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यह ईमानदारी का प्रमाण पत्र नहीं
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
2जी स्प्रेक्ट्म के आरोपियों के बारी होने पर कांग्रेस और द्रमुक में जश्न का माहौल है। इसे ईमानदारी का प्रमाणपत्र बताया जा रहा है। जबकि यह अभियोजन पक्ष की नाकामी है। इस मसले पर यूपीए सरकार की नेकनीयत साबित नहीं होती। उसने नीलामी के सुझाव को नकार कर सरकारी खजाने को नुकसान की पटकथा तैयार की थी। इस रहस्य का खुलासा होना चाहिए था। कोर्ट ने कहा कि सात वर्षों तक सबूत का इंतजार करता रहा। जाहिर है कि इस संबंध में प्रारंभिक तीन वर्षों की कार्यवाई यूपीए के समय में हुई थी। इसका मतलब है कि उसी समय अभियोजन की बुनियाद कमजोर थी। इसे सुधारने की आवश्यकता थी। यह कार्य पर्याप्त मजबूती के साथ नहीं किया गया। अन्यथा कोर्ट को ऐसी टिप्पणी नहीं करनी पड़ती।
आरोपी भी इस प्रकार लाभान्वित न होते। न्यायपालिका प्रमाणों, सबूतों, तथ्यों के आधार पर निर्णय करती है। वह अपनी जगह पर सही है। यह उचित है कि सीबीआई ने अब अधिक तैयारी के साथ ऊपरी अदालत में अपील का फैसला लिया है। ऐसे में यह नहीं समझना चाहिए कि इस चर्चित मामले का समापन हो गया है। आगे तस्वीर बदल भी सकती है। फिलहाल यह पटियाला हाउस सीबीआई की विशेष अदालत का निर्णय है। आगे अधिक विचार की संभावना बनी रहेगी। इस अदालत ने आरोपी तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा, द्रमुक संस्थापक करुणानिधि की पुत्री कन्नीमोई सहित बाइस आरोपियों को बरी किया है। अब सीबीआई के साथ ईडी भी इस फैसले के खिलाफ दिल्ली उच्च न्यायालय में अपील दायर करेगी। लेकिन इस बार उसे पुख्ता प्रमाण उपलब्ध कराने पर विशेष ध्यान देना होगा। इसमें संदेह नहीं कि प्रमाणों के अभाव में पटियाला हाउस विशेष अदालत को तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। इसमें साफ तौर पर कहा गया कि अभियोजन पक्ष कमजोर दलील पेश कर रहा था।
विशेष सरकारी वकील और सामान्य सरकारी वकील बिना किसी तालमेल के अलग अलग दिशा में दलील पेश कर रहे थे। सीबीआई द्वारा पेश चार्जशीट का आधार गलत ढंग से दस्तावेजों को न पढ़ने का नतीजा था। चार्जशीट जांच में सामने आए गवाहों के मौखिक बयानों पर आधारित थी।
जबकि यह सभी गवाह कोर्ट में पलट गए। जाहिर है कि पटियाला हाउस सीबीआई विशेष अदालत ने अभियोजन पक्ष की लापरवाही को उजागर किया। कोर्ट के सामने जिसप्रकार तथ्य पेश किए गए, उसके आधार पर फैसला सुनाया गया। इसमें पक्ष की तकनीकी कमजोरी थी। लेकिन इसी फैसले में सुधार की संभावना भी समाहित है। यह सुधार अभियोजन को करना होगा।
मसलन कोर्ट ने कहा कि कुछ दस्तावेज गलत ढंग से पढ़े गए और कुछ दस्तावेज पढ़े ही नहीं गए। संदेश स्पष्ट है। अब अभियोजन को सभी संबंधित दस्तावेज उचित ढंग से पढ़ने होंगे। इसी प्रकार गवाहों के पलते पर कोर्ट ने टिप्पणी की। इस ओर भी अभियोजन को ध्यान देना होगा। उन्हें कोर्ट में पेश होने वाले दस्तावेजों पर हस्ताक्षर से बचने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। इसका मतलब है कि संबंधित अधिकारियों और विशेष सरकारी वकील को पता था कि उनकी तैयारी पर्याप्त नहीं थी। वह अधूरे प्रमाणों के साथ कोर्ट में पैरवी कर रहे थे। पटियाला हाउस सीबीआई विशेष अदालत का फैसला उसके समक्ष पेश दस्तावेजो पर आधारित है। इन्ही पर उसकी टिप्पणी गौरतलब है। लेकिन इसे ईमानदारी का प्रमाणपत्र नहीं कहा जा सकता। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट की पिछली टिप्पणियों को ही नजरंदाज नहीं किया जा सकता। आरोप पत्र के बाबजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संचारमंत्री राजा को हटाने से इंकार कर दिया था। इस पर सुप्रीम कोर्ट को नाराजगी व्यक्त करनी पड़ी थी। सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री से पूंछा था कि राजा अपने पद पर क्यों बने हुए है। यह अति गंभीर टिप्पणी थी।
क्योकि सुप्रीम कोर्ट जनता है कि संविधान के अनुसार किसी को मंत्रिपरिषद से हटाना प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार है। फिर भी राजा जैसे आरोपी के मंत्री बने रहने पर सुप्रीम कोर्ट को टिप्पणी करनी पड़ी थी। स्पष्ट है कि सुप्रीम कोर्ट की नजर में मामला गंभीर था। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ही एक सौ बाइस कंपनियों के लाइसेंस रद्द किए गए था। इसका सीधा मतलब था कि आवंटन में अनियमितता थी। कुछ बातों का जबाब आज तक नहीं मिला। तत्कालीन प्रधानमंत्री ने नीलामी से स्पेक्ट्रम आवंटित करने का सुझाव क्यों नकारा। यह सुझाव उनके जिम्मेदार अधिकारी ने लिखित रूप में दिया था। लेकिन इसकी जगह पहले आने वाली कंपनियों को नवाजा गया। चर्चा थी कि इसके लिए द्रमुक का मनमोहन पर दबाब था। इसके पक्ष में दो तर्प दिए गए। पहला यह कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में भी ऐसे ही आवंटन हुए थे। दूसरा यह कि सस्ते आवंटन से लोगों को कम दर पर सुविधा मिलेगी। ये दोनों तर्प निरर्थक थे। अटल बिहारी वाजपेयी के समय स्पेक्ट्रम का विषय बिल्कुल नया था। नाममात्र की कंपनिया ही इसके लिए तैयार थी। यही उपलब्ध थी। इन्हीं को आवंटन मिला। लेकिन यूपीए के समय तक स्थिति पूरी तरह बदल गई थी। अनेक कंपनिया मैदान में आ गई थी। इनके बीच जबरदस्त प्रतिस्पर्धा थी। इसलिए आवंटन की नीति को बदलना अपरिहार्य था। सरकार ने ऐसा नहीं किया। इसीलिए कैग ने कहा था कि यूपीए की इस नीति से करीब पौने दो लाख करोड़ का लाभ होता। नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐसा करके दिखा भी दिया। दूसरी बात यह कि यूपीए की आवंटन नीति से आमजन को कोई लाभ नहीं हुआ। जाहिर है कि इसके पीछे रहस्य था। इससे पर्दा हटने की संभावना समाप्त नहीं हुई है।
(लेखक विद्यांत हिन्दू पीजी कॉलेज में राजनीति के एसोसिएट पोफेसर हैं।)
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