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हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:24 Dec 2017 4:58 PM GMT
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प्रभुनाथ शुक्ल

भारत के राजनीतिक इतिहास में अटल बिहारी वाजपेयी का संपूर्ण व्यक्तित्व शिखर पुरुष के रूप में दर्ज है। दुनिया में उनकी पहचान एक कुशल राजनीतिज्ञ, प्रशासक, भाषाविद, कवि, पत्रकार व लेखक के रूप में है। संघी विचारधारा में पले-बढ़े अटल जी बड़ी उदारता के साथ अपने से ऊंचा नहीं होने दिया। राजनीति में उदारवाद और समता एवं समानता के सबसे बड़े समर्थक माने जाते हैं। विचारधारा की कीलों से कभी अपने को नहीं बांधा।
राजनीति को दलगत और स्वार्थ की वैचारिकता से अलग हटकर अपनाया और उसको जिया। जीवन में आने वाली हर विषम परिस्थितियों और चुनौतियों को स्वीकार किया। नीतिगत सिद्धांत और वैचारिकता का कभी कत्ल नहीं होने दिया। राजनीतिक जीवन के उतार चढ़ाव में उन्होंने आलोचनाओं के बाद भी अपने को संयमित और तटस्थ रखा। राजनीति में धुरविरोधी भी उनकी विचारधाराओं और कार्यशैली के कायल थे। लेकिन पोखरण जैसा आणविक परीक्षण कर तीसरी दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका के साथ दूसरे मुल्कों को भारत की शक्ति का एहसास कराया। आपातकाल के दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर में मौत के बाद सािढय राजनीति में दखल दिया। हालांकि उनके राजनीतिक मूल्यों की पहचान बाद में हुईं और भाजपा सरकार में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
संघ के संस्थापक सदस्यों में एक अटल ने 1951 में संघ की स्थापना की थी। अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म मध्यप्रदेश के ग्वालियर में 25 दिसंबर 1924 को हुआ था। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी शिक्षक थे। उनकी माता कृष्णा जी थी। वैसे वे मूलत उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के बटेश्वर गांव के रहने वाले थे। लेकिन पिता जी मध्यप्रदेश में शिक्षक थे। इसलिए उनका जन्म वहीं हुआ। लेकिन उत्तर प्रदेश से उनका राजनीतिक लगाव सबसे अधिक रहा। प्रदेश की राजधानी लखनऊ वे सांसद थे। जबकि उन्हें श्रेष्ठ सांसद और लोकमान्य तिलक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। कविताओं को लेकर उन्होंने कहा था कि मेरी कविता जंग का ऐलान है। पराजय की प्रस्तावना नहीं। वह हारे हुए सिपाही का नैराश्य-निनाद नहीं, जूझते योद्धा का जय संकल्प है। वह निराशा का स्वर नहीं, आत्मविश्वास का जयघोष है। उनकी कविताओं का संकलन 'मेरी इक्यावन कविताएं' खूब चर्चित हुई जिसमें....हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा...खास चर्चा में रही। राजनीति में संख्या बल का आंकड़ा सर्वोपरि होने से 1996 में उनकी सरकार सिर्प एक मत से गिर गई और उन्हें प्रधानमंत्री का पद त्यागना पड़ा। यह सरकार सिर्प तेरह दिन तक रही। बाद में उन्होंने प्रतिपक्ष की भूमिका निभाई। इसके बाद हुए चुनाव में वे दोबारा प्रधानमंत्री बने। संख्या बल की राजनीति में यह भारतीय इतिहास के लिए सबसे बुरा दिन था। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी विचलित नहीं हुए उन्होंने इसका मुकाबला किया। 16 मई से 01 जून 1996 और 19 मार्च से 22 मई 2004 तक वे भारत के प्रधानमंत्री रहे। 1968 से 1973 तक जनसंघ के अध्यक्ष रहे।
राजनीतिक सेवा का व्रत लेने के कारण वे आजीवन पुंवारे रहे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए आजीवन अविवाहित करने का निर्णय लिया था। अटल बिहारी वाजपेयी गैर कांग्रेसी सरकार के इतर पहले प्रधानमंत्री बने जिन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता से भाजपा को देश में शीर्ष राजनीतिक सम्मान दिलाया। दो दर्जन से अधिक राजनीतिक दलों को मिलाकर उन्होंने राजग बनाया। जिसमें 80 से अधिक मंत्री थे, जिसे जम्बो मंत्रिमंडल भी कहा गया। सरकार ने पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। उन्हीं अटल जी की देन है कि आज भाजपा नरेंद्र मोदी की अगुवाई में सरकार का नेतृत्व कर रही है। लेकिन आज यह महानायक मोदी की सुनामी में गुमनाम हो चला है।
अटल बिहारी वाजपेयी राजनीति में कभी भी आाढमकता के पोषक नहीं थे। वैचारिकता को उन्होंने हमेशा तवज्जों दिया।
राजनीति के शिखर पुरुष अटल जी मानते हैं कि राजनीति उनके मन का पहला विषय नहीं था। राजनीति से उन्हें कभी-कभी तृष्णा होती थी। लेकिन वे चाहकर भी इससे पलायित नहीं हो सकते थे। क्योंकि विपक्ष उन पर पलायन का मोहर लगा देता। वे अपने राजनैतिक दायित्वों का डटकर मुकाबला करना चाहते थे। यह उनके जीवन संघर्ष की भी खूबी रही। वे एक कुशल कवि के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। लेकिन बाद में इसकी शुरुआत पत्रकारिता से हुई। पत्रकारिता ही उनके राजनैतिक जीवन की आधारशिला बनी। उन्होंने संघ के मुखपत्र पांचजन्य, राष्ट्रधर्म और वीर अर्जुन जैसे अखबारों का संपादन किया। अपने कैरियर की शुरुआत पत्रकारिता से किया।1957 में देश की संसद में जनसंघ के सिर्प चार सदस्य थे। जिसमें एक अटल बिहारी वाजपेयी थी थे। संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए हिंदी में भाषण देने वाले अटल जी पहले भारतीय राजनीतिज्ञ थे। हिन्दी को सम्मानित करने काम विदेश की धरती पर अटल ने किया। उन्होंने सबसे पहले 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। बाद में 1957 में गोंडा की बलरामपुर सीट से जनसंघ उम्मीदवार के रूप में जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्हें मथुरा और लखनऊ से भी लड़ाया गया। लेकिन हार गए। अटल जी बीस सालों तक जनसंघ के संसदीय दल के नेता के रूप में काम किया।
इंदिरा जी के खिलाफ जब विपक्ष एक हुआ और बाद में जब देश में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो अटल जी को भारत का विदेशमंत्री बनाया गया। इस दौरान उन्होंने अपनी राजनीतिक कुशलता की छाप छोड़ी और विदेश नीति को बुलंदियों पर पहुंचाया। बाद में 1980 में वे जनता पार्टी से नाराज होकर पार्टी का दामन छोड़ दिया। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की। उसी साल उन्हें भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष की कमान सौंपी गई। इसके बाद 1986 तक उन्होंने भाजपा अध्यक्ष पद का कुशल नेतृत्व किया। इंदिरा गांधी के कार्यों की सराहना की थी। जबकि संघ उनकी विचारधाराओं का विरोध कर रहा था।
कहा जाता है कि ससंद में इंदिरा गांधी को दुर्गा की उपाधि उन्हीं की तरफ से दी गई। उन्होंने इंदिरा सरकार की तरफ से 1975 में लादे गए आपातकाल का विरोध किया। लेकिन बांग्लादेश के निर्माण में इंदिरा गांधी की भूमिका को सराहा। उनका साफ कहना था कि जिसका विरोध जरूरी था उसका विरोध किया और जिसकी प्रशंसा चाहिए थी उसे वह सम्मान मिलना चाहिए। लेकिन आज के राजनीतिक संदर्भ में यह विचार लागू नहीं होता। अब तो सिर्प आलोचना ही राजनीति का मुख्य विषय है। अटल हमेशा से समाज में समानता के पोषक थे। विदेश नीति पर उनका नजरिया साफ था। वह आर्थिक उदारीकरण एंव विदेशी मदद के विरोधी नहीं थे। लेकिन वह इमदाद देशहित के खिलाफ हो ऐसी नीति को बढ़ावा देने के वह हिमायती नहीं रहे। उन्हें विदेश नीति पर देश की अस्मिता से कोई समझौता स्वीकार नहीं था।
पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री रहे लाल बहादुर शास्त्राr जी की तरफ से दिए गए नारे जय जवान जय किसान के नारे में अलग से जय विज्ञान भी जोड़ा। देश की सामरिक सुरक्षा पर उन्हें समझौता गवारा नहीं था। वैश्विक चुनौतियों के बाद भी राजस्थान के पोखरण में 1998 पांच परमाणु परीक्षण किया। इस परीक्षण के बाद अमेरिका, आस्टेलिया और यूरोपीय देशों की तरफ से भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन उनकी दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति इन परिस्थितियों में भी उन्हें अटल स्तंभ के रूप में अडिग रखा। कारगिल उद्ध की भयावहता का भी डटकर मुकाबला किया और पाकिस्तान को धूल चटाई।
दक्षिण भारत के सालों पुराने कावेरी जल विवाद का हल निकाला। इसके बाद स्वर्णिम चतुर्भुज योजना से देश को राजमार्ग से जोड़ने के लिए कारिडोर बनाया। मुख्य मार्ग से गांवों को जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री सड़क योजना बेहतर विकास का विकल्प लेकर सामने आई। कोंकण रेल सेवा की आधारशिला उन्हीं के काल में की गई थी। भारतीय राजनीति में अटल बिहारी वाजपेयी एक अडिग, अटल और लौह स्तम्भ के रूप में आने वाली पीढ़ी को सीख देते रहेंगे। हमें उनकी नीतियों और विचारधाराओं का उपयोग देशहित में करना चाहिए। बदले राजनीतिक माहौल में भाजपा और कांग्रेस के साथ समता, समानता और उदारवादी अटल बिहारी वाजपेयी की नीतियों पर अमल करना चाहिए।

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