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अटल प्रकरण की पुनरावृत्ति
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डॉ. दिलीप अग्निहोत्री
याद कीजिए जब लोकसभा में अटल बिहारी वाजपेयी ने बहुमत के अभाव में प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया था, तब कांग्रेस ने ऐसे ही अट्टहास कर रही थी। उसे यह सफलता उड़ीसा के मुख्यमंत्री को लोकसभा में बैठाने पर मिली थी। इसके बाद अटल बिहारी के प्रति सहानुभूति उमड़ी थी। उनके नेतृत्व में राजग को बहुमत मिला था। इस इतिहास ने कर्नाटक में अपने को दोहराया है। येदियुरप्पा उतने ही भावुक थे। कांग्रेस उन्हें हटाने को जेडीयू की शरण में गई थी। इसका लाभ भाजपा को लोकसभा में मिलेगा।
कर्नाटक में मतदाताओं ने कांग्रेस को एक सौ बीस से अठहत्तर पर पहुंचाया था। जदयू भी कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए लड़ रही थी। जदयू को साथ लेकर वह जनादेश का अपमान करने पर आमादा थी। उसकी मुराद पूरी हुई। येदियुरप्पा इस्तीफा दे दिया। बिडंबना देखिये अठहत्तर प्लस सतीस से बहुमत का दावा करने वाली कांग्रेस ने राज्यपाल को अपने विधायकों की सूची ही नहीं दी थी। इतना ही नही फ्लोर टेस्ट के एक दिन पहले अर्थात उन्नीस मई को कांग्रेस विधायक दल की बैठक हुई। जिसमें सिद्धरमैया को नेता चुना गया। कांग्रेस और जेडीएस के नेता पता नहीं किस नैतिकता की बात कर रहे थे। एक दूसरे के खिलाफ लड़े और बिना न्यूनतम साझा कार्यक्रम के एक हो गए। यदि यह नैतिकता थी तो उनके कुछ विधायकों का भाजपा को समर्थन देना भी नैतिकता ही कही जाएगी। कार्यक्रम बनने के बाद ही भाजपा और पीडीएफ ने सरकार बनाने का दावा किया था।
इस प्रकरण में कांग्रेस जिसे जीत समझ रही है, उसमें दोहरा नुकसान हुआ। एक यह कि उसे अपने से आधी सीट हासिल करने वाली क्षेत्रीय पार्टी के समक्ष बिना शर्त आत्मसमर्पण करना पड़ा। चुनाव प्रचार के दौरान जेडीयू को भाजपा की बी टीम बताया जा रहा था। कांग्रेस ने अपना आत्मबल और आत्मस्वाभिमान दोनों को जमीन में मिला दिया। अब ऐसे राज्यों की संख्या बढ़ती जा रही है, जहां कांग्रेस क्षेत्रीय दलों की पिछलग्गू बन गई है। अकेले चलने की उसकी हिम्मत जबाब दे रही है। बिहार में वह लालू यादव, तेजश्वी यादव की पिछलग्गू है, उत्तर प्रदेश में उसे कोई पूछने वाला नहीं, फिर भी वह पिछलग्गू बनने के लिए बेचैन है। कर्नाटक में वह अभी तक सबसे बड़ी पार्टी थी। चुनाव में दूसरे नम्बर पर आ गई। लेकिन उसने अपने को जदयू के पीछे कर लिया। उसे कर्नाटक में इसी हीनभावना के साथ ही रहना होगा।
कांग्रेस का एक अन्य बड़ा नुकसान हुआ। भाजपा पर आरोप लगाने की धुन में उसने अपने को ही कठघरे में पहुंचा लिया। ऐसा करते समय उसने अपने वर्तमान ही नहीं पूर्व नेताओं पर भी सवाल उठाने का मौका दिया। दिलचस्प बात यह कि इस आत्मघाती प्रयास में कांग्रेस के दिग्गज विधि विशेषज्ञ मोर्चे पर लगे थे।
कांग्रेस ने कहा कि कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी को बुलाने से लोकतंत्र की हत्या हुई है। फिर कहा कि राज्यपाल वजुभाई वाला ने विश्वास मत हासिल करने के लिए पन्द्रह दिन का समय देकर लोकतंत्र की हत्या की है। बेशक कांग्रेस को इन मुद्दों पर न्यायपालिका में जाने का अधिकार था। लेकिन उसे उतावलेपन और शब्दावली पर नियंत्रण रखना चाहिए था। क्योंकि वह अपरोक्ष रूप से अपनी पार्टी की सरकारों पर भी निशाना लगा रही थी। इनमें जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, मनमोहन सिंह सभी शामिल थे। इसके बाद कांग्रेस ने प्रोटेम स्पीकर पर हमला बोल दिया। यह भी नहीं सोचा कि इससे उसकी पार्टी के अनेक स्पीकर कठघरे में आ जायेंगे। इसके अलावा एक मुख्यमंत्री को लोकसभा में बैठाकर सरकार को गिराने का काम भी कांग्रेस ने किया था। आज उसे प्रोटेम स्पीकर पर दिक्कत है। जवाहर लाल नेहरू ने राजनीतिक कारणों से केरल की बहुमत वाली सरकार सत्ता से को बेदखल करवा दिया।
उन्नीस सौ बयासी में हरियाणा के राज्यपाल गणपति राव देव जी तपासे देवीलाल के बहुमत दावे से संतुष्ट थे। विधायको की संख्या भी गिनी थी। शपथ दिलाने का समय भी दिया। लेकिन इसके पहले भजनलाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। इसके अगले वर्ष आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रामलाल ने राजेश्वर राव की अल्पमत सरकार को बहुमत साबित करने के लिए तीस दिन का समय दिया था। 1952 में मद्रास राज्य के राज्यपाल श्रीप्रकाश ने प्रकाशम के बहुमत दावे को नकार कर राजगोपालाचारी को मुख्यमंत्री बनाया था। वह विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे। 1957 में उड़ीसा हरेकृष्ण मेहताब 1963 में पुन उड़ीसा और केरल के राज्यपालों ने अपने विवेक का प्रयोग करके मुख्यमंत्री नियुक्त किए थे। 1969 में उत्तर प्रदेश में गिरधारी लाल के दावे को नजरअंदाज करके चरण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया गया था। 1973 में उड़ीसा में बीजू पटनायक बहुमत का दावा करते रहे, लेकिन उन्हें सरकार बनाने का अवसर राज्यपाल ने नहीं दिया। 1970 में गुरुनाम सिंह का दावा अस्वीकार करके प्रकाश सिंह बादल को मुख्यमंत्री बनाया गया था। 1984 में सिक्किम, जम्मू-कश्मीर, के राज्यपालों ने विवादित निर्णय लिए थे। कर्नाटक में तो तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने जनता पार्टी के एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। बोम्मई ने इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। फैसला बोम्मई के पक्ष में हुआ और उन्होंने फिर से वहां सरकार बनाई। 2005 में गोवा के राज्यपाल जमीर पर भी पक्षपात का आरोप लगा था। 2009 में राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने बीएस येदियुरप्पा वाली तत्कालीन भाजपा सरकार को बर्खास्त कर दिया था। उत्तर प्रदेश में भी उन्नीस सौ अठानवे में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने बर्खास्त कर जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री बनाया था। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दिया। बिहार में दो हजार पांच को राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक बताया था। शिब्ते रजी पर झारखंड में बहुमत के दावे को नजरअंदाज कर अल्पमत की सरकार बनवाने का आरोप था। स्पीकर के रूप में शिवराज पाटिल, केएच पांडियन, गोविंद सिंह पुंजवाल, आदि पर पक्षपात के आरोप लगे थे। कांग्रेस ने अपने ही नेताओं के अप्रिय प्रसंग चर्चा के ला दिए। यह भी उसकी नैतिक पराजय थी।
(लेखक विद्यांत हिन्दू पीजी कॉलेज में राजनीति के एसोसिएट पोफेसर हैं।)
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