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एक बहादुर पत्रकार

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:17 Oct 2017 4:02 PM GMT
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कुलदीप नैयर

कुछ दिन पहले हुई यह शोकसभा निराशाजनक थी। सोचा था कि गौरी लंकेश की हत्या की ओर ज्यादा लोगों का ध्यान खींचने के लिए दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुई सभा में पत्रकार, खासकर वरिष्ठ पत्रकार बड़ी संख्या में आएंगे। लेकिन सिर्प 30-35 लोगों की सभा थी जिसमें पत्रकार बहुत कम थे।
वरिष्ठ पत्रकारों की आदत हो गई कि वे घर में बै"s रहते हैं और साधाररण पत्रकारों से नहीं मिलते। मैं यह समझ सकता हूं कि संपादक लोग योजना बनाने तथा अखबार के संपादन में काफी व्यस्त होते हैं। लेकिन उनका क्या जो उनसे नीचे के पदों पर होते हैं? वे इस तरह व्यवहार करते हैं जैसे वे भी उतने ही व्यस्त हैं और उनके पास ऐसी सभाओं के लिए समय नहीं है, इसके बावजूद कि ये बिरादरी से संबंधित हों। लेकिन रिटायर होने के बाद ऐसे सारे पत्रकार जमीन पर आ जाते हैं क्योंकि उनकी उपयोगिता बहुत सीमित है। वे उन बहुत सारे लोगों में से होते हैं जो कालम लिखकर अखबारों में जगह पाने की कोशिश में रहते हैं। लेकिन उनमें बहुत कम लोग ऐसा कर पाते हैं क्योंकि पा"क उन लोगों में दिलचस्पी रखते हैं जिन्होंने सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी है। ऐसे बहुत कम लोग हैं जिन्होंने झुकने से इंकार करते हुए अपना सब कुछ दे डाला है।
गौरी लंकेश उनमें से एक थी। समाज में होने वाली ज्यादतियों के खिलाफ वह एक जोरदार आवाज थी। एक पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में वह एक कन्नड़ साप्ताहिक, गौरी लंकेश पत्रिका का संपादन करती थी, जिन आदर्शों के लिए वह खड़ी रही उसकी मौत के बाद भी उन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। गौरी को अकसर धमकियां मिलती रहती थी लेकिन वह कभी डरी नहीं। जाहिर है, वह किसी भी बलिदान के लिए तैयार थी जिसमें अपनी जान को खतरे में डालना भी शामिल था। हिंदुत्व की राजनीति का मुखर होकर विरोध करने वाली गौरी की अज्ञात हमलावरों द्वारा बेंगलुरु में अपने आवास पर गोली मारकर हत्या कर दी गई। बेशक शुरू में सब जगह विरोध हुआ और पेस क्लब ऑफ इंडिया ने भी भर्त्सना की और कहा कि `एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार, जिसने विभिन्न मुद्दों के लिए आवाज उ"ाई और सदैव न्याय के पक्ष में खड़ी रही, की उनकी आवाज को खामोश करने के लिए एकदम निर्दय तरीके से हत्या कर दी गई।'
लेकिन यह पहली बार नहीं है कि ऐसे हमले हुए हैं। लोकतंत्र में कानून का शासन होना चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से आज हम भीड़ द्वारा हत्या और उत्पीड़न देख रहे हैं। अलवर, दादरी तथा उधमपुर की घटनाएं हमारी अंाखें खोलने वाली हैं। इसके अलावा सांस्कृतिक, शैक्षणिक तथा ऐतिहासिक संस्थाओं, विश्वविद्यालयों, खासकर नालंदा विश्वविद्यालय तथा नेहरू मैमोरियल म्यूजियम लाइब्रेरी पर हमले किए जा रहे हैं। गौरी की हत्या की तुलना अगस्त 2015 में हुई पत्रकार एमएम कुलबुर्गी की हत्या से की जा रही है जिनकी इसी पकार अपने घर पर गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। गौरी ने अपने एक भाषण में कुलबुर्गी की हत्या पर बजरंग दल की नेता की इस टिप्पणी का उल्लेख किया था, `हिंदु धर्म का उपहास करो और कुत्ते की मौत मरो।' उसका भी वही हाल हुआ।
वह अपने राज्य की राजनीति की भी आलोचक थी। कुछ साल पहल, उसने इस बारे में चेताया था कि कर्नाटक एक पगतिशील और सेकुलर राज्य से सांपदायिक राज्य बनने की राह पर है। उस समय राज्य में भाजपा की सत्ता थी और उनका कथन दिलचस्प और गंभीर था। उसने कहा था कि कर्नाटक में हिंदुत्व के नाम पर हमलों की संख्या बढ़ गई है और `एक सांपदायिक, जातिवादी और भ्रष्ट भाजपा सरकार के तहत इसके पतन की ओर जाने की संभावना है।'
गौरी आरएसएस, भाजपा और हिंदुत्व की शक्तियों का जमकर विरोध करती थी और उसकी हत्या नफरत की राजनीति के विरोध में उ"ने वाली आवाज को खामोश करने के लिए की गई है। दो साल के बाद भी कुलबुर्गी की हत्या की गुत्थी सुलझ नहीं पाई है। इस तरह की हत्याओं की संख्या में भयानक तरीके से बढ़ोतरी हुई है और हमें 1995 में मानवाधिकार कार्यकर्ता जसवंत सिंह खालरा की हत्या की याद दिलाती है, हमें याद दिलाती है कि आज भारत में `मेरे रास्ते चलो या गोली खाओ' वाली हालत आम हो चुकी है। एक पत्रकार के रूप में लंकेश जानती थी कि अपनी निर्भीकता के कारण उन्होंने अपने दुश्मन बना लिए हैं। एक नागरिक के रूप में भाजपा की फासीवादी और सांपदायिक राजनीति के विरोध में थी। कुछ पत्रिकाओं को दिए गए इंटरव्यू में, उसने कहा था कि उनकी `हिंदु धर्म' के आदर्शों की व्याख्या का विरोध करती हूं। मैं `हिंदु धर्म' की जाति व्यवस्था, जो अनुचित, अन्यायपूर्ण और लैंगिक भेदभाव वाली है, का विरोध करती हूं।' भाजपा के नेतृत्व में होने वाली मुस्लिम तथा अन्य अल्पसंख्यकों के कत्लेआम का सीधा विरोध करते हुए, उसने घोषणा की थी, `मैं आडवाणी की राम मंदिर यात्रा और नरेंद्र मोदी के 2002 के नरसंहार का विरोध करती हूं।' 2016 के एक इंटरव्यू में उसने यह बताया था कि किस तरह उसकी पत्रकारिता ने हिंदुत्व ब्रिगेड तथा मोदी भक्तों की आलोचना और सनकीपन को उजागर करने के कारण उसे उनके निशाने पर ला दिया है।
गौरी को पता था कि उसकी जिंदगी खतरे में है। इसके बावजूद उसने सभी धमकियों को खारिज करते हुए सत्ता का विरोध जारी रखा और एक सामाजिक कार्यकर्ता की राह अपनाती रही। अपनी साप्ताहिक `गौरी लंकेश पत्रिका' में लिखे गए अपने अंतिम लेख में उसने पुरातनपंथी शक्तियों को उपने अनोखे अंदाज में चुनौती दी। लेकिन हिंदुत्ववादी शक्तियों ने उसे कभी माफ नहीं किया। अलविदा कहने के अंदाज में, उसने लिखाöमैं जानती हूं कि आप सब परेशान हो। बिना एक शब्द कहे अचानक छोड़ जाने के लिए मैं भी नाखुश हूं। लेकिन आप ही बताएं, मैं और क्या कर सकती हूं? यह अंतिम अलगाव में मेरा क्या दोष है? इस मंगलवार की शुरुआत भी मेरे जीवन के सैकड़ों मंगलवारों की तरह हुई। लेकिन मुझे इसका जरा भी अंदाजा नहीं था कि इसका अंत मुझे आप सबसे सदा के लिए जुदा करने के रूप में होगा। हत्यारों की गोलियों के मेरी छाती के छलनी किए जाने और मेरे धरती पर गिर जाने के क्षणों तक मेरा दिमाग अखबार के अगले अंक के बारे में सोचता रहा। मैं आपके साथ अपना यह अंतिम संवाद इस विश्वास से शुरू कर रही हूं कि आप इस खतरनाक परिस्थिति को समझेंगे।
सच है गौरी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था और उसने उसका वैसा ही वर्णन किया है जैसा वास्तव में हुआ। मौत सामने खड़ी होने पर भी वह डिगी नहीं। यह पत्रकारों के लिए सबक है। कई बार, उन्हें गंभीर से गंभीर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। वे वास्तविकता की तरफ से अपनी अंाखें नहीं मूंद सकते। उनका पेशा उनसे इसी की उम्मीद करता है।
गौरी पत्रकारों की इस विरले श्रेणी की थी। उसने अपने लेखों में कहा कि अपने भारत के लिए विद्रोह में खड़ी होने के लिए वह कीमत अदा करने के लिए तैयार थी और उसे कोई अफसोस नहीं था। `मुझे एक तरह का संतोष है', यही उसने कहा था। ऐसे शब्द दुर्लभ हैं।

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