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84 के सिख दंगों का आधा-अधूरा इंसाफ

👤 veer arjun desk 5 | Updated on:25 Nov 2018 3:42 PM GMT
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शकील सिद्दीकी

अंग्रेजी में एक कहावत है कि जस्टिस लेट इज जस्टिस डिनाइड यानि देर से दिया गए फैसले का मतलब फैसले से वंचित करना है। भारत की पधानमंत्री इंदिरा गांधी की मौत के बाद भड़के सिख दंगों के 34 साल गुजरने के बाद फैसला आया, वह भी आधा-अधूरा फैसला है। इस फैसले को सुनकर लोगों को वह मंजर याद आ गया जब पूर्व फ्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली सहित देश के कई शहरों में दंगे भड़क उ"s थे। पूर्व फ्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कई शहरों में दंगे भड़क उ"s थे। इसी दौरान साउथ दिल्ली के महिपालपुर इलाके में एक नवंबर 1984 को दो सिख युवकों की हत्या कर दी गई। उस समय पीड़ित हरदेव सिंह की उम्र 24 साल और अवतार सिंह की उम्र 26 साल थी। मंगलवार को इसी मामले में यशपाल और नरेश को सजा हुई है।

इससे पहले अदालत ने दोनों आरोपियों को आईपीसी की कई धाराओं के तहत दोषी "हराया था और फैसला सुनाए जाने के तुरंत बाद दोषियों को हिरासत में ले लिया गया था। अब इस फैसले को आने में इतनी देर लगी, उसे क्या समझा जाए? क्या इतनी देरी के पीछे भी राजनीति चल रही थी? जो आतुरता दूसरे मामले में दिखती है, वही आतुरता इसमें क्यों नहीं दिखी? हम सभी मानते हैं कि अपराधी का कोई धर्म नहीं होता है। फिर किसी व्यक्ति विशेष द्वारा की गई गलती की सजा पूरे समुदाय को क्यों भुगतना पड़े? ऐसा भी नहीं है कि और संफ्रदायों के लोग अपराध नहीं करते, पर एक व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध की सजा उसके पूरे संफ्रदाय को नहीं दी जा सकती है, जैसा कि सिख दंगों में हुआ था? उस समय की सरकार की फ्रशासनिक विफलता ने ही इसे इतने व्यापक ढंग से होने दिया था।

साढ़े तीन दशक पहले हुए सिख नरसंहार की दिल दहला देने वाली घटनों नई पीढ़ी को तो याद भी नहीं होंगी। उस समय के बहुत सारे लोग भी उम्रदराज होकर चल बसे। लेकिन जिन परिवारों ने अपने आंखों के सामने अपने परिजन की नृशंस हत्या देखी उनकी मनोदशा वही जानते हैं। इंदिरा जी की हत्या एक घृणित कृत्य था जिसका समर्थन कोई भी मानवतावादी नहीं कर सकता लेकिन दूसरी तरफ उसका बदला लेने के लिए दिल्ली में सैकड़ों सिखों का कत्लेआम किया जाना भी पूरी तरह से अमानुषिक था। भले ही श्रीमती गांधी के पुत्र स्व. राजीव गांधी ने ये कहते हुए कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तब धरती हिलती है, उस नरसंहार का बचाव किया किन्तु कोई भी समझदार व्यक्ति उस राक्षसी व्यवहार का अनुमोदन नहीं कर सकता। दुर्भाग्य की बात ये रही कि उस नृशंस अपराध के दोषी माने गए अनेक नेताओं को कांग्रेस ने सांसद, विधायक और मंत्री तक बनाया। लेकिन जो सबसे ज्यादा दुखद है वह किसी को भी कत्ल के आरोप में अब तक सजा नहीं मिलना।

2005 में, नानावती रिपोर्ट पर संसद में चर्चा के दौरान तत्कालीन फ्रधानमंत्री और कांग्रेस पार्टी के नेता मनमोहन सिंह, जो खुद एक सिख हैं, ने 1984 की सिख विरोधी हिंसा के लिए माफी मांगी थी। उन्होंने कहा था, `मुझे न केवल सिख समुदाय बल्कि पूरे देश से माफी मांगने में कोई हिचकिचाहट नहीं है क्योंकि 1984 में जो हुआ, वह राष्ट्रीयता की अवधारणा और हमारे संविधानिक मूल्यों के खिलाफ है। ऐसे में, मैं किसी झू"ाr फ्रतिष्"ा की जमीन पर खड़ा नहीं रहना चाहता। अपनी सरकार, इस देश की जनता की तरफ से, मैं शर्म से सिर झुकाता हूं कि ऐसी चीज हुई।' लेकिन साथ ही अपने भाषण में सिंह ने हत्याओं के लिए सरकार की जिम्मेदारी स्वीकार नहीं की। उन्होंने कहा, `रिपोर्ट हमारे सामने है जो एक बात जो स्पष्ट रूप से बताती है कि कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ कोई भी सबूत नहीं है।'

पूरे घटनाक्रम में चौंकाने वाली बात ये रही कि 1994 में तो दिल्ली पुलिस ने कुछ मामले बंद कर दिए क्योंकि वह समुचित सबूत आरोपियों के विरुद्ध नहीं जुटा सकी। लेकिन 2015 में मोदी सरकार ने विशेष जांच दल ग"ित कर दोबारा तहकीकात शुरू की और उसी का नतीजा ये है कि गत दिवस दो लोगों को सजा हुई जिनमें एक को फांसी तथा दूसरे को उम्र कैद की सजा के अलावा 35-35 लाख का अर्थदंड भी लगाया गया। अदालत के बाहर सिखों की भारी भीड़ फैसला सुनने जमा थी। ज्योंही उसकी जानकारी लगी त्योंही अनेक लोग बिलखते हुए कांग्रेस नेता जगदीश टाइटलर और सज्जन कुमार को भी दंडित किए जाने की उम्मीद जताते देखे गए। सिखों के कत्लेआम के एक और आरोपी कांग्रेस नेता हरिकिशन लाल भगत पहले ही दिवंगत हो चुके हैं। जिन दो आरोपियों को गत दिवस सजा दी गई अभी उनके पास अपील के कई अवसर उपलब्ध हैं। पता नहीं आखिरी फैसला होने में कितने बरस और लगेंगे? सिख समुदाय को इस बात का संतोष तो हुआ कि आखिरकार किसी को तो सजा मिली लेकिन दंडित दोनों व्यक्ति साधारण लोग हैं जबकि जिन दिग्गज कांग्रेस नेताओं को समूचे नरसंहार का निर्देशक माना जाता रहा वे अभी भी स्वतंत्र घूम रहे हैं।

इसका आशय ये हुआ कि विशेष जांच दल के हाथ भी अभी तक बड़े गुनाहगारों की गर्दन तक नहीं पहुंच सके हैं। इस आधार पर यही मानना पड़ेगा कि पूरे मामले का निपटारा होते-होते कई साल तो क्या कई दशक तक लग सकते हैं।

तब तक सिख नरसंहार के भुक्तभोगियों और आरोपियों में से कितने जीवित बचेंगे ये वह सवाल है जिसका उत्तर किसी के पास नहीं होगा। इस बारे में विचारणीय मुद्दा ये है कि सैकड़ों लोगों के सामूहिक कत्ल के अलावा हुई लूटपाट, आगजनी जैसे अकल्पनीय अपराध के महज दो अति साधारण से दोषियों को निचली अदालत से सजा दिलवाने में ही यदि तीन दशक से ज्यादा का वक्त लग गया तब जो लोग उस नरसंहार के असली कर्ताधर्ता रहे, उनकी गर्दन में कानून का फंदा कसने में तो न जाने कितना समय लग जाएगा और तब तक वे जिंदा भी रहेंगे या नहीं?

सच बात तो ये है कि 34 साल पहले देश की राजधानी दिल्ली में हुए उस भीषण नरसंहार की जांच और दोषियों को दंडित करने संबंधी पूरी फ्रक्रिया शासन-फ्रशासन के स्तर पर जिस तरह रुक-रुककर चली वह किसी भी ऐसे सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है जो कानून का राज होने का दावा करता हो। सिख समुदाय के शरीर पर लगे घाव भले ही भर गए हों, धन-संपत्ति, कारोबार को हुए नुकसान की भी भरपाई हो गई हो लेकिन मन पर लगे घाव अभी भी ताजे हैं।

गत दिवस आए अदालती फैसले ने थोड़ी उम्मीदें तो बढ़ाई हैं लेकिन जब तक किसी नामचीन आरोपी पर दंड फ्रक्रिया का शिकंजा नहीं कसता तब तक सिखों के कलेजे को "ंडक नहीं पहुंचेगी। इस पूरे मामले में राजनीति का जो घिनौना रूप सामने आया वह भी अत्यंत दुखद कहा जाएगा। कांग्रेस पार्टी को चाहिए था कि वह अपने स्तर पर ही उन बड़े नेताओं को दंडित कराने की पहल करती जिनकी सक्रिय भूमिका उस नरसंहार में स्पष्ट तौर पर सामने आ चुकी थी लेकिन बजाय उसके जांच बंद करवाकर उन्हें न सिर्प बचाया जाता रहा अपितु सरकारी पद देकर सिखों के जख्मों पर नमक छिड़कने की हिमाकत तक की गई। खैर, देर आए दुरुस्त आए की तर्ज पर गत दिवस दो लोगों को सजा मिलने से ये उम्मीद बढ़ चली है कि इंसाफ की डगर में अटकाए गए रोड़े हट जाएंगे और जगदीश टाइटलर तथा सज्जन कुमार जैसे चर्चित नेताओं पर भी समुचित कार्रवाई होगी।

ऐसा करना केवल सिख समुदाय की संतुष्टि के लिए नहीं बल्कि न्याय व्यवस्था के फ्रति सम्मान और विश्वास कायम करने के लिये आवश्यक है। यदि लगभग साढ़े तीन दशक बाद भी सैकड़ों निरपराध सिखों के हत्यारों को सजा नहीं दिलाई जा सकी तो शासन व्यवस्था की इससे बड़ी नाकामयाबी और क्या होगी? कल के फैसले के बाद थोड़ी उम्मीद तो बंधी है लेकिन इस मामले में अब तक हुई फ्रगति कतई संतोषजनक नहीं है। दिल्ली पुलिस द्वारा 1995 में संदर्भित फ्रकरण को जिस तरह से बंद किया गया। उसकी भी जांच होनी चाहिए। निरपराध व्यक्ति को जबरन थाने में बि"ाए रखने वाली पुलिस को बड़े लोगों के विरुद्ध सबूत-गवाह क्यों नहीं मिलते इस फ्रश्न का उत्तर भी खोजा जाना जरूरी है क्योंकि न्यायपालिका की पूरी कार्यफ्रणाली तो पुलिस अथवा जांच दल द्वारा जुटाए गए फ्रमाणों पर ही निर्भर होती है। आधा-अधूरा ही सही लंबे समय के बाद इस मामले में सजा सुनाए जाने से पीड़ितों के जख्मों पर थोड़ी मरहम तो लगी ही है, लेकिन अभी इंसाफ होना बाकी है।

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