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अभी बाकी है राजनीति में मूर्तियों की अहमियत

👤 Veer Arjun Desk 4 | Updated on:11 March 2018 6:30 PM GMT

अभी बाकी है राजनीति में मूर्तियों की अहमियत

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आदित्य नरेन्द्र
अकसर हम शहर के किसी प्रमुख स्थान या चौराहों पर खड़ी मूर्तियों पर ध्यान दिए बिना उसकी अगल-बगल से चुपचाप निकल जाते हैं। हम एक बार भी उस पर ध्यान देने या उसके बारे में सोचने की जहमत नहीं उठाते। दिल्ली सहित देश के अनेक शहरों में ऐसी कई मूर्तियां मिल जाएंगी जिनके बारे में उन मूर्तियों के पड़ोस में रहने वाले भी ज्यादा नहीं जानते। लेकिन जब कभी इन बेजुबान चुपचाप खड़ी मूर्तियों पर हमला होता है तो राजनीतिक और सामाजिक हलकों में एक अजीब-सी बेचैनी फैल जाती है क्योंकि जिन महापुरुषों की मूर्तियां हम देखते रहते हैं वह कभी न कभी किसी न किसी सामाजिक या राजनीतिक आंदोलनों के अगुआ के रूप में अपनी खास पहचान रखते हैं। इस श्रेणी में महात्मा गांधी से लेकर लेनिन, अम्बेडकर, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी, पेरियार जैसे अनेक लोग शामिल हैं जिनकी विचारधारा ने समय-समय पर लाखों-करोड़ों लोगों के जीवन को प्रभावित किया है।
जब हम यह जानते और मानते हैं कि यह मूर्तियां किसी न किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती हैं तो ऐसे में त्रिपुरा में लेनिन की मूर्तियों को ढहाए जाने पर देश के राजनीतिक माहौल में उबाल आना स्वाभाविक ही था। लोकतांत्रिक भारत के इतिहास में कभी भी ऐसा नहीं हुआ कि बुलडोजर से किसी राजनीतिक या सामाजिक नेता की मूर्ति को चुनावी जीत के बाद ढहा दिया गया हो। इससे एक ओर इस घटना ने जहां मीडिया में सुर्खियां बटोरीं वहीं दूसरी ओर विपक्ष लामबंद होकर भाजपा के विरोध पर उतर आया। लोकसभा को बाधित कर सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया जाने लगा। यह अलग बात है कि विप्लव देववर्मा की सरकार ने उस समय तक शपथ नहीं ली थी और राज्य में माणिक सरकार केयर टेकर की भूमिका में थी। इस मामले की गंभीरता को महसूस करते हुए प्रधानमंत्री मोदी तुरन्त हरकत में आए और उन्होंने अपनी नाराजगी को सार्वजनिक करते हुए दोषियों पर कड़ा एक्शन लेने की बात कही। उन्होंने गृहमंत्री राजनाथ Eिसह से भी बात की। जिसके बाद गृह मंत्रालय ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को दो एडवाइजरी जारी कीं। एक एडवाइजरी में कहा गया कि राज्य ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सभी जरूरी कदम उठाएं जबकि दूसरी एडवाइजरी में कहा गया कि तोड़फोड़ की ऐसी घटनाओं के लिए जिले के डीएम और एसपी निजी तौर पर जिम्मेदार होंगे। हालांकि मोदी सरकार के कड़े रुख को देखकर ऐसी घटनाओं को रोकने में कुछ हद तक मदद तो मिली लेकिन तब तक काफी नुकसान हो चुका था। विदेशों में भी कई भारतीय महापुरुषों की मूर्तियां स्थापित हैं लेकिन शुक्र है कि वहां से कोई चिंतित करने वाली खबर नहीं आई। फिर भी इस प्रकरण ने हमारे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं जिनका जवाब तलाशना जरूरी है। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि जब भाजपा द्वारा त्रिपुरा में वामपंथी किले को ध्वस्त करना ऐतिहासिक घटना मानी जा रही थी जिसे मीडिया की अच्छी-खासी सकारात्मक सुर्खियां मिल रही थीं तब इन मूर्तियों को तोड़कर नकारात्मक सुर्खियां बटोरने का क्या मतलब था। यह किसका प्लान था। यदि यह किसी राजनीतिक रणनीति के तहत किया गया था तो इसमें कोई शक नहीं कि यह एक बेहद घटिया और नुकसानदायक रणनीति का नमूना था। पीएम मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसके खिलाफ तुरन्त नाराजगी जाहिर कर इसे साबित भी कर दिया। लेकिन यह काफी नहीं है। पिछले दो-तीन सालों के दौरान कथित गौ-रक्षकों से लेकर मूर्तियां तोड़ने वालों तक ने भाजपा की 'सबका साथ-सबका विकास' वाली छवि को नुकसान पहुंचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। बेहतर होगा कि पीएम और भाजपा नेतृत्व कोई ऐसा रास्ता निकाले जिससे देश को यह मैसेज जाए कि ऐसे मामलों में वह कड़ा रुख अपना रहे हैं। लोकतंत्र में सभी को सोचने, बोलने और अपनी विचारधारा पर चलने की आजादी है। इसका ध्यान रखना सरकार का दायित्व है। आज के डिजिटल युग में किसी विचारधारा के फैलाव पर रोक संभव नहीं। पहले कभी यह मूर्तियां विचारधाराओं के फैलाव का माध्यम हुआ करती थीं लेकिन आज बदलते हुए इस दौर में इन मूर्तियों का अपनी विचारधारा के फैलाव में कोई बहुत ज्यादा योगदान दिखाई नहीं देता। फिर भी एक विचारधारा के प्रतीक के रूप में यह लोगों के सामने तो रहती ही है। इसी के चलते राजनीतिक दल समय-समय पर अपने सियासी फायदे के लिए इनका उपयोग करने से भी नहीं चूकते। जब तक इन मूर्तियों को लेकर राजनीतिक नेताओं का यह रुख बरकरार रहेगा तब तक कम से कम राजनीति में इन मूर्तियों की अहमियत बरकरार रहेगी।

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