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गोली की बोली पर ठिठोली उचित नहीं

👤 admin5 | Updated on:19 Aug 2017 5:25 PM GMT
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इन्दर सिंह नामधारी

भारत, भूटान एवं चीन के ट्राई जंक्शन डोकलाम में भारत और चीन की सेनाएं पिछले लगभग तीन महीनों से आमने-सामने खड़ी हैं। चीन के सैनिक पवक्तागण एवं चीन का मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स लगातार आग उगल रहे हैं। चीन की ओर से न जाने कितनी बार भारत को धमकियां दी जा चुकी हैं तथा भारत को वर्ष 1962 की लड़ाई को भी याद कराया जा रहा है। यह ज्ञातव्य है कि वर्ष 1962 में चीन द्वारा भारत को अपमानजनक शिकस्त मिली थी। तत्कालीन पधानमंत्री स्वर्गीय जवाहर लाल नेहरू इस हार के सदमें को सह नहीं पाए थे जिसके चलते मई 1964 में उनका देहांत हो गया था।
चीन ने अब डोकलाम को लेकर दूसरी रणनीति भी अपना ली है जिसके तहत उसने दिनांक 17.08.2017 को जम्मू-कश्मीर के लद्दाख में अपने सैनिको से नियंत्रण रेखा का उल्लंघन करवाया जिसके चलते भारत और चीन की सेना में पत्थरबाजी हुई और भारत एवं चीन दोनों के दो-दो सैनिक घायल भी हो गये हैं। चीन लगातार लड़ाई का बहाना खोज रहा है तथा गोली की बोली बोल रहा है लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि भारत का मीडिया और सरकार दोनों इस धमकी को बड़े हल्के तरीके से ले रहे हैं। इस वातावरण में यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि गोली की बोली पर "ि"ाsली करना उचित नहीं होता। चीन ने जब से डोकलाम को लेकर पहली बार भारत को धमकाया था तो भारत के रक्षामंत्री श्री अरुण जेटली ने चीन को जवाब देते हुए कहा था कि आज का भारत वर्ष 1962 का भारत नहीं है।
जेटली जी के बयान पर नहले पर दहला मारते हुए चीन ने भी कह डाला है कि चीन भी अब वर्ष 1962 का चीन नहीं है। चीन के इस कथन का सीधा मतलब था कि आज का चीन वर्ष 1962 से काफी ताकतवर हो चुका है। अभी-अभी जब चीन की सेना ने लद्दाख में एलओसी का उल्लंघन किया तो पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर अरुण जेटली ने इस घटना को मामूली बताते हुए टिप्पणी करने से भी इन्कार कर दिया। भारत के मीडिया ने तो गजब का रुख अख्तियार कर रखा है। कई चैनल तो चीन की खिल्ली तक उड़ा रहे हैं। मुझे उस समय हैरत हुई जब मैंने रजत शर्मा जैसे अनुभवी पत्रकार की चैनल इंडिया टीवी पर उस पसारण को देखा जिसमें चीन के सैनिकों, टैंकों एवं हेलीकॉप्टरों को नकारा बताते हुए मजाक उड़ाया गया है।
यक्ष पश्न अब यह उ"ता है कि भारत सरकार एवं उसके मीडिया ने आखिर इस तरह का हवा-हवाई रुख क्यों अपना रखा है? चीन के मीडिया ने तो यहां तक लिख दिया है कि भारत अमेरिका की संभावित मदद पर जरूरत से ज्यादा इतरा रहा है।
इस परिस्थिति में अब मोदी जी एवं डोनाल्ड ट्रंप ही बता सकते हैं कि चीन के साथ लड़ाई होने पर अमेरिका भारत को कौन-सी मदद देगा?
चीन के रवैये से यह स्पष्ट हो चुका है कि वह भारत के साथ कोई न कोई बदतमीजी जरूर करेगा। यह भी हकीकत है कि चीन आज के दिन अपनी सैनिक हैसियत को पचा नहीं पा रहा है और शायद यही कारण है कि उसने न केवल वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान जैसे अपने पड़ोसी देशों अपितु जापान एवं अमेरिका तक से पंगा ले लिया है। ब्लैक चाइना समुद्र को लेकर चीन के एकाधिकार से सभी पड़ोसी देश उससे काफी नाराज हैं। इस आलोक में संभव है ट्रंप ने भारत को मदद देने का आश्वासन दिया हो लेकिन भारत को भी चाहिए कि वह अपने आपको चीन से होने वाली संभावित टकराहट के लिए तैयार रखे। भारत के रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग चीन में अगले वर्ष 2018 में होने वाले कम्युनिस्ट पार्टी के नेता के चुनाव में लोकपियता पाने के लिए ही भारत से पंगा ले रहे हैं। संभव है कि उनका अनुमान सही हो लेकिन इस संवेदनशील मुद्दे पर भारत चुपचाप नहीं बै" सकता।
इस पृष्ठभूमि में भारत की सत्ता में बै"ाr भाजपा की सरकार का पहला कर्तव्य बनता है कि वह देश की एकता को अधिक से अधिक मजबूत बनाए। युद्ध तो सेना ही लड़ती है लेकिन देश की जनता की एकता की भावना एवं पतिबद्धता सेना का मनोबल बढ़ा देती है। ऐसे नाजुक समय पर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर पदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को क्या यह बयान देना चाहिए था कि जब मुसलमान सड़को पर नमाज पढ़ लेते हैं तो थानों में जन्माष्टमी क्यों नहीं मनाई जाएगी? मैं नहीं समझता कि भारत के किसी थाना के अंदर जन्माष्टमी या होली मनाने पर कभी पाबंदी रही हो लेकिन योगी जी द्वारा जन्माष्टमी के नाम पर नमाज का मुद्दा उ"ाना संदेह पैदा करता है। भाजपा के शासन की यह विडंबना है कि उनका कोई न कोई नेता अक्सर भड़काऊ बयान देकर सुर्खियां बटोर लेता है जिसके चलते टीवी चैनलों पर तीखी बहस शुरू हो जाया करती है।
दुर्भाग्य की बात है कि मीडिया के कई चैनल ऐसी बहस कराने में काफी दिलचस्पी लेते हैं तथा पैनल में बै"s विभिन्न धर्मावलंबी एक दूसरे के धर्मों पर तीखी पतिक्रिया तथा छींटाकशी करते पाए जाते हैं। भारत के मीडिया को चाहिए कि वह यदि सांपदायिकता की आग पर पानी नहीं डाल सकता तो कम से कम घी भी तो न डाले। मैं कतिपय उन चैनलों का नाम नहीं लिखना चाहता जिनके एंकर खुल्लम-खुल्ला सांपदायिक ध्रुवीकरण की मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त हैं। बाढ़ या मुसीबत के समय तो एक दूसरे को मारने वाले हिंसक जानवर भी एक दूसरे के बगल में बै" जाते हैं लेकिन भारतीय मीडिया के कई चैनल सांपदायिक विद्वेष बढ़ाने में अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। आश्चर्य तो तब होता है जब किसी नेता की सांपदायिक टिप्पणी पर मीडिया के चैनल हिन्दुओं की तरफ से सुब्रह्मण्यम स्वामी एवं मुसलमानों की तरफ से असदुद्दीन ओवैसी को बुलाकर सांपदायिक उन्माद की लड़ाई का लुत्फ लेते हैं। मीडिया का काम आग लगाने का नहीं अपितु आग बुझाने का होना चाहिए। इस वातावरण में मुझे वर्ष 1972 में बनी एक हिन्दी फिल्म अमर पेम का निम्नांकित गीत याद आता है जिसे लता मंगेशकर, किशोर कुमार एवं आरडी बर्मन ने मिलकर गाया है।
चिंगारी कोई भड़के
तो सावन उसे बुझाए।
सावन जो अगन लगाए
उसे कौन बुझाए?
माना तूफान के आगे नहीं
चलता जोर किसी का।
मौजों का दोष नहीं है
ये दोष है और किसी का।
मंझधार में नैया डोले,
तो मांझी पार लगाए।
मांझी जो नाव डुबाए ,
उसे कौन बचाए?
देश की सांपदायिक एकता को अक्षुण्ण रखने का दायित्व मीडिया पर होता है लेकिन मीडिया ही जब सांपदायिक लकीरें खींचने लगे तो फिर वहां एकता कहां से आएगी?
(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

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