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गौहत्या प्रतिबंध : खाने-पीने की आदत का मामला या कुछ और?

👤 admin5 | Updated on:14 Jun 2017 3:34 PM GMT
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बसंत कुमार

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने प्रदेश में चल रहे अवैध बूचड़खानों के विरोध में अभियान चला रखा था। इसी बीच एक मीट कारोबारी की याचिका पर विचार करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बेंच ने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 21 लोगों को जीवन जीने के अधिकार के तहत खाने-पीने की आजादी देता है। जस्टिस एपी शाही और जस्टिस संजय हरकौली की बेंच का यह फैसला केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के उस नोटिफिकेशन के पहले का है जिसके अनुसार मवेशियों के खरीद-फरोख्त के नियम और सख्त कर दिए गए हैं। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय का नया नोटिफिकेशन पशु कूरता निवारण अधिनियम 1960 के तहत ही एक संशोधन है। इसके अनुसार पशु मेलों से मवेशियों की खरीद करने वाले लोगों को एफिडेविट देना होगा कि खरीदे गए पशु का इस्तेमाल वे खेती के काम में ही कर सकेंगे। इन मवेशियों में गाय, बैल, सांड, बछिया, बछड़े, भैंस आदि शामिल हैं। खरीददार मवेशियों की छह महीने से पहले बिक्री नहीं कर सकेगा। इस नोटिफिकेशन के बाद तो देश में विभिन्न न्यायालयों ने इस विषय में तरह-तरह के फैसले दिए हैं। मद्रास होई कोर्ट की मदुरै बेंच ने केंद्र सरकार के हालिया नोटिफिकेशन पर चार सप्ताह का बैन लगा दिया है और इस विषय में अंतिम फैसला आना अभी बाकी है। तीसरा मामला केरल हाई कोर्ट की डिवीजन बेंच में था। बेंच ने यूथ कांग्रेस द्वारा नए नोटिफिकेशन को चुनौती देने वाली याचिका को खारिज कर दिया। केरल हाई कोर्ट ने कहा कि बूचड़खानों के लिए जानवरों का व्यापार पशु मेलों के बाहर भी किया जा सकता है। सबसे चर्चित फैसला राजस्थान उच्च न्यायालय का है। इसमें जस्टिस महेश चन्द शर्मा ने गौवंश का जिक्र करते हुए गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की सिफारिश की है। इस प्रकार विभिन्न न्यायालयों के फैसलों एवं सिफारिशों के बीच पशु कूरता से संबंधित नोटिफिकेशन गाय के सवाल पर आकर अटक गया है। जबकि सच्चाई यह है कि केंद्र सरकार का नोटिफिकेशन सिर्प गायों की नहीं बल्कि अन्य मवेशियों की चिन्ता करता है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव और कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने गौहत्या पर रोक लगाने का वादा किया था।

सत्ता में आने के पश्चात जब उन्होंने अपने चुनावी संकल्प को पूरा करने का प्रयास किया तो विपक्ष को इसमें राजनीति की गंध आने लगी और पूरे विपक्ष ने पशु कूरता निवारण अधिनियम को सिर्प गाय पर केंद्रित कर दिया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के नोटिफिकेशन के विरोध में कांग्रेस, ममता बनर्जी, वामपंथी पार्टियों ने इसको राजनीतिक रंग देने का फैसला किया है। जबकि कई राज्यों में गौमांस पर बैन नहीं है। केरल में कांग्रेस के नेताओं की अगुवाई में सरेआम चौराहे पर खुले वाहन में एक बछड़े को काट दिया गया। ऐसा कृत्य करने वाले लोग अपने बचाव में लोगों की फूड हैबिट्स का हवाला देते हैं। यह सच है कि भारत विविधता वाला देश है और विभिन्न प्रांतों में रहने वाले लोगों की फूड हैबिट्स और रहन-सहन अलग है लेकिन भारतीय संस्कृति में एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना सदैव सिखाया जाता रहा है। इसलिए केरल में हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करने के लिए बछड़े को सरेआम काटना पशुओं के प्रति कूरता व अनैतिक है। गाय हमारी लोक-जीवन का हिस्सा है उसे पूरे देश में खाद्य सामग्री का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता। केरल में कांग्रेस वामपंथियों के नक्शे कदम पर चलने का प्रयास कर रही है। वैसे भी आजादी के बाद से राज्य में कांग्रेस और वामपंथियों की एक के बाद एक की सरकार बनती रही है।

आबादी के हिसाब से यहां 22…, ईसाई, 27… मुस्लिम हैं और अच्छी-खासी जनसंख्या वामपंथी विचारधारा को मानती है। प्रदेश में लगभग 60… लोग मांसाहार करते हैं परन्तु विगत कुछ वर्षों में राज्य में लोग अपनी मूल संस्कृति और सभ्यता की ओर बढ़ रहे हैं। इसलिए वामपंथियों और कांग्रेसियों को अपने वोट बैंक को लेकर सतर्प होना आवश्यक है, जहां तक केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन का प्रश्न है तो बेहतर यह होगा कि इस सवाल को शाकाहारियों-मांसाहारियों और हिन्दू-मुस्लिम के बीच मसला न बनने दिया जाए। वैसे भी बीफ का मतलब गौमांस ही नहीं होता। आमतौर पर बीफ दो प्रकार का होता हैöएक, काराबीफ यानि भैंस का मांस और दूसरा, बीफ यानि गाय का मांस। भारत सहित अन्य कई देशों में बीफ को सिर्प गौमांस समझ लेने से भ्रम की स्थिति बन जाती है।

वैसे भारत कई देशों में काराबीफ यानि भैंस का मांस निर्यात करता है। यही नहीं, यह पूरी दुनिया में उपयोग होने वाले काराबीफ का पांचवां हिस्सा भारत अकेले ही आपूर्ति करता है।

जहां तक गायों के संरक्षण और संवर्द्धन की बात है तो हमारे पड़ोसी राज्य नेपाल में नवीन संविधान द्वारा गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित किया गया है। भारत भी एक कृषि-प्रधान देश है। इसकी ग्रामीण जनता की आजीविका का मुख्य साधन कृषि और पशुपालन है।

साथ ही भारतीय संविधान के अनुच्छेद-48 एवं 51() को ध्यान में रखते हुए सरकार से गायों के संरक्षण की आशा की जाती है परन्तु बंगाल तथा केरल सहित विभिन्न राज्यों में मोदी सरकार के पशु संरक्षण के नोटिफिकेशन को सांप्रदायिक चश्मे की नजर से देखा जा रहा है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और केरल कांग्रेस के नेता इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने में जुट गए हैं। वे इस मुद्दे को खानपान से जोड़कर मामले को अलग मोड़ देने की कोशिश कर रहे हैं।

30 मई को सुश्री ममता बनर्जी ने हत्या के उद्देश्य से पशुओं की खरीद-फरोख्त की रोक के निर्देश को संघीय ढांचे पर प्रहार बताया है। वैसे भी जब से ममता जी बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में सत्तासीन हुई हैं तब से बंगाल में गौवंश की हत्या का ग्राफ लगातार बढ़ता ही जा रहा है। उन्हें यह आशंका है कि केंद्र सरकार के इस फैसले से राज्य में बड़े पैमाने पर गौकशी बंद हो सकती है और इससे समुदाय विशेष का खानपान प्रभावित हो सकता है। यदि हम आबादी की बात करें तो देश में हिन्दुओं की संख्या 80… के करीब है और अधिकांश हिन्दू गाय की पूजा करते हैं। बीफ बकरे, मुर्गे एवं मछली की तुलना में सस्ता होने के कारण गरीब, दलित एवं अल्पसंख्यक अपने भोजन में इसका ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। देश में गौहत्या पर कोई कानून नहीं होने के कारण हर प्रदेश में अलग-अलग स्तर के कानून लागू हैं और यही सारे विवाद का कारण है। केंद्र सरकार के नोटिफिकेशन से गौमांस का कारोबार प्रभावित होने के साथ-साथ चमड़ा उद्योग भी बुरी तरह से प्रभावित होने की अशंका है अर्थात जो राज्य सरकारें इस नोटिफिकेशन का विरोध कर रही हैं उसका मुख्य आधार जनता की फूड हैबिट्स न होकर आर्थिक वजह है। आर्थिक वजहों के साथ-साथ इसका एक दूसरा पहलू भी है। वह यह है कि केंद्र सरकार इस फैसले को समुदाय विशेष के लिए उठाया हुआ कदम मान रही है जो सरासर गलत है। पशु कूरता निवारण अधिनियम 1960 के तहत यह नोटिफिकेशन एक स्वागत योग्य कदम है परन्तु इस अधिनियम के लागू होने के पश्चात चमड़ा उद्योग पर प्रभाव पड़ने के कारण लगभग 35 लाख लोगों की रोजी-रोटी प्रभावित होगी, सरकार को इन लोगों के रोजगार की वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी, साथ-साथ बीमार, बूढ़ी व दूध न देने वाली गायों की देखरेख के लिए पर्याप्त गौशालाओं और पशु चिकित्सकों की व्यवस्था करनी होगी तभी पशुओं पर हो रही कूरता पर काबू पाया जा सकेगा। इस समय स्वयंभू गौरक्षकों द्वारा कानून के हाथ में ले लेने से समाज में भय का माहौल बनने लगा है जिससे अल्पसंख्यक व दलित असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। इस कारण प्रशासन को इन स्वयंभू गौरक्षकों पर शिकंजा कसना अतिआवश्यक हो गया है।

(लेखक एक पहल नामक एनजीओ के राष्ट्रीय महासचिव हैं।)

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