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याद रखने होंगे गोरखपुर त्रासदी के सबक
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आदित्य नरेन्द्र
गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कालेज में 36 घंटों के अंदर 30 बच्चों की मौत ने जन स्वास्थ्य को लेकर सरकारों की नीतियों और सिस्टम की खामियों को एक बार फिर उजागर कर दिया है। इस मामले में हुई शुरुआती जांच में मेडिकल कालेज के तत्कालीन प्रधानाचार्य सहित कई वरिष्ठ अधिकारियों एवं कर्मचारियों के अलावा आक्सीजन आपूर्तिकर्ता कंपनी को एक जांच समिति ने प्रथम दृष्टया जिम्मेदार ठहराया है। इस जांच समिति में गोरखपुर के मुख्य चिकित्सा अधिकारी, अपर जिलाधिकारी नगर, अपर स्वास्थ्य निदेशक, अपर आयुक्त प्रशासन और सिटी मजिस्ट्रेट शामिल थे। इसी समिति की रिपोर्ट के हवाले से मैसर्स पुष्पा सेल्स प्राइवेट लिमिटेड को आक्सजीन की आपूर्ति बाधित करने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है।
बताया गया है कि इस मुद्दे को तत्कालीन प्रधानाचार्य डॉ. राजीव मिश्रा ने गंभीरता से नहीं लिया। पिछली 10 अगस्त को जब बच्चों की मौत का सिलसिला शुरू हुआ तब डॉ. राजीव मिश्रा गोरखपुर से बाहर थे जबकि उन्हें बाहर जाने से पहले पुष्पा सेल्स प्राइवेट लिमिटेड के साथ बकाया के मुद्दे को सुलझा लेना चाहिए था लेकिन लालफीताशाही और भ्रष्टाचार से ग्रस्त सिस्टम को शायद यह अंदाजा नहीं था कि अगले कुछ घंटों में क्या होने वाला है। इस तरह देखा जाए तो इस एक घटना ने पूरे सिस्टम की पोल खोलकर रख दी है। जब अस्पताल के पास पैसा था तो आपूर्तिकर्ता के बिलों की समय पर अदायगी क्यों नहीं की गई। इस घटना से सिस्टम का एक और चापलूसी वाला चेहरा सामने आया है। घटना से पहले मुख्यमंत्री योगी के गोरखपुर दौरे के दौरान अधिकारियों ने उन्हें इसकी भनक तक नहीं लगने दी और सब कुछ ठीक ठाक बताकर उन्हें गुमराह किया गया। गोरखपुर मुख्यमंत्री योगी का गृह जिला है और इस घटना ने निसंदेह उनकी साख पर बट्टा लगाया है। कोई भी नागरिक यह कल्पना करके विचलित हो सकता है कि जब मुख्यमंत्री के गृह जिले के इतने बड़े अस्पताल में स्वास्थ्य सेवाओं का यह हाल है तो प्राथमिक स्तर पर गांवों में दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाएं कैसी होंगी। हालांकि योगी सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं की यह बदहाली अपनी पूर्ववर्ती सरकारों से विरासत के रूप में मिली है। किसी भी देश की बुनियादी तरक्की के लिए वहां के नागरिकों का शिक्षित और स्वस्थ होना बुनियादी शर्त है लेकिन यह दोनों क्षेत्र सरकारों की प्राथमिकताओं में जगह कम ही पाते हैं। राजनीतिक लाभ के लिए पैसा कभी मूर्तियों की भेंट चढ़ जाता है तो कभी भ्रष्टाचार की। एक गरीब नागरिक जो अपनी दो जून की रोटी भी मुश्किल से जुटा पाता है उसे बीमार पड़ने के बाद इलाज के लिए सरकारी अस्पतालों का ही सहारा होता है। जब उसके हितों को नजरअंदाज करने का प्रयास किया जाता है तो गोरखपुर हादसे जैसी घटनाएं होती हैं। देश में डाक्टरों की भारी कमी के चलते स्थिति और भी विकराल हो रही है। एक हजार लोगों पर एक डाक्टर होना चाहिए लेकिन एक डाक्टर पर 1634 लोगों के इलाज की जिम्मेदारी है। उत्तर प्रदेश में तो 51 फीसदी डाक्टरों की कमी है। कई चिकित्सा केंद्रों पर मूलभूत सुविधाएं भी मुश्किल से मिल पाती हैं। इसकी वजह यही है कि एक ओर जहां पिछली सरकारों ने स्वास्थ्य के ढांचागत विकास पर उचित ध्यान नहीं दिया वहीं दूसरी ओर इसमें लापरवाही और भ्रष्टाचार का घुन लगता रहा जिसे रोकने के लिए ईमानदार कोशिशों का भी अभाव रहा। अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों के मुकाबले हमारी स्वास्थ्य सेवाएं कहीं नहीं ठहरती। ऊपर से सरकारी डाक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस समस्या को और भी बढ़ा रही है। यह एक कल्याणकारी राज्य की मूल अवधारणा के खिलाफ है। योगी सरकार को गोरखपुर त्रासदी से सबक लेते हुए अपनी सरकार की प्राथमिकताएं तय करनी होंगी और उसमें स्वास्थ्य जैसे विषय को न केवल प्रमुख स्थान देना होगा बल्कि उसे लापरवाही और भ्रष्टाचार से दूर रखने के उपाय भी खोजने होंगे क्योंकि प्रदेश में ऐसी ही एक और घटना योगी सरकार के बेहतरीन कामों पर भी ग्रहण लगा सकती है।
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