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इमरजेंसी के अत्याचार पढ़ाए जाएं

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:10 July 2018 5:57 PM GMT
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श्याम कुमार

वैसे तो हमारी संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार युद्ध के समय देश में पहले भी आपातकाल या इमरजेंसी लगाई जा चुकी थी, किन्तु उस समय किसी को उसका आभास भी नहीं हुआ था। युद्ध के समय देशभक्ति की भावना इतनी पबल थी कि उस समय लागू हुई इमरजेंसी के कारण नहीं, बल्कि स्वेच्छा से लोगों ने सारी बंदिशों का पालन किया था। लेकिन भ्रष्ट उपायों के कारण जब रायबरेली से इंदिरा गांधी का लोकसभा का चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा रद्द घोषित हो गया तो इंदिरा गांधी ने जो इमरजेंसी देश पर थोपी, वह किसी युद्ध के कारण अथवा राष्ट्रहित में न होकर सिर्फ अपनी पधानमंत्री की कुरसी बचाने का स्वार्थपूर्ण कुटिल पयास था। संविधान में इमरजेंसी का पावधान रखते समय संविधान-निर्माताओं को यह कल्पना भी नहीं रही होगी कि भविष्य में देश में कोई ऐसा भी पधानमंत्री होगा, जो अपने स्वार्थ के कारण देशभर को जेल बना डालेगा, बर्बर अत्याचार करेगा तथा देशवासियों से उनका जीने का अधिकार छीन लेगा। इसलिए इंदिरा गांधी द्वारा लागू की गई इमरजेंसी ऐसी असाधारण घटना थी, जिसने देश के भविष्य को बंधक बना लिया था।

इंदिरा गांधी की इमरजेंसी में अत्याचारों का यह हाल था कि इलाहाबाद में मेरे घर में कुछ काम लगा हुआ था, जिसके बाद घर लौट रहे मजदूरों से पुलिस ने उनके रुपए छीन लिए थे। उस समय इस पकार की घटनाएं आम थीं। पुलिस के अत्याचार मशहूर थे। कांग्रेसी लोग भी नंगा नाच नाच रहे थे। वे अपने विरोधियों को तरह-तरह से सताते थे या पुलिस द्वारा जेल भिजवा देते थे। इलाहाबाद में विपक्ष के सीधेसादे विधायक अ"ईराम को जेल में डाल देने का जब हुक्म आया तो इलाहाबाद के तत्कालीन सुलझे हुए जिलाधिकारी रामदास सोनकर ने बड़ी चतुराई से अ"ईराम को बचाया था।

`गीता' में कृष्ण भगवान ने कहा है कि जब-जब धर्म पर आपदा आती है तो उसकी रक्षा के लिए ईश्वर का अवतरण होता है। इमरजेंसी के समय सचमुच ईश्वर ने ही रक्षा की, जिससे देश विनाश से बच गया। उस समय जानकारी मिली थी कि इंदिरा गांधी फौज के बल पर अपने को तानाशाह घोषित करने को तत्पर थीं। उन्हें अपनी चाटुकारी इतनी अधिक पसंद थी कि उसके कारण उनके विश्वस्त लोग भी उन्हें वही राय देने की कोशिश करते थे, जो उन्हें पिय लगे। इंदिरा गांधी के खुफियातंत्र ने इसी चाटुकारी में उन्हें यह बताया कि इस समय लोकसभा का चुनाव करा दिए जाने पर वह भारी बहुमत से चुनाव जीत लेंगी और उनकी सत्ता बनी रहेगी। इसी से इंदिरा गांधी ने संविधान को तहस-नहस करते हुए लोकसभा का कार्यकाल पांच के बजाय छह वर्ष कर दिया था तथा यह व्यवस्था कर दी थी कि पधानमंत्री के विरुद्ध कोई मुकदमा नहीं कायम किया जा सकेगा। इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की आड़ में अपनी वंशानुगत सत्ता स्थापित करने का निश्चय कर लिया था। देशवासियों के जीने का अधिकार भी छीन लिया था। उन्होंने आजीवन पधानमंत्री बनने का अथवा राष्ट्रपति-पणाली लागू कर आजीवन राष्ट्रपति बनने का मन बना लिया था। किन्तु ईश्वर ने चाटुकार खुफियातंत्र के रूप में अवतार लिया, जिसकी चाटुकारितापूर्ण रिपोर्ट के आधार पर 1977 में इंदिरा गांधी ने लोकसभा का चुनाव घोषित कर दिया था।

वर्ष 1977 में जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी तो मोरारजी देसाई यदि चाहते तो इंदिरा गांधी द्वारा अपने हित में लागू के गए संविधान के संशोधनों को चलने देते तथा इंदिरा गांधी के हथियार से ही उन पर वार करते। लेकिन हमारे यहां सज्जन लोगों को उदारता का रोग हुआ करता है। मोरारजी देसाई के साथ भी ऐसा ही हुआ। उन्होंने इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में के गए समस्त संशोधनों को समाप्त कर उसका पहलेवाला स्वरूप फिर लागू कर दिया। यह व्यवस्था भी कर दी कि भविष्य में आसानी से इमरजेंसी नहीं लागू की जा सके। मोरारजी देसाई की इस सज्जनता का फायदा उ"ाकर इंदिरा गांधी तिकड़मों से सत्ता में अपनी वापसी करने में सफल हुईं। उदारता का यह रोग पत्रकार-जगत में भी व्याप्त था। इंदिरा गांधी ने न केवल लोकतंत्र को कुचला था, बल्कि अखबारों एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी पैरों तले रौंद डाला था। यदि खुफियातंत्र की गलत सूचना में फंसकर इंदिरा गांधी लोकसभा का चुनाव न करातीं और अपनी सत्ता को सदा के लिए स्थायी कर लेतीं तो देश में अभिव्यक्ति एवं मीडिया की स्वतंत्रता हमेशा-हमेशा के लिए खत्म हो गई होती।

मैंने उस समय कहा था कि इंदिरा गांधी ऐसी सर्पपिणीं है जो मौका पाते ही फिर फन फैलाएगी, इसलिए उसे कुचल देने में ही देश का हित है। मैंने मांग की थी कि चूंकि इंदिरा गांधी ने पेस का गला घोंटा है, इसलिए अब कोई भी अखबार इंदिरा गांधी का समाचार हरगिज न पकाशित करे। लेकिन कुछ पत्रकारों ने, जिनमें फर्जी वामपंथी पत्रकार विशेष रूप से थे, यह दलील दी कि निष्पक्ष पत्रकारिता का तकाजा है कि इंदिरा गांधी के समाचार भी पूरी तरह छापे जाएं। मेरी आशंका सही निकली और कुछ समय बाद इंदिरा गांधी अपनी तिकड़मों से सत्ता को फिर अपनी मुट्ठी में करने में सफल हो गईं। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने पुत्र राजीव गांधी को, जो सफल पायलट भी नहीं बन सके थे, अपने पास बुलाकर अपने उत्तराधिकारी के रूप में पेश करना शुरू कर दिया। बिलकुल वैसे ही, जैसे इस समय सोनिया गांधी `पप्पू फेंकू' को पेश कर रही हैं। जब उन पत्रकारों ने अपने इस दृष्टिकोण पर बल दिया तो मुझे वर्ष 1961 में अपने पधान सम्पादक की वह सीख याद आई कि देश से बड़ा कुछ नहीं होता है। निष्पक्षता का दावा करनेवाले ऐसे पत्रकार राष्ट्रवाद के मामले में अपनी निष्पक्षता का आवरण उतार दिया करते हैं और राष्ट्रविरोधी तत्वों के साथ जमकर पक्षपात करते हैं। इंदिरा गांधी ने पत्रकारिता की इस कमजोरी का खूब फायदा उ"ाया। आरोपपत्र में तकनीकी भूल के कारण जब इंदिरा गांधी अदालत से रिहा हो गईं तो वह हाथी पर बै"कर बाढ़ग्रस्त क्षेत्र का दौरा करने गई थीं। अखबारों में उनका इतना अधिक पचार हुआ कि उस धुंआधार पचार के बल पर वह अपना सिक्का जमाने में फिर सफल हो गईं। उस समय अखबार ही पचार के सबसे बड़े माध्यम थे।

कांग्रेस की पराजय के बाद जब केंद में जनता पार्टी की सरकार बनी थी तो उसने इमरजेंसी में हुए अत्याचारों की जांच के लिए शाह आयोग का ग"न किया था। उस समय शाह आयोग के सामने जनता के जो बयान हुए थे, वे रौंगटे खड़े कर देने वाले थे। बाद में जब इंदिरा गांधी पुनः सत्ता पर काबिज हो गई थीं तो उन्होंने शाह आयोग की उस रिपोर्ट को गायब करा दिया था। मोदी सरकार को चाहिए कि शाह आयोग की उस रिपोर्ट को किसी पकार फिर सामने लाए, ताकि जनता को इमरजेंसी की वास्तविकताओं एवं अत्याचारों का ज्ञान हो सके। इमरजेंसी के अत्याचारों से युक्त अध्याय को शिक्षण-संस्थाओं के पा"dयक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए। वह रिपोर्ट समस्त सार्वजनिक पुस्तकालयों में तथा हर-शिक्षण संस्था के पुस्तकालय में रखी जानी चाहिए। इससे जनता को यह शिक्षित एवं सचेत किया जा सकेगा कि वह भविष्य में किसी स्वार्थी वंश की स्वेच्छाचारिता का शिकार होने से बचे। यह कदम देश व लोकतंत्र के हित में होगा।

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