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खुशी और दर्द के 70 साल
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कुलदीप नैयर
आजादी का जश्न मुझे अपने गृह-नगर में बिताए गए दिनों की याद दिला देता है। मैं कानून की डिग्री हासिल करने के बाद वकील बनने की तैयारी में था, लेकिन बंटवारे ने मेरी सारी योजना बिगाड़ दी। इसने मुझे वह जगह छोड़ने को मजबूर कर दिया, जहां मैं पैदा हुआ और मेरी परवरिश हुई। मैं जब भी इस बारे में सोचता हूं, यह एक उदासी भरी याद होती है।
लेकिन उम्मीद की किरण यह है कि इससे हिंदुओं और मुसलमानों का संबंध ज्यादातर बेअसर रहा।ं मेरे पिताजी, जो चिकित्सक थे, ने जब भी सियालकोट छोड़ने की सोची, उन्हें रोक लिया गया। एक दिन उन्होंने लोगों को बिना बताए यात्रा का फैसला किया। वे लोगों की नजर में आए बगैर टेन में चढ़ गए। कुछ देर बाद, पड़ोस के कुछ नौजवानों ने उन्हें पहचान लिया और उनसे आग्रह किया कि वे नहीं जाएं।
मेरे पिताजी ने कहा कि वे सिर्फ अपने बच्चों से मिलने जा रहे हैं, जो पहले से दिल्ली में हैं और जल्द ही लौट आएंगे। लेकिन नौजवान ह" कर रहे थे कि वे यात्रा नहीं करें। कुछ समय में, वे मान गए और उन्होंने मेरे माता-पिता से एक दिन बाद उसी ट्रेन से जाने के लिए कहा। उन्होंने ख्gाले तौर पर स्वीकार किया कि पास के नरोवाल ब्रिज पर इस ट्रेन के सभी यात्रियों की हत्या की योजना है।
और ऐसा हुआ। दूसरे दिन वे हमारे यहां आए और उन्होंने हमारे माता-पिता से कहा कि वे यात्रा कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि इसका इंतजाम किया गया है कि उनका सफर सुरक्षित रहे। उन्होने न केवल मेरे बीमार माता-पिता को पैदल पुल पार करने में मदद की, बल्कि उन्हें सरहद पर अलविदा भी कहा। मैं कुछ दिनों तक वहीं रूक गया था। मैं ने वाघा जाने के लिए एक दूसरी सड़क वाला रास्ता लिया। एक ब्रिगेडियर, जिसका तबादला भारत में हो गया था, जाने से पहले, मेरे पिताजी से यह कहने आया था कि क्या वह कोई मदद कर सकता है। मेरे पिताजी ने मेरी ओर देख कर ब्रिगेडियर से कहा था कि वह मुझे सरहद के पार ले जाए। मैंने सामानों से लदी एक जीप में पीछे बै"कर यात्रा की। सियालकोट अमृतसर जाने वाली मुख्य सड़क से थोड़ा हट कर है। लेकिन, मैं यह देख कर भौचक्का था कि यह सड़क सैकड़ों लोगों से भरी हुई थी। एक छोटी सी धारा पाकिस्तान में पवेश कर रही थी और, हमारी, बड़ी धारा अमृतसर की ओर जा रही थी। एक चीज पक्की थी कि वापसी नहीं हो सकती थी। मैं ने लाशों की बदबू महसूस की। लोग जीप को रास्ता दे देते थे।
एक जगह, लहराती दाढ़ी वाले एक बूढ़े सिख ने हमें रोका और हम से अपने पोते को उस पार ले जाने का आग्रह किया। मैंने उसे कहा कि मैंने अभी-अभी पढ़ाई पूरी की है और एक बच्चे को नहीं पाल सकता। उसने कहा कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता और आग्रह किया कि मैं उसे शरणार्थी शिविर में छोड़ दूं। सिख ने कहा कि वह जल्द ही शरणार्थी शिविर में अपने पोते के पास आ जाएगा। मैंने उसे मना कर दिया और आज भी उसका लाचार चेहरा मुझे परेशान करता है।
सियालकोट में, एक अमीर मुसलमान गुलाम कादर, ने अपने बंगले खोल दिए और मेरे पिता से कहा कि वे इसे तब तक अपने पास रखें, जब तक शहर में वह चीजें सुरक्षित महसूस न करें। बंगला खुद एक शरणार्थी शिविर बन गया और एक समय हम सौ लोग उसमें रहते थे। कादर हम सभी लोगों को राशन मुहैय्या करते थे और हमारा दूधवाला नियमित दूध पहुंचाता था।
जब मैं ने सरहद पार की तो मेरे पास सिर्फ एक छोटा थैला था जिसमें एक जोड़ी कपड़ा और 120 रुपए थे जो मेरी मां ने दिए थे। लेकिन मेरे पास बीए (आनर्स) और एलएल बी की डिग्री थी और मुझे यकीन था कि मैं अपनी जिंदगी फिर से बना लूंगा। लेकिन मैं अपने पिता को लेकर चिंतित था कि उन्हें जालंधर में फिर से सब कुछ शुरू करना था। और, वह कम दिनों में बहुत लोकपिय हो गए और सुबह से शाम तक मरीज उन्हें घेरे रहते थे।
मैं दिल्ली चला आया, जहां दरियागंज में मेरी मौसी रहती थी। जामा मस्जिद काफी नजदीक था और मैं यहीं खाता था क्योंकि यहां बढिया मांसाहारी भोजन सस्ता मिलता था। वहीं मेरी किसी से मुलाकात हो गई जो मुझे उर्दू अखबार, अंजाम में ले गया। और इस तरह मैं ने पत्रकारिता में अपना कैरियर शुरू किया। बाकी इतिहास है। लेकिन मैं उस पर ज्यादा चर्चा करना नहीं चाहता। क्या बंटवारा जरूरी था क्योंकि इसने दोनों तरफ दस लाख लोगों की जान ली? वह कड़वापन जारी है और वे अभी भी दुश्मनी के साथ जीते थे। भारत और पाकिस्तान तीन युद्ध, 1965, 1971 और 1999 में, लड़ चुके हैं। आज भी सीमा दुश्मनी से भरी है और सशस्त्र सैनिक गोली चलाने के लिए हरदम तैयार रहते है। हमने आजादी का 70वां दिवस मना लिया है। लेकिन सीमा पर नरमी, जिसकी मैंने कल्पना की थी, के बदले कंटीले तार हैं और हर समय गश्त जारी रहती है। लंबी सीमा पर सरगर्मी कभी कम नहीं होती। दोनों देशों के बीच कोई बातचीत नहीं है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि इस्लामाबाद से बातचीत नहीं हो सकती क्योकि वह घुसपै"ियों को पोत्साहित करता है।
पाकिस्तान कहता है कि वे इसके हिस्सेदार नहीं हैं और घुसपै"ियों की गतिविधियों पर उसका कोई नियंत्रण नहीं है। इसलिए दोनों पड़ोसी देश अभी भी एक दूसरे से दूर हैं, बिना संपर्क के। वीजा पाना बहुत क"िन हो गया है। दोनों तरफ, रिश्तेदार और दोस्त असली पीड़ित हैं।
पाकिस्तान किसी तरह के संबंध के पहले कश्मीर की समस्या का समाधान चाहता है। कश्मीर खुद एक लंबी कहानी है क्योंकि बंटवारे का फार्मूला सिर्फ भारत और पाकिस्तान को मान्यता देता है। कश्मीर घाटी की आजादी, जो वहां के लोग चाहते हैं, पर फिर से विचार और इसके बारे में सोचने के लिए इसमें कोई पावधान नहीं है। वास्तविकता है कि अपना लक्ष्य पाने के लिए उन्होंने बंदूक उ"ा लिए हैं। हाल ही में, मैं उनमें से कुछ से श्रीनगर में मिला और पाया कि वे घाटी को आजाद इस्लामिक राष्ट्र बनाने का ह" किए हैं। वे इस पर कितनी भी दलील को स्वीकार नहीं करते कि यह संभव नहीं है। मैं इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कश्मीर को आजादी देने के किसी पस्ताव पर हमारी संसद विचार करेगी। पाकिस्तान मानता है कि यह उसके लिए जीवन-रेखा है।
इसलिए, मैं आगे आने वाले 70 सालों में भी समस्या का कोई हल नहीं देख पाता हूं, उतना ही समय जो एक दूसरे पर गोली चलाने में हमने बर्बाद कर दिया है। पहली चीज होनी चाहिए कि संयुक्त राष्ट्र संघ में दी गई याचिका वापस ली जाए और पाकिस्तान को आश्वास्त किया जाए कि भारत इस्लमाबाद के साथ शांति और अच्छे संबंध चाहता है। शायद दोनों तरफ के मीडिया पमुख आमने-सामने बै"sं और कोई "ाsस पस्ताव तैयार करें, अगर यह संभव है।
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