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कर्नाटक : अभी खत्म नहीं हुई है सत्ता की लड़ाई
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आदित्य नरेन्द्र
अपना बहुमत सदन के पटल पर सिद्ध न कर पाने की आशंका के चलते कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा के विधायक दल के नेता और नवनियुक्त मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपना इस्तीफा राज्यपाल वजुभाई वाला को सौंप दिया। इसके कुछ घंटों बाद ही खबर आई कि राज्यपाल ने जनता दल (सेक्यूलर), कांग्रेस और बीएसपी गठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार एचडी कुमारस्वामी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया है। कुमारस्वामी 23 मई बुधवार को शपथ लेंगे। इस गठबंधन ने 224 सदस्यीय विधानसभा में 117 सदस्यों के समर्थन का दावा किया है। यहां दो सीटों पर मतदान नहीं हुआ था जबकि कुमारस्वामी दो सीटों पर जीते थे। इस घटनाक्रम के बाद लगता है कि कर्नाटक में फिलहाल सत्ता की जो लड़ाई देश के दो प्रमुख राजनीतिक दलों कांग्रेस और भाजपा के बीच चल रही थी उसका अंत हो गया है। लेकिन यह सच नहीं है क्योंकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में विभिन्न राजनीतिक दल सत्ता पाने के लिए एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ करते रहते हैं। यदि वह ऐसा नहीं करेंगे तो उनके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाएगा। ऐसे में पक्ष-विपक्ष के बीच लड़ाई तो चलती ही रहती है।
जहां तक कर्नाटक का सवाल है तो आठ बार विधायक और दो बार सांसद रहे येदियुरप्पा ने इस्तीफा देने के अपने निर्णय की घोषणा करते समय इसका इशारा यह कहते हुए दे दिया है कि अब वह पूरे कर्नाटक की यात्रा करेंगे और यह सुनिश्चित करेंगे कि पार्टी लोकसभा चुनावों में राज्य की सभी 28 सीटों और अगले विधानसभा चुनावों में 156 सीटों पर जीत दर्ज करे। उन्होंने कहा कि मैंने किसानों का संघर्ष देखा है, उन्हें जमीन दी है और उनके आंसुओं को पोंछा था। मैं उनके एक लाख रुपए तक के ऋण माफ करना चाहता था। येदियुरप्पा ने कहा कि मैं गरीबों के घरों में गया, उनके साथ रहा, मैंने अपना पूरा जीवन संघर्ष किया है और अंतिम सांस तक लोगों की सेवा करूंगा। येदियुरप्पा का यह बयान उनकी भावी रणनीति की झलक दे देता है। 75 वर्षीय भाजपा के इस वयोवृद्ध राजनेता के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे के बाद कर्नाटक की राजनीति में कई बदलाव आने की संभावना है। कम से कम चार ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब आने वाले एक साल में मिल सकता है। सबसे पहला और ज्वलंत सवाल तो यही है कि क्या कांग्रेस, जनता दल (एस) और बसपा के बीच सत्ता का बंटवारा शांतिपूर्ण ढंग से हो पाएगा। अभी तो ऐसा लगता है कि भाजपा के खिलाफ अन्य दल एकजुट हैं। ऐसे में कोई समस्या आड़े नहीं आएगी। लेकिन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं रखने वाले नेताओं को कैसे संतुष्ट किया जाएगा यह परेशानी सामने आ सकती है। मंत्री पद या मनचाहा मलाईदार मंत्रालय न मिलने से असंतुष्ट नेता क्या करेंगे, भविष्य में वह भाजपा के पाले में आएंगे या नहीं, इस सवाल का जवाब तो अगले कुछ महीनों में ही मिलेगा। दूसरा सवाल यह है कि कुर्बा सिद्धारमैया और वोक्कालिंगा कुमारस्वामी के राजनीतिक गठजोड़ का प्रभावशाली लिंगायत मतदाताओं पर क्या प्रभाव पड़ेगा। यदि लिंगायतों ने येदियुरप्पा के इस्तीफे को अपने समुदाय के अपमान के रूप में लिया तो सिद्धारमैया और कुमारस्वामी को इसकी काट खोजनी होगी। तीसरा सवाल ओल्ड मैसूर और उसके आसपास के इलाके की राजनीतिक स्थिति का है। इस चुनाव में दोनों दलों कांग्रेस और जद (एस) ने एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था। अब अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में दोनों दल मिलकर लड़ेंगे या अलग-अलग लड़ेंगे। मिलकर लड़ने पर टिकट न पाने वाले असंतुष्ट दावेदार किस हद तक जाएंगे इसका भी अंदाजा लगाना अभी मुश्किल है। चौथा सवाल यह है कि इस गठजोड़ के खिलाफ आने वाले लोकसभा चुनाव में उन मतदाताओं का क्या रुख रहेगा जिन्होंने कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश जताते हुए जेडीएस को समर्थन दिया था।
ऐसे मतदाता खुद को आज ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे। इस गठबंधन के लिए उन्हें अपने पाले में रखना एक बड़ी चुनौती साबित होगी। स्पष्ट है कि कर्नाटक के राजनीतिक संग्राम से उपजे यह सवाल और इनका जवाब आने वाले समय में राज्य की राजनीति को प्रभावित करेगा। अब यह कांग्रेस-जदयू गठबंधन पर निर्भर है कि वह इसका तोड़ कैसे निकालते हैं। लेकिन दोनों पक्षों की यह तीखी लड़ाई अब राजभवन से निकलकर सड़कों और वहां से राज्य के लोगों के दिलोदिमाग तक पहुंचेगी इसमें कोई शक नहीं है। वैसे भी देश के दक्षिणी राज्य इमोशनल पॉलिटिक्स के अगुआ रहे हैं। ऐसे में इस लड़ाई को अभी से खत्म मान लेना बेमानी है।
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