Home » द्रष्टीकोण » गुजरात से भाजपा के लिए संदेश

गुजरात से भाजपा के लिए संदेश

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:28 Dec 2017 2:26 PM GMT
Share Post

राजनाथ सिंह `सूर्य'

गुजरात विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को वांछित सफलता न मिलने के बावजूद बहुमत बनाए रखने की सफलतना ने यह सिद्ध कर दिया है कि पधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकपियता यथावत बनी हुई है।
22 वर्ष तक सत्ता में बने रहने तथा जातीयता का उन्मादी समीकरण बै"ाकर मंदिर परिक्रमा से 2002 के बाद के अभियानों का कलंक धोने के पयास के बावजूद कांग्रेस का बहुमत न पाप्त करना और पायः सभी नेताओं के पराजित हो जाने से यह समझ में आना चाहिए कि यदि नरेंद्र मोदी जैसे नेतृत्व का मुकाबला करना है तो वैसा ही साखदार मुकाबलेदार भी होना चाहिए। नरेंद्र मोदी जो अब देश की अस्मिता की पहचान बन चुके हैं, गुजरातियों के लिए जितने अहम हैं यह विधानसभा चुनाव से जहां समझ में आ सकता है वही यह भी स्पष्ट हो गया है कि लोगों के मूड का सही आंकलन करने में नरेंद्र मोदी की पै" की कोई तोड़ नहीं है यही कारण है कि उन्होंने अपने को चुनाव अभियान में झोंक दिया अन्यथा शायद यह परिणाम न आता।
सत्ता में बने रहने को निरंतरता असंतोष का स्वाभाविक कारण की होती है ओर जब उसका जातयता के उन्माद का सहारा मिल जाए तब वह विपरीत परिणामकारी भी होती है। गुजरात में भाजपा की क्षीण ही सही, बहुमत बनाए रखने में सुलता उसकी परिस्थिति के सही आंकलन कर संग"नात्मक ढांचे की दरार रहित बनाने को भी दिया जाना चाहिए। कांग्रेस ने जिस तीन युवा जातीयतावादियों के कंधे पर सवार होकर गुजरात पर कब्जा करना चाहा था, उसका सर्वथा असफलत नहीं कहा जा सकता, लेकिन गुजराती अवाम में कांग्रेस सत्ता संभालने और उसे साखपूर्ण बनाए रखने की पात्रता का विश्वास नहीं पैदा कर सकी। उसके आगे बढ़ जाने की संभावना इसलिए भी संभव नहीं है क्योंकि जातीयता के उनमादी आंदोलन कभी दीर्घजीवी नहीं होता। और न ऐसे आंदोलनों को चलाने वाले नेता की भी साख बनी रहती है। कुछ समय बाद वे किसी बड़े दल की छत्रछाया में जाकर विलुप्त हो जाते हैं। रिपब्लिकन पार्टी इसका ज्वलंत उदाहरण है। साम्यवादी और समानवादी की, जिन्होंने वर्ग संघर्ष को जातीय सिंघ का स्वरूप दिया, आज की स्थिति इस बदलाव को समझने के लिए दूसरे उदाहरण को पस्तुत करते हैं जिनके अनेक सूबेदार अपना स्वतंत्र अस्तित्व कायम करने के पयास में जातीय पतीक बनकर चमक दिखाने में उद्भव के समान साबित होते रहते हैं।
गुजरात के इस बार के निर्वाचन में अभिव्यक्ति में सौहार्द को निचले पायदान पर धकेलने की होड़ अब तक की सभी अभिव्यक्तियों की होड़ को पछाड़कर वीभत्स माहौल बनाने का काम किया है, वही पहली बार सेक्युलरिज्म के नाम पर मुस्लिम मतों की जो पाथमिकता राजनीति पर थी, उसकी निरर्थकता को भी स्थापित कर दिया है। कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में पराजय की समीक्षा में एके एंटोनी के उस आंकलन का संज्ञान लेना पड़ा जिसमें उन्होंने अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को हार का मुख्य कारण बताया था। इसलिए संभव है कि अब आगे आने वाले चुनावों में हिन्दू, हिन्दुत्व विरोधी अभियान को अस्त्र बनाने की मानसिकता के बजाय बहुमत मतदाताओं की भावना का सम्मान किया जाए भले ही वह दिखावटी ही क्यों न हो जैसा राहुल गांधी ने मंदिर परिक्रमा और गुजरात कांग्रेस के पद्मावती फिल्म का विरोध करने वालों के साथ खड़ होकर संदेश देने का पयास किया है। जातीयता वर्गीयता या अन्य पकार की संकीर्णताओं सेक्युलरिज्म के कवच में ढककर अब तक जो भी दल राम मंदिर के बजाय अयोध्या में बाबरी मस्जिद के पक्षधरों ने यद्यपि उसकी कृत्रिमता छिपाई नहीं जा सकी, लेकिन उसने यह स्पष्ट तो कर ही दिया है कि बहुमत अर्थात हिन्दू भावना "sस पहुंचाकर कोई राजनीतिक दल सत्ता में बने रहने या वापस होने की अब कल्पना नहीं कर सकती। इसलिए विचारकों के लिए यह समीक्षा करने के बजाय कि क्या कांग्रेस के पुनरापि होने की शुरुआत हो चुकी है, इस तथ्य की समीक्षा करनी होगी कि नरेंद्र मोदी की विश्वव्यापी लोकपियता और गुजरात में उनके अभूतपूर्व लोकपियता के बावजूद उसकी विधायकों की संख्या क्षीण क्यों हुई। इस विचार में जो महत्वपूर्ण बिन्दु है वह है ग्रामीण अंचल के मतदाता/शहरी क्षेत्रों का मतदाता कष्ट अनुभव करने के बावजूद, जैसा कि सूरत क्षेत्र के परिणाम से स्पष्ट है, भाजपा के साथ ही बना रहा लेकिन ग्रामीण मतदाता उससे विमुख हो गया, विशेषकर किसान। शहरी पाटीदारों ने भाजपा का साथ दिया लेकिन ग्रामीण मतदाता विपरीत चले गए। जबकि उनके ऊपर न तो नोटबंदी का कोई पभाव है और न ही सेवा और वस्तु कर का। 2014 में केंद्रीय सत्ता संभालने के बाद, अब तक जो भी नीति संबंधी निर्णय लिए गए, वे पायः ग्रामीणों विशेषकर कृषि कार्य करने वालों के हित में लिए गए। उत्तर पदेश के स्थानीय निकाय चुनाव में भी उसे जो सफलता, महानगरों या बड़े शहरी इलाके में मिली, वह कस्बाई क्षेत्रों में जिन पर ग्रामीण क्षेत्र का अधिक पभाव रहता है नहीं मिली।
गुजरात के चुनाव परिणाम से कांग्रेस के बजाय भाजपा को अधिक चिंतित होना चाहिए क्योंकि कर्नाटक को छोड़कर अगले वर्ष में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं उनमें से अधिकतर में भाजपा की सरकार है। भाजपा के नेतृत्व के समान विश्वसनीय और लोकपिय दूसरा नेतृत्व नहीं है यह सर्वमान्य है। वह नेतृत्व अर्थात नरेंद्र मोदी के साथ जैसा तादात्म गुजरात के मतदाताओं का है, वैसा किसी भी राज्य में किसी नेता के साथ नहीं है।
फिर भी स्थानीय असंतोष जिसके औचित्य अनौचित्य पर मतभेद हो सकता है, ने उसकी राह क"िन बना दिया था। यह असंतोष लंबी अवधि तक सत्ता में बने रहने का परिणाम भी है। भाजपा छत्तीसगढ़ और मध्यपदेश में तीन बार से सत्ता में है। राजस्थान से उसे लोकसभा की सभी और विधानसभा की बहुमत भर सीटें मिली थी।
इन राज्यों में भी स्थानीय कारणों से असंतोष का खबरें आती रहती है। इन राज्यों में नरेंद्र मोदी के पति वैसी निष्ठा भी नहीं है जैसी गुजरात में थी। इन राज्यों में उसका मुकाबला भी कांग्रेस से ही है जिसने स्थानीय असंतोष के साथ समझौता कर गुजरात में जो भी सफलता पाई है, उसका विस्तार करने की रणनीति की सार्थकता को अपना लिया है। जैसा पहले कहा जा चुका है कि चाहे केंद्र हो या राज्य भाजपा सरकारों की पाथमिकता ग्रामीण और गरीब के लिए बनी हुई है लेकिन क्या इन नीतियों से वे लाभान्वित हो रहे हैं? क्या किसानों की आमदनी दूनी करने के वादे की दिशा में कारगर कदम उ" रहे हैं? भाजपा विरोधियों ने उसके इस किए गए वादे के परिपेक्ष में ही उसे घेरने की रणनीति बनाई है उस पर अमल भी कर रहे हैं भले ही उनके एकजुट होने की संभावना नहीं है लेकिन उनके अभियान के पभाव की उपेक्षा नहीं की जा सकती। भाजपा को अपनी नीतियों की सार्थकता के पति जग रहे विश्वास को क्रियान्वयन को मूर्त रूप देकर ही वह रोक सकती है। नीतियों का असर है, लेकिन क्रियान्वयन में शिथिलता उसको संदिग्ध बना रही है। इसलिए भाजपा ने उसे भारत के भविष्य का जो स्वप्न संजोया है उसे साकार करने के लिए, विश्वसनीयता में विश्वास बनाए रखने के उपायों को पाथमिकता देनी होगी।
(लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं।)

Share it
Top