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न जय प्रकाश आंदोलन कुछ कर पाया न ही अन्ना आंदोलन

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:14 Oct 2017 4:25 PM GMT
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डॉ. नीलम महेंद्र

वीआईपी कल्चर खत्म करने के उद्देश्य से जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा मई 2017 में वाहनों पर से लालबत्ती हटाने संबंधी आदेश जारी किया गया तो सभी ने उनके इस कदम का स्वागत किया था लेकिन एक प्रश्न रह रह कर देश के हर नागरिक के मन में उठ रहा था, कि क्या हमारे देश के नेताओं और सरकारी विभागों में एक लाल बत्ती ही है जो उन्हें `अतिविशिष्ठ' होने का दर्जा या अहसास देती है?
हाल ही में रेल मंत्री श्री पीयूष गोयल ने अपने अभूतपूर्व फैसले से 36 साल पुराने प्रोटोकॉल को खत्म करके रेलवे में मौजूद वीआईपी कल्चर पर गहरा प्रहार किया। 1981 के इस सर्पुलर को अपने नए आदेश में तत्काल प्रभाव से जब उन्होंने रद्द किया तो लोगों का अंदेशा सही साबित हुआ कि इस वीआईपी कल्चर की जड़ें बहुत गहरी हैं और इस दिशा में अभी काफी काम शेष है।
मंत्रालय के नए आदेशों के अनुसार किसी भी अधिकारी को अब कभी गुलदस्ता और उपहार भेंट नहीं दिए जाएंगे। इसके साथ ही रेल मंत्री पीयूष गोयल ने वरिष्ठ अधिकारियों से एक्सीक्यूटिव श्रेणी के बजाय स्लीपर और एसी थ्री टायर श्रेणी के डब्बों में यात्रा करने को कहा है। रेलवे में मौजूद वीआईपी कल्चर यहीं पर खत्म हो जाता तो भी ठीक था लेकिन इस अतिविशिष्ट संस्कृति की जड़ें तो और भी गहरी थीं। सरकारी वेतन प्राप्त रेलवे की नौकरी पर लगे कर्मचारी रेलवे ट्रैक के बजाय बड़े बड़े अधिकारियों के बंगलों पर अपनी ड्यूटी दे रहे थे।
लेकिन अब रेल मंत्री के ताजा आदेश से सभी आला अधिकारियों को अपने घरों में घरेलू कर्मचारियों के रूप में लगे रेलवे के समस्त स्टाफ को मुक्त करना होगा। जानकारी के अनुसार वरिष्ठ अधिकारियों के घर पर करीब 30 हजार ट्रैक मैन काम करते हैं, उन्हें अब रेलवे के काम पर वापस लौटने के लिए कहा गया है। पिछले एक माह में तकरीबन 6 से 7 हजार कर्मचारी काम पर लौट आए हैं और शीघ्र ही शेष सभी के भी ट्रैक पर अपने काम पर लौट आने की उम्मीद है।
क्या अभी भी हमें लगता है कि रेलवे में स्टाफ की कमी है?
क्या हम अभी भी ट्रैक मेंटेनेंस के अभाव में होने वाले रेल हादसों की वजह जानना चाहते हैं?
एक आम आदमी और उसकी सुरक्षा के प्रति कितने उत्तरदायी हैं ये अधिकारी इसका उत्तर जानना चाहते हैं? इस प्रकार की वीआईपी संस्कृति या फिर कुसंस्कृति केवल एक ही सरकारी विभाग तक सीमित हो ऐसा भी नहीं है।
देश के एक प्रसिद्ध अखबार के अनुसार मप्र के एक लैंड रिकॉर्ड कमिश्नर के बंगले पर 35 से ज्यादा सरकारी कर्मचारी उनका घरेलू काम करने में लगे थे जबकि इनका काम आरआई के साथ सीमांकन में मदद करना होता है। कोई आश्चर्य नहीं कि उस राज्य में सीमांकन का काफी काम लंबित है।
क्या इन अधिकारियों का यह आचरण `सरकारी काम में बाधा' की श्रेणी में नहीं आता?
भारत की नौकरशाही को ब्रिटिश शासन के समय में स्थापित किया गया था जो उस वक्त विश्व की सबसे विशाल एवं सशक्त नौकरशाही थी।
स्वतंत्र भारत की नौकरशाही का उद्देश्य देश की प्रगति, जनकल्याण, सामाजिक सुरक्षा, कानून व्यवस्था का पालन एवं सरकारी नीतियों का लाभ आमजन तक पहुंचाना था। लेकिन सत्तर अस्सी के दशक तक आते आते भारतीय नौकरशाही दुनिया की `भ्रष्टतम' में गिनी जाने लगी। अब भ्रष्टाचार, पक्षपात, अहंकार जैसे लक्षण नौकरशाही के आवश्यक गुण बनते गए।
जो कानून, मानक विधियां और जो शक्तियां इन्हें कार्यों के सफल निष्पादन के लिए दी गई थीं, अब उनका उपयोग `लालफीताशाही ' अर्थात फाइलों को रोकने के लिए, काम में विलम्ब करने के लिए किया जाने लगा। नेताओं के साथ इनके गठजोड़ ने इन्हें `वीआईपी' बना दिया।
और आज की सबसे कड़वी सच्चाई यह है कि जो लोग देश में नौकरियों की कमी का रोना रो रहे हैं वे सरकारी नौकरियों की कमी को रो रहे हैं क्योंकि प्रइवेट सेक्टर में तो कभी भी नौकरियों की कमी नहीं रही, लेकिन इन्हें वो नौकरी नहीं चाहिए जिसमें काम करने पर तनख्वाह मिले इन्हें तो वो नौकरी चाहिए जिसमें हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा ही चोखा। कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे समाज के नैतिक मूल्य इतने गिर गए हैं आज लोग अपने बच्चों को नौकरशाह बनने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, देश की सेवा अथवा उसकी प्रगति में अपना योगदान देने के लिए नहीं बल्कि अच्छी खासी तनख्वाह के अलावा मिलने वाली मुफ्त सरकारी सुविधाओं के बावजूद किसी भी प्रकार की जिम्मेदारी और जवाबदेही न होने के कारण।
आखिर पहले पांचवां वेतन आयोग फिर छठा वेतन आयोग और अब सातवां वेतन आयोग, इन सभी में सुनिश्चित किया गया कि इनके वेतन और सुविधाएं इस प्रकार की हों कि इनके ईमानदारी से काम करने में कोई रुकावट न हो लेकिन क्या इनकी जवाबदेही भी निश्चित की गई?
पहले लाल बत्ती हटाना और अब रेल मंत्री का यह कदम स्वागत योग्य है किन्तु तब तक अधूरा है जब तक हर सरकारी पद पर बैठे नेता या फिर अधिकारी की जवाबदेही तय नहीं की जाती।
इन सभी को टारगेट के रूप में काम दिए जाएं जिनमें समय सीमा का निर्धारण कठोरता हो।
तय समय सीमा में कार्य पूरा करने वाले अधिकारी को तरक्की मिले तो समय सीमा में काम न कर पाने वाले अधिकारी को डिमोशन।
कुछ ऐसे नियम इनके लिए भी तय किए जाएं ताकि जब तक वे उन नियमों का पालन नहीं करेंगे तब तक उन्हें कोई अधिकार भी न दिए जाएं।
जिस प्रकार देश के व्यापारी से सरकार हर साल असेसमेन्ट लेती है और अपने व्यापार में वो पारदर्शिता अपनाए इसकी अपेक्षा ही नहीं करती बल्कि कानूनों से सुनिश्चित भी करती है, नेताओं को भी हर पांच साल में जनता के दरबार में जाकर परीक्षा देनी पड़ती है, उसी प्रकार हर सरकारी कर्मचारी की सम्पत्ति का भी सालाना एसेसमेंट किया जाए, उनके द्वारा किए जाने वाले मासिक खर्च का उनकी मासिक आय के आधार पर आंकलन किया जाए, उनके बच्चों के देसी या विदेशी स्कूलों की फीस, उनके ब्रांडेड कपड़े और फाइव स्टार कल्चर, महंगी गाड़ियों को कौन स्पांसर कर रहा है इसकी जांच हर साल कराई जाए। कुछ पारदर्शिता की अपेक्षा सरकारी अधिकारियों से भी की जाए तो शायद वीआईपी संस्कृति का जड़ सहित नाश हो पाए।

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