाएगा। मेजर ह्यूसन ने मंगल पर गोली दाग दी। मंगल बच गया पर घायल हो गया और उसने जवाब में उस अंग्रेज सार्जेंट मेजर ह्यूसन पर अपनी बंदूक से वार किया और वो भी लेफ्टिनेंट बॉ के साथ जमीन पर गिर गया।
अब नजारा देखिए। दो अंग्रेज उच्च अधिकारी जमीन पर पड़े तड़प रहे हैं। वह अंग्रेज जिनकी मृकुटि तन जाती थी तो सब घबरा जाते थे। किसी गांव में अगर एक अंग्रेज घोड़े पर सवार होकर चला जाता था तो सारे गांव में दहशत फैल जाती थी। और वही अंग्रेज जमीन पर लहू से लथपथ पड़े हुए थे। तो क्या इसका अर्थ था कि अंग्रेज अपराजेय नहीं हैं? क्या उन्हें भी मारा पीटा जा सकता था जैसे मंगल पांडे ने कर दिखाया था? शोर, कोलाहल और गोलियों की आवाजें सुनकर कैंप के सारे सिपाही एकत्रित हो गए थे और अभी तक भौंचक खड़े तमाशा देख रहे थे। उनके सामने अकल्पनीय घट रहा था। यह ऐसा ही था जैसे राम ने ताड़का का वध किया था। ताड़का का खौफ था, डर था जिसे राम ने लोगों के दिलों से दूर किया था। कैंप के सैनिक देख रहे थे कि मंगल पांडे उन अंग्रेजों को "ाsकर मार रहा था। उसकी देखादेखी, कुछ सिपाहियों की हिम्मत बंधी और उन्होनें भी उन्हें "ाsकर मारी। इस अविश्वसनीय दृश्य को देखते हुए स्तब्ध सैनिक अब जाग रहे थे?
इतने में शेख पल्टू नाम के एक सिपाही ने मंगल पांडे को पी" से जकड़ लिया और उसे उन पर वार करने से रोका। शेख पल्टू, मंगल पांडे को पी" से जकड़े अपने सिपाही साथियों से चिल्ला-चिल्लाकर कह रहा था कि वे अंग्रेजों की सहायता के लिए आगे आएं और मंगल पांडे को नियंत्रित करने में उसकी सहायता करें। पर सिपाही उत्तेजित होकर पल्टू को ही गालियां देने लगे और पत्थर लेकर दौड़े। घबराकर पल्टू ने मंगल को छोड़ दिया। पर अब तकवे दोनों घायल अंग्रेज संभलकर उ" खड़े हुए। पर सिपाहियों की उस उग्र, उत्तेजित भीड़ को देखकर भागने लगे। उनके पीछे भागा पल्टू। अब कैंप में बै"s जनरल हियरसे को खबर लगी। वो फौरन अपने दोनों अफसर बेटों के साथ हथियारों से लैस होकर उस मैदान में पहुंचा जहां यह नाटक खेला जा रहा था। वहां पहुंचते ही उसने एक नजर में सारी स्थिति भांप ली। उसने चिल्लाकर कहा कि सब उसके पीछे आएं और मंगल पांडे को मार दें। उसने धमकी दी कि जो भी पहला सिपाही आदेश का पालन नहीं करता दिखाई देगा, उसे वह गोली मार देगा।
सदियों की गुलामी और विवश, लाचार अंग्रेजों से डरा मस्तिस्क! सिपाही डरे से जनरल हिअरसे के पीछे हो लिए। उन सबको आते देख मंगल पांडे को लगा कि अब उसकी मृत्यु निश्चित है। वह मरने जा रहा है, यह बात तो उसे तभी पता थी जब सह सिर पर कफन बांधकर 29 मार्च 1857 को घर से निकला था। अब जब उसने देखा कि अंग्रेज उसे पकड़ लेंगे- जो वह नहीं चाहता था- उसने अपनी `मस्कट'-अपनी बंदूक-की नली अपने सीने पर रखी और पैर के अंगू"s से घोड़ा दबा दिया। बारूद उसके सीने पर फटा और उसकी जैकेट में आग लग गई, परवह बच गया। उसे पकड़कर उस पर कोर्ट मार्शल लगाया गया और उसे फांसी की सजा सुनाई गई। फांसी का दिन तय हुआ 18 अपैल पर उस दिन से पहले ही 8 अपैल को उसे फांसी दे दी गई। अंग्रेजों का डर था कहीं सिपाही भड़क ना उ"s, कहीं विद्रोह न हो जाए।
पर चिंगारी तो भड़क चुकी थी। मंगल पांडे की एक बात मनोवैज्ञानिक असर डाल चुकी थी। उसने सिपाहियो को दिखाया था कि अंग्रेज `सुपरमैन' नहीं थे, उन्हें भी मारा जा सकता था। जिन्हें देखकर वो थर-थर कांपते थे। जिनके हुक्म को आंख मूंदकर मानने को विवश थे, उनके सीने में उसका यह साहस घर कर गया था। और इस तरह धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि अंग्रेज अजेय नहीं हैं। दिल्ली और अवध में भी यह आग भड़क उ"ाr।

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