Home » द्रष्टीकोण » आसान नहीं है नीतीश कुमार की डगर

आसान नहीं है नीतीश कुमार की डगर

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:14 July 2018 2:49 PM GMT
Share Post

इन्दर सिंह नामधारी

भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने 12 जुलाई 2018 को पटना पधारकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ नाश्ता एवं रात्रिभोज में भाग लेकर यह उद्घोष कर दिया है कि भाजपा एवं जदयू का गठबंधन पक्का है तथा यह गठबंधन वर्ष 2019 में होने वाले संसदीय चुनावों में बिहार की सभी 40 सीटों पर जीत हासिल करेगा। अमित शाह की उपरोक्त घोषणा को सुनकर मुझे भारत के फक्कड़ फकीर कबीर जी की निम्नांकित साखी अचानक याद हो आई है जिसमें उन्होंने कहा कि,

पीया चाहे प्रेम-रस,

राखा चाहे मान।

एक म्यान में दो खड़ग,

देखा सुना न कान।।

अर्थात प्रेम एवं अहंकार दोनों एक साथ उसी तरह नहीं रह सकते जैसे एक म्यान में दो तलवारें नहीं रखी जा सकतीं। कबीर जी की उपरोक्त साखी मुझे इसलिए याद हो आई क्योंकि कुछ ही दिन पहले बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने दिल्ली में हुई जदयू की कार्यकारिणी की बैठक में यह घोषणा कर दी थी कि वे करप्शन (भ्रष्टाचार) एवं कम्युनलिज्म (सांप्रदायिकता) से कभी समझौता नहीं करेंगे। नीतीश जी की उपरोक्त प्रतिज्ञा को सबसे पहली चुनौती मिली केंद्रीय सरकार में राज्यमंत्री के पद पर बैठे श्री गिरिराज सिंह की ओर से। यह ज्ञातव्य है कि बिहार के नवादा में हुई एक दुर्दांत सांप्रदायिक घटना के आरोपियों से मिलन के लिए वे नवादा की जेल में गए और आरोपियों से मुलाकात करके उन्हें ढाढ्स बंधाया तथा पत्रकारों से मुखातिब होकर उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि बिहार सरकार की धर्मनिरपेक्षता का मतलब है हिन्दुओं को प्रताड़ित करना। गिरिराज सिंह के उपरोक्त बयान पर दिल्ली में हुई कार्यकारिणी की बैठक में तो नीतीश जी ने काफी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की लेकिन वे भूल गए कि गिरिराज सिंह पिछले चार वर्षों से इसी तरह के भड़काऊ बयान देते आ रहे हैं किन्तु प्रधानमंत्री सहित किसी भी केंद्रीय भाजपा नेता ने उनको कभी फटकार नहीं लगाई। इसका सीधा-सा अर्थ है कि भाजपा गिरिराज सिंह के बयानों को पसंद करती है। लोग भूले नहीं होंगे कि भाजपा के प्रवक्ता एवं पूर्व राज्यमंत्री श्री राजीव प्रताप रूढ़ी को तो मंत्रिमंडल से हटा दिया गया लेकिन गिरिराज सिंह यथावत मंत्री बने हुए हैं जबकि रूढ़ी बहुत सधी हुई भाषा में बोला करते थे। इस आलोक में यदि बिहार में भाजपा एवं जदयू का गठबंधन हो भी जाता है तो फिर सांप्रदायिकता के आरोप से नीतीश जी कैसे पिंड छुड़ाएंगे? संसदीय चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री का बिहार में भी तूफानी दौरा होगा और जब पिछले यूपी विधानसभा के चुनावों में प्रधानमंत्री जी ने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कब्रिस्तान एवं श्मशान का मुद्दा उठा दिया था तो बिहार में ऐसे बयान देने से क्या वे बाज आएंगे?

यूपी विधानसभा के चुनावों के दौरान संभावित मुख्यमंत्री के नाम को लेकर अटकलों का बाजार गरम था लेकिन सभी अटकलों को धत्ता दिखाते हुए भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को ही मुख्यमंत्री बनाया जो धार्मिक कट्टरता के प्रतीक माने जाते हैं। भाजपा के इस निर्णय से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए कट्टरपंथियों की आवश्यकता होती है। भाजपा का ऐसा रुख देखकर यह संभावना भी बन सकती है कि उदारवादी सुशील कुमार मोदी को दरकिनार करके गिरिराज सिंह को ही भाजपा ज्यादा प्रश्रेय देने लगे ताकि आगामी लोकसभा के चुनावों के दौरान ध्रुवीकरण का उसका मकसद पूरा हो सके। इस परिस्थिति में नीतीश कुमार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार सांप्रदायिकता से कैसे लड़ पाएंगे? यह ज्ञातव्य है कि केंद्रीय उड्डयन राज्यमंत्री श्री जयंत सिन्हा ने जब एक अलपसंख्यक की पीट-पीट कर मार देने वाले आरोपियों को उच्च न्यायालय से जमानत मिलने के बाद उनको अपने घर में बुलाकर फूल की मालाएं पहनाईं तो उनके ऐसा करने पर भाजपा के किसी नेता ने जयंत सिन्हा की आलोचना नहीं की यद्यपि उनके पिता श्री यशवंत सिन्हा ने अपने बेटे को नालायक कहकर अपना आक्रोश प्रकट कर दिया। पत्रकारों ने जब जयंत सिन्हा को हत्यारों को सम्मानित करने के मुद्दे पर घेरा तो उन्होंने खेद व्यक्त कर दिया लेकिन भाजपा के किसी नेता ने जयंत सिन्हा के ऐसा करने पर कोई खेद प्रकट नहीं किया। गिरिराज सिंह एवं जयंत सिन्हा के यह दो उदाहरण सिद्ध कर देते हैं कि आने वाले चुनावों में भाजपा किस रास्ते पर चलेगी?

इन परिस्थितियों में श्री नीतीश कुमार को एक यक्ष प्रश्न का उत्तर तो देना ही पड़ेगा कि भाजपा की इस मानसिकता के रहते हुए उससे गठबंधन करके वे सांप्रदायिकता से कैसे लड़ेंगे? वास्तव में भाजपा बड़ी सोची-समझी रणनीति के तहत पूंक-पूंक कर चल रही है क्योंकि उसे मालूम है कि वह कट्टरपंथियों के अधिकतर वोट लेकर अपनी नैया आसानी से पार कर लेगी लेकिन नीतीश जी को अतिपिछड़े वर्ग एवं मुस्लिम वोटों से हाथ धोना पड़ सकता है जिसके चलते चुनावों के दौरान उनकी स्थिति बड़ी दयनीय हो सकती है। यह ज्ञातव्य है कि देश का दलित वर्ग भी भाजपा से नाराज चल रहा है क्योंकि अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों को भी विगत दिनों काफी प्रताड़ित करने की घटनाएं हो चुकी हैं। वैसे भी नीतीश जी द्वारा कुछ महीनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बनाए गए जीतन राम मांझी भी उनको छोड़कर महागठबंधन में शामिल हो गए हैं। इस पृष्ठभूमि में संसदीय चुनावों के दौरान भाजपा तो कुछ हद तक सफलता हासिल कर लेगी लेकिन नीतीश कुमार को एक बड़े झटके का सामना करना पड़ सकता है। इस परिस्थिति में यह प्रासंगिक नहीं है कि भाजपा संसदीय चुनावों में जदयू को लोकसभा की कितनी सीटें देती है अपितु प्रश्न यह है कि नीतीश जी उन सीटों में से जीत कितनी सीटों पर हासिल कर सकेंगे?

विगत विधानसभा के चुनावों में नीतीश जी की पार्टी जदयू एवं लालू यादव की पार्टी आरजेडी में गठबंधन हुआ था और दोनों ने मिलकर भाजपा को बुरी तरह मात दे दी थी। लालू यादव जी को सजा मिलने के बाद नीतीश जी ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा देकर चुपके से भाजपा के साथ गठबंधन कर लिया और आसानी से पुन मुख्यमंत्री बन गए। इस कदम से उन मतदाताओं को निराशा हुई है जिन्होंने गठबंधन का वोट देकर नीतीश जी को सत्ता में बैठाया था। भ्रष्टाचार के नाम पर नीतीश जी लालू यादव को छोड़कर भाजपा के साथ आ तो गए लेकिन भाजपा के साथ रहकर वे सांप्रदायिकता से कैसे पिंड छुड़ा पाएंगे? नीतीश कुमार द्वारा चुना गया रास्ता कम कांटों भरा नहीं है क्योंकि एक तरफ जहां उन पर अवसरवादिता का आरोप लगेगा वहीं भाजपा के साथ रहकर उन्हें सांप्रदायिकता का दंश भी झेलना पड़ेगा। अंततोगत्वा चुनाव आने पर ही पता चल पाएगा कि चुनावी नतीजों का ऊंट किस करवट बैठता है?

(लेखक लोकसभा के पूर्व सांसद हैं।)

Share it
Top