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साझी नहीं विपक्ष की बासी विरासत

👤 admin5 | Updated on:18 Aug 2017 6:19 PM GMT
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री

विपक्षी पार्टियों का जमावड़ा बड़े अंर्तद्वंद्व से गुजर रहा है। शरद यादव के साझी विरासत बचाओ सम्मेलन में यही त्रासदी दिखाई दी। नामकरण से लग रहा था कि इसमें कोई बड़ा वैचारिक धमाका होने वाला है। साझी विरासत के रूप देश की गौरवपूर्ण सामाजिक व्यवस्था पर चर्चा होगी। यह भी सोचा गया कि इस विरासत को बचाने के लिए कोई नया पस्ताव आयेगा। लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। तीन वर्षों से जो बातें चल रही हैं, वही यहां भी दोहराई गई। लेकिन ये तकदीर भी उनकी कमजोरी को छिपा नहीं सकी।
साझी विरासत वस्तुतः बासी विरासत जैसी थी। इससे कई तथ्य उजागर हुए। पहली बात यह कि विपक्ष की हताशा सामने आ गई। सभी ने एक स्वर में भाजपा के मुकाबले के लिए एकजुटता का राग अलापा। इसका सीधा तात्पर्य है कि इनमें से किसी पार्टी में अब अकेले चलने की क्षमता नहीं रही। दूसरी बात यह है कि जमावड़े में सर्वमान्य नेतृत्व का अभाव है। सभी नेता अपने-अपने लिए संभावना तलाश रहे हैं। शरद यादव भी इसी कवायद में लगे हैं। वह लालू यादव के झांसे में न आते तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनकी ताजपोशी तय थी। शरद के सामने नई समस्या आ गई है। उनका अपना जनाधार नहीं है। संसद में पहुंचने के लिए उन्हें किसी न किसी के सहारे की जरूरत हमेशा रही है। इस समय भी वह नीतीश कुमार की मेहरबानी से राज्यसभा में है। शरद अपनी स्थिति देख लें। बिहार में जद(यू) के सभी विधायक नीतीश कुमार के साथ है। अभी तीन दिन पहले शरद बिहार की यात्रा से लौटे हैं। किसी एक वर्तमान विधायक ने उनसे मिलने की जरूरत नहीं समझी। यहां तक की जद(यू) के गिने चुने कार्यकर्ताओं के अलावा कोई उनके साथ नहीं था। राजद के सहयोग से शरद ने लाज बचाई। इसी के साथ शरद यादव के सामने समस्या उत्पन्न हुई है। नीतीश कुमार से अलग होने के बाद शरद का आधार दरक गया है। उनकी समस्या यहीं तक सीमित नहीं है। लालू यादव ने अपनी पार्टी की विरासत बेटे तेजस्वी को सौंप दी। कांग्रेस में सोनिया गांधी की सक्रियता कम हुई है। वहां राहुल गांधी अघोषित रूप से अध्यक्ष की भूमिका में हैं। शरद को इसी कारण अपने राजनीतिक भविष्य की चिंता हो रही है। उन्हें अब अपनी वरिष्ठता को किनारे रखते हुए तेजस्वी और राहुल के पीछे चलना होगा। अपनी अहमियत दिखाने के लिए उन्होंने साझी विरासत बचाओ सम्मेलन आयोजित किया। इसी तरह शरद यादव अपना नेतृत्व आगे करने का पयास कर रह रहे थे। इसके लिए वह नया शब्द तलाश करके लाए थे। साझी विरासत में तुष्टिकरण, पश्चिम बंगाल, केरल की घटनाएं नदारद थीं। जिन साथियों के साथ शरद यादव अपनी विरासत बचाने का पयास कर रहे हैं। उनमें से कांग्रेस तो पूरी तरह से टूट गई है। आज कांग्रेस के पास उत्तर भारत में पंजाब और हिमाचल फ्रदेश के सिवाय कोई राज्य नहीं बचा है, जहां वो सत्ता में हो। जो कांग्रेस अपनी सियासी जमीन बचाने में खुद नाकाम है, वो शरद यादव को कितना मजबूत कर सकती है। यह सब प्रश्न उठेंगे। शरद ने यह नहीं बताया कि साझी विरासत को खतरा कहां उत्पन्न हुआ है। भारत की साझी विरासत शरद यादव, राहुल, लालू, मनमोहन सिंह, अखिलेश आदि की वजह से नहीं है। यह भारतीय सभ्यता-संस्कृति का पभाव है। इसे कुछ अराजक तत्व समाप्त नहीं कर सकते। ऐसी घटनाएं कानून व्यवस्था की समस्या है। इससे विरासत पर कोई असर नहीं पड़ा है। हमारा समाज आज भी पहले जैसा है। शरद अपनी सीट बचा लें इसी की चिन्ता करें। साझी विरासत में उनकी भूमिका नहीं हो सकती।
यहां जो भाषण हुए, वह भी विपक्ष की बासी विरासत से ज्यादा नहीं था। राहुल गांधी अपने पुराने अंदाज में थे। कहा भाजपा जीत नहीं सकती, इसलिए अपने लोगों को विभिन्न संस्थाओं में तैनात कर रही है। राहुल बताएं कि उनकी सरकार किसे तैनात करती थी। वह इनके बल पर जीत कर क्यों नहीं आ गए। विपक्ष पूरी तरह से हारा हुआ नजर आ रहा है। इस कार्यक्रम के जरिये शरद ने अपनी सियासी ताकत जरूर पदर्शन करने के पयास है। लेकिन शरद जिन नेताओं और दलों के सहारे शरद यादव अपनी सियासी ताकत जुटाने को तैयार हैं। उनके पैरों तले से पहले ही सियासी जमीन खिसक चुकी है। शरद यादव का पयास कितना रंग लाएगा। भविष्य में विपक्ष की एकता को बरकरार रख सकते हैं। यह सभी प्रश्न भविष्य के गर्त में हैं। फिलहाल वर्तमान का ग"बंधन एनडीए से लड़ाई जीतने में सक्षम नहीं दिखाई दे रहा है।
(लेखक विद्यांत हिन्दू पीजी कॉलेज में राजनीति के एसोसिएट पोफेसर हैं।)

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