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सिर्फ पटाखों पर बैन से नहीं सुलझेगी प्रदूषण की समस्या
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आदित्य नरेन्द्र
अर्जुन गोपाल सहित तीन बच्चों की नई अर्जी पर कोर्ट ने 31 अक्तूबर तक पटाखों की बिक्री पर रोक लगाने का जो फैसला दिया है उससे एक ओर जहां पटाखा व्यापारी सकते में हैं वहीं दूसरी ओर विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों को भी सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला पसंद नहीं आया है। उल्लेखनीय है कि गत 12 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने ही पटाखों की बिक्री पर दिल्ली-एनसीआर में लगे प्रतिबंध पर से रोक हटाते हुए कहा था कि दिल्ली में पटाखों के लिए बिक्री लाइसेंस पुलिस की निगरानी में दिए जाएं। इन अस्थायी लाइसेंसों को देने की संख्या भी 500 तक सीमित कर दी गई थी। लगभग सवा महीने बाद दीपावली के त्यौहार को देखते हुए इसके व्यापार से जुड़े कई लोगों ने अस्थायी लाइसेंस हासिल करने के साथ-साथ कर्ज पर रकम का इंतजाम करने, दुकान-गोदाम किराये पर लेने और बिक्री में सहयोग देने के लिए लोगों को नौकरी पर रखना शुरू कर दिया। ऐसे सभी लोगों के ऊपर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कहर बनकर टूटा है। उनका कहना है कि सिर्फ पटाखों पर बैन से समस्या नहीं सुलझेगी बल्कि इससे समस्या और उलझेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण चिन्ताजनक स्तर तक पहुंच चुका है और दीपावली के दौरान होने वाली आतिशबाजी से इसमें और भी ज्यादा इजाफा होना तय था। इसी को ध्यान में रखते हुए कोर्ट का यह फैसला आया है। अपने फैसले में कोर्ट ने कहा है कि इस प्रतिबंध के जरिये वह यह पता लगाना चाहता है कि पटाखों की बिक्री पर रोक से प्रदूषण में कमी आती है या नहीं। दरअसल पिछले साल दीपावली पर दिल्ली-एनसीआर में करीब 10 दिनों तक हवा इतनी प्रदूषित हो गई थी कि सांस लेना मुश्किल हो गया था। इसके लिए दीपावली पर हुई आतिशबाजी को बड़ी वजह बताया गया। रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली-एनसीआर के प्रदूषण में 40 फीसदी भागीदारी एनसीआर के बाहर से आने वाले स्मॉग के चलते है जो पराली जलाने, डोमेस्टिक बायोमास, इंडस्ट्री और पॉवर प्लांट आदि के धुएं की वजह से है। दिल्ली-एनसीआर में होने वाले 60 फीसदी प्रदूषण में वाहनों से निकलने वाला धुआं, भवन या अन्य निर्माण कार्य के दौरान उड़ने वाली धूल, खुले में कूड़ा जलाने, डोमेस्टिक बायोमास, फैक्ट्रियों से निकलने वाला धुआं शामिल है। दिल्ली में प्रदूषण की यह स्थिति कोई रातोंरात पैदा नहीं हुई। सरकारों की अदूरदर्शितापूर्ण नीति भी इसके लिए जिम्मेदार है। सार्वजनिक वाहनों की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की बजाय निजी वाहनों की खरीद को प्रोत्साहन दिया गया, निर्माण कार्यों और अन्य दूसरी तरह से होने वाले प्रदूषण को रोकने या सीमित करने की कोई फुलप्रूफ व्यवस्था नहीं की गई और सारा ठीकरा आतिशबाजी बिक्रेताओं पर फोड़ दिया गया। इससे राजधानी की हवा कब तक और कितनी साफ रहेगी यह तो बाद में ही पता चलेगा, लेकिन अदालत के आदेश में जो छिद्र है उनका फायदा उठाने वाले इससे चूकेंगे या नहीं, यह एक बड़ा सवाल है। कोर्ट ने पटाखे बेचने पर पाबंदी लगाई है न कि किसी को गिफ्ट देने या पटाखे फोड़ने पर। इसलिए यह आदेश कोर्ट की मंशा 100 फीसदी स्पष्ट नहीं करता। हां, इससे अर्थव्यवस्था को टैक्स का नुकसान होगा।
गैर-कानूनी धंधा बढ़ेगा और हजारों लोग अंशकालीन रोजगार से वंचित रह जाएंगे। धार्मिक संगठन भी इस आदेश को अपने धर्म के मामले में अड़ंगेबाजी मान रहे हैं। उनका कहना है कि कोर्ट के आदेश हिन्दू त्यौहारों से संबंधित परंपराओं जैसे जल्लीकट्टू, दही-हांडी, प्रतिमा विसर्जन और दीपावली पर आतिशबाजी पर रोक जैसे मामलों ही क्यों सामने आते हैं। सुप्रीम कोर्ट दूसरे धर्मों की परंपराओं के दौरान होने वाले प्रदूषण पर ध्यान क्यों नहीं देता। अगर राज्य और केंद्र की सरकारें दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के स्तर को ध्यान में रखकर कोई कार्ययोजना बनाकर उस पर सख्ती से अमल करती तो स्थिति इतनी खराब नहीं होती।
हैरानी की बात तो यह है कि पिछली दीपावली पर प्रदूषण बढ़ने के बाद भी स्थिति लीपापोती वाली हो रही। यदि कोर्ट में इस संबंध में याचिका न डाली गई होती तो क्या स्थिति होती।
कोर्ट के एक ही महीने में दिए गए दो अलग-अलग आदेशों से पटाखा व्यापारी खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं। उनको हुए नुकसान की आखिरकार कौन जिम्मेदारी लेगा और उनकी क्षतिपूर्ति कैसे होगी। क्या यह बेहतर नहीं होता कि सरकार समय रहते जागरुकता अभियान चलाकर लोगों को प्रदूषण से होने वाली समस्याएं और उनका निदान बताकर जागरूक करती जिससे लोग खुद ही इसका विकल्प ढूंढने का प्रयास करते। यदि ऐसा होता तो निश्चित रूप से इस अप्रिय स्थिति से बचा जा सकता था।
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