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राहुल की बढ़ी परेशानी देवेगौड़ा भी रखेंगे बाल्टी
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
बताया जा रहा है कि कांग्रेस अपनी नादानी और जल्दीबाजी के चलते जेडीयू के जाल में उलझ गई है। जेडीयू प्रमुख देवेगौड़ा चाहते थे कि किसी तरह कर्नाटक में उनकी पार्टी सत्ता में शामिल हो जाये। इसलिए चुनाव प्रचार में वह भाजपा के निकट थे। राहुल गांधी ने स्वयं जेडीयू को भाजपा की बी टीम बताया था। चुनाव परिणाम आने के साथ ही देवेगौड़ा कुछ सोच पाते, इसके पहले कांग्रेस उनकी शरण में आ गई। भाजपा के साथ जेडीएस सरकार में शामिल होने पर गंभीर थी, लेकिन कांग्रेस मुख्यमंत्री बंनने के लिए उनके पैर पकड़ लिए। फिर क्या था, देवेगौड़ा की इच्छा जाग उठी। वह बेटे को मुख्यमंत्री और त्रिशंकु लोकसभा में अपने पुन प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने लगे। प्रांतीय पार्टियों की यदि प्रांत में सरकार बन जाती है तो मान लिया जाता है कि उनकी बाल्टी लाइन में लग गई है। कर्नाटक में सबसे बड़े दल को अवसर मिला तो बिहार में तेजश्वी यादव भी दावेदारी जताने लगे। मतलब राजद भी लाइन में अपनी बाल्टी रख सकती है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बाल्टी प्रकरण भी चर्चा में था। ऐसे माहौल में राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने की इच्छा व्यक्त करेंगे, लोग चौक ही जाएंगे। यही हुआ, अपने अपने ढंग से राहुल के बयान पर टिप्पणी आने लगी। चुनाव प्रचार का मौका था। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कैसे चूकते। उन्होंने उदाहरण के माध्यम से अपनी बात रखी थी। कहा कि जैसे नल से पानी लेने के लिए लोग बाल्टी रखते है, तभी कोई दबंग लाइन तोड़कर आगे अपनी बाल्टी रख देता है। मोदी का यह इशारा काफी था। मतलब था कि विपक्ष में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वालों की पहले से लाइन लगी है। ऐसे में राहुल की दावेदारी लाइन में अपनी बाल्टी रखने जैसी है। बताया जाता है कि यूपीए के समय ही सोनिया गांधी अपने वास्तविक उत्तराधिकारी राहुल को प्रधानमंत्री बनना चाहती थी। लेकिन तब राहुल का कहना था कि जब कांग्रेस अपनी दम पर बहुमत प्राप्त करेगी तभी वह प्रधानमंत्री बनेंगे। सोनिया गांधी की इच्छा को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी कुर्सी छोड़ने को तैयार थे। उनका कहना था कि राहुल बाबा एक बार कहें तो मै यह पद उनके लिए खाली कर दूंगा। यह उनका कोई अहसान नहीं होता, बल्कि राहुल चाहते तो उन्हें ऐसा करना ही पड़ता। लेकिन तब राहुल जिम्मेदारी संभालने से बचते रहे। जब कांग्रेस अपनी सबसे कमजोर दशा में है, राहुल ने अपने को भावी प्रधानमंत्री की लाइन में स्वेच्छा से शामिल कर लिया है।
राहुल का यह मंसूबा अनेक लोगों के लिए मजाक का विषय हो सकता है। लेकिन कांग्रेस पार्टी को इसे गंभीरता से लेना चाहिए था। उसे अभी से राहुल की दावेदारी को हकीकत में बदलने के प्रयास में जुट जाना चाहिए। लेकिन फिलहाल इसका उल्टा हो रहा है। कांग्रेस के नेता प्रांतीय नेताओं को बढ़ावा या प्रोत्साहन देने में लगे है। इसका सबसे बड़ा उदहारण कर्नाटक है। जदयू प्रमुख देवेगौड़ा ने अपने मन को समझा लिया था कि वह अब कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकेंगे। लेकिन भला हो कांग्रेस का उसने प्रधानमंत्री की लाइन में राहुल के साथ देवेगौड़ा को भी लगा दिया है। 37 सीट जीत कर वह तीसरे पायदान पर थे। बहुत संभव था कि किसी एक दल के साथ मिलकर उनकी पार्टी सरकार में शामिल हो जाती। यहां तक रहता तो गनीमत थी। देवेगौड़ा और उनकी पार्टी एक सीमा से ऊपर नहीं जाती। लेकिन दोगुनी से ज्यादा सीट लेकर कांग्रेस उनके पीछे दौड़ गई। कहा बस आप सरकार बनाने के लिए राजी हो जाओ, हमको तुम्हारी सभी शर्तें मंजूर हैं। कांग्रेस के इस समर्पण ने ही देवेगौड़ा को लाइन में बाल्टी रखने को प्रेरित किया। बताया जाता है कि देवेगौड़ा अपने बेटे को मुख्यमंत्री बनाकर केंद्रीय राजनीति में सक्रिय होने की योजना तैयार करने लगे थे। इस तरह कांग्रेस ने राहुल के मुकाबले देवेगौड़ा को आगे पहुंचा दिया है। जेडीएस के नेतृत्व में कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए इतना परेशान नही होना चाहिए था। संविधान में कहीं भी बहुमत शब्द का उल्लेख नहीं है। अनुच्छेद 164 में यह अवश्य लिखा है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेंगे। लेकिन इस अनुच्छेद को दूसरे के साथ जोड़कर देखना चाहिए। अनुच्छेद 164 (2) में लिखा है कि मंत्री परिषद विधानसभा के विश्वासपर्यंत पर रहेगी। इसका मतलब यह है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति के समय राज्यपाल को यह देखना चाहिए कि उसे विधानसभा में विश्वास हासिल हो सकता है या नहीं। यह संसदीय व्यवस्था को संचालित करने वाला प्रावधान है। यदि किसी पार्टी या चुनाव पूर्व बने गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला हो तो राज्यपाल के समक्ष कोई विकल्प नहीं होता। तब वह बहुमत दल या गठबंधन के नेता को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है। राज्यपाल संविधान प्रदत्त अपने विवेक का प्रयोग त्रिशंकु विधानसभा में कर सकता है।
कर्नाटक में किसी एक पार्टी या चुनाव पूर्व बने गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। भाजपा एक सौ चार सीट के साथ अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन बहुमत से पीछे थी। सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उसने सरकार बनाने का दावा किया था। राज्यपाल वजुभाई वाला को इस दावे पर विचार करना था। भाजपा ने विधायक दल की बैठक में येदियुरप्पा को नेता चुनने के बाद राज्यपाल के समक्ष दावा पेश किया था। उनके साथ एक सौ चार विधायकों की सूची थी।
दूसरा दावा कांग्रेस और जदयू का था। यह दिलचस्प दावेदारी थी। कांग्रेस और जदयू के नेता बड़ी जल्दीबाजी में थे। विधायक दल की बैठक और चुनाव आयोग द्वारा अधिकृत परिणाम जारी होने के पहले इसके नेता राज्यपाल के यहां पहुंच गए थे। दोनों की संख्या बहुमत से चार अधिक थी। राज्यपाल ने उनको उचित जबाब दिया कि अधिकृत परिणाम आने तक सभी दावेदारों को इंतजार करना चाहिए। अधिकृत परिणाम भी आ गए। कांग्रेस और जेडीयू ने विधायक दल की बैठक भी की। लेकिन इन दोनों बैठकों से कई विधायक नदारद थे। कांग्रेस के बारह और जदयू के दो विधायक बैठक में नहीं पहुंचे। मतलब विधिवत दावा पेश करने से पहले ही कांग्रेस और जदयू बहुमत से पीछे हो गया। कहा गया कि कांग्रेस के 21 और जेडीयू के 10 विधायक लिंगायत समुदाय के है। ये लिंगायत मठों के सम्पर्प में है। इन्हें मुख्यमंत्री के रूप में कुमार स्वामी मंजूर नहीं है। ये विधायक लिंगायत समुदाय के भाजपा नेता येदियुरप्पा की राह में बाधक नहीं बनना चाहते। जाहिर है कांग्रेस अपने ही बने जाल में उलझ गई। उसने चुनाव से पहले लिंगायत को अलग धर्म का दर्जा देने वाला कार्ड चला था।
इससे भाजपा को तो नुकसान नहीं हुआ, लेकिन कांग्रेस के कई विधायक अलग होते दिखाई दे रहे है। कांग्रेस ने संख्या ही नहीं सम्मान भी खोया है। उसने अपने से आधी संख्या वाले क्षेत्रीय दल के सामने समर्पण कर दिया। फिर भी सत्ता में भागीदारी का अवसर नहीं मिला। इसके बाद उसे आधी रात में सुप्रीम कोर्ट भागना पड़ा। कुछ दिन पहले उसे यहां बड़ी गड़बड़ी दिखाई दे रही थी। लेकिन सत्ता में घुसने का मौका हाथ से निकला तो यही की शरण लेनी पड़ी। ऐसे ही कांग्रेस ने जदयू प्रमुख देवेगौड़ा और उनके सिद्धरमैया ने देवेगौड़ा की फोटो मुख्यमंत्री कार्यालय से फेंकवा दी थी। चुनाव परिणाम आया तो सारी हेकड़ी गायब हो गई।
जाहिर है कि राज्यपाल के समक्ष दो दावे थे। पहला भाजपा का, जिसके सभी विधायक उसके साथ थे, जो अकेली सबसे बड़ी पार्टी थी। दूसरा कांग्रेस और जदयू का दावा। जिनकी संख्या विधायक दल की बैठक में ही कम हो गई थी। अनुपस्थित विधायकों को हटा दें तो इनके बहुमत का दावा भी ध्वस्त हो गया था। इसके अलावा सरकार बनने के पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम नहीं बल्कि अधिकतम सौदेबाजी शुरू हो गई थी। खुलेआम मलाईदार विभागों पर दावेदारी चल रही थी। एक तो संख्या कम हो गई, ऊपर बंदरबांट जैसी बातों ने अंतत राज्यपाल का कार्य आसान कर दिया। सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के अलावा उनके सामने अन्य कोई विकल्प ही नहीं बचा था।
बात सबसे बड़े दल की चली तो कांग्रेस को गोवा मणिपुर याद आ गया। यहां वह सबसे बड़ी पार्टी थी। लेकिन बहुमत से दूर थी। लेकिन उसे सरकार बनाने का अवसर नहीं दिया गया। सबसे बड़ी पार्टी को बुलाना तभी आवश्यक होता है, जब कई दावेदार हों और इनके बहुमत को लेकर संशय हो। बोम्मई आयोग की रिपोर्ट में भी यही विचार प्रतिपादित था। बहुमत पर दुविधा की दशा में राज्यपाल सबसे बड़े दल को सरकार बनाने का आमंत्रण दें, उसके बाद विधानसभा के पटल पर बहुमत का परीक्षण हो। कर्नाटक के राज्यपाल ने यही किया। गोवा और मणिपुर के उदहारण कर्नाटक पर लागू नहीं होता। गोवा में महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी गोवा पीपुल्स पंट से भाजपा के ही करीबी बन कर चुनाव लड़े थे।
चुनाव में इन्होंने भाजपा का नहीं कांग्रेस का ही विरोध किया था। बिना किसी सौदेबाजी के इन्होंने भाजपा को समर्थन दिया, कांग्रेस के साथ जाने से इंकार कर दिया। विधानसभा में ऐसा कोई नहीं था, जो कांग्रेस का समर्थन करता। ऐसे में बहुमत से दूर कांग्रेस को सरकार बनाने का आमंत्रण देना अनैतिक होता। यही स्थिति मणिपुर में थी। यहां एनपीएफ, एनपीपी और लोकजनशक्ति पार्टी भाजपा की ही सहयोगी थी। ऐसे में यहां भी बहुमत से दूर कांग्रेस को बुलाने का औचित्य नहीं था।
कांग्रेस आज कर्नाटक के राज्यपाल पर हमला बोल रही है। लेकिन इस पद के दुरुपयोग के सर्वाधिक मामले उसी के खाते में है। इसकी शुरुआत संविधान लागू होने के सात वर्ष बाद ही शुरू हो गई थी। तब केरल की बहुमत सरकार को हटाया गया था। बहुमत के दावे और विधायकों की भौतिक उपस्थिति के बाद भी अल्पमत की सरकार बनवा देने के अनेक उदाहरण है। ऐसा करने वाले कांग्रेस के संघीय शासन द्वारा नियुक्त राज्यपालों ने किया था। कर्नाटक में ही आठ वर्ष पहले राज्यपाल ने येदियुरप्पा की सरकार को बहुमत परीक्षण के बावजूद हटा दिया था। यहीं पर वेंकट सुबया ने एसआर बोम्मई, को बहुमत के बाद भी हटाया था। हरियाणा में राज्यपाल गणपति राव, उत्तर प्रदेश में रोमेश भंडारी, बिहार में बूटा सिंह, झारखंड में शिब्ते रजी बहुमत को नजर अंदाज करने वाले राज्यपाल के रूप में याद किये जाएंगे। ये खुल कर कांग्रेस के पक्ष मे खेले थे। एक दिलचस्प सन्योग देखिये, आज जो जेडीएस के मुखिया है, वह तब देश के प्रधानमंत्री थे। जो आज कर्नाटक के राज्यपाल है, वह गुजरात भाजपा के अध्यक्ष थे। बताया जाता है कि केंद्र के इशारे पर गुजरात के राज्यपाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री सुरेश मेहता को बर्खास्त कर दिया था। आज वही देवेगौड़ा अपने बेटे के मुख्यमंत्री न बनने से परेशान है। निश्चित ही त्रिशंकु विधानसभा का मसला संवेदनशील होता है। कई बार एक ही फार्मूला सभी प्रांतों में लागू नहीं हो सकता। क्योंकि चुनाव पूर्व और चुनाव बाद के तथ्यों पर भी ध्यान देना चाहिए। गुजरात के राज्यपाल ने सभी तथ्यों पर सावधानी से विचार किया। इस प्रकार वह उचित निर्णय पर पहुंचे। लेकिन कांग्रेस विपक्ष में बैठना स्वीकार करती तब उसके लिए ठीक रहता। जेडीयू की शरण में जाकर उसने अपना नुकसान किया है।
(लेखक विद्यांत हिन्दू पीजी कॉलेज में राजनीति के एसोसिएट पोफेसर हैं।)
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