भारत बना चीन की मजबूरी
-आदित्य नरेन्द्र
विश्व के चौथे सबसे बड़े क्षेत्रफल और सर्वाधिक आबादी वाले देश चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिग की महाबलीपुरम यात्रा लगातार दो दिनों तक भारत व चीन के साथ-साथ विश्वभर की मीडिया की सुर्खियां बनीं। लेकिन उनकी यह भारत यात्रा ऐसे समय में हो रही है जब चीन पिछले कईं सालों की सबसे गंभीर आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। वर्ष 2017 में 12.24 ट्रिलियन डॉलर की इकोनॉमी वाले चीन की आर्थिक वृद्धि दर 6.9 थी लेकिन अमेरिका के साथ गंभीर व्यापारिक मतभेदों के चलते उसे गंभीर आर्थिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसके चलते उसकी अर्थव्यवस्था सुस्त हो रही है। चीन का औदृाोगिक उत्पादन 17 साल के सबसे निचले स्तर पर पहुंच रहा है। आईंएमएफ ने उसकी आर्थिक वृद्धि दर का पूर्वानुमान घटाकर 6.2 प्रातिशत कर दिया है। यदि अमेरिका ने चीन के साथ व्यापार युद्ध में चीनी उत्पादों पर टैक्स की और वृद्धि की तो चीन की आर्थिक वृद्धि दर में और गिरावट आ सकती है।
ऐसे में दुनिया की पैक्ट्री कहे जाने वाले चीन से हजारों विदेशी वंपनियां बाहर निकल सकती हैं। इस माहौल में चीनी राष्ट्रपति की भारत यात्रा उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण है इसे सहज ही समझा जा सकता है। उन्हें अपने देश की अर्थव्यवस्था की गति को यदि पहले की तरह बनाए रखना है तो तेजी से आर्थिक प्रागति करते हुए भारत को साथ लेना उसकी मजबूरी है। चीन के प्रामुख अखबार ग्लोबल टाइम्स ने तो स्पष्ट रूप से यह कह भी दिया है कि 21वीं सदी को एशिया की सदी बनाना भारत के बिना संभव नहीं है। वजह स्पष्ट है कि आने वाले दशकों में भारत के पास सबसे युवा आबादी होगी जो कार्यंवुशल होने के साथ-साथ खुले हाथ से खर्च भी करेगी। जबकि चीन में एक परिवार एक बच्चा की नीति के चलते आने वाले समय में उसके पास उत्पादन करने के लिए युवाओं की कमी हो सकती है।
चीन की एक बड़ी चिन्ता यह भी है कि उसकी बीआरआईं परियोजना को उतनी सफलता न मिलने की आशंका व्यक्त की जा रही है जितनी चीनी नेताओं ने उम्मीद की थी। सीपीईंसी को लेकर भी भारत अपना विरोध दर्ज करा चुका है। जाहिर है कि चीन का आर्थिक वातावरण उसके पक्ष में नहीं है। अमेरिकी रणनीति का मुकाबला करने के लिए वह आरसीईंपी का सहारा लेना चाहता है। आरसीईंपी एक ऐसा क्षेत्रीय संगठन है जिसमें वह 10 आसियान देशों के साथ जापान, दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड व भारत को शामिल करना चाहता है। वह चाहता है कि इस ग्राुप के सभी देशों के बीच एक प्री ट्रेड एग्रीमेंट जल्दी से जल्दी हो ताकि वह अमेरिका से हुए व्यापार युद्ध के नुकसान की भरपायी कर सके। उधर भारत को लगता है कि इस प्री ट्रेड एग्रीमेंट से उसे शुरू में नुकसान होगा।
इसीलिए वह सतर्वता के साथ इस मुद्दे पर आगे बढ़ना चाहता है। ऐसे माहौल में भारत के पास एक बेहतरीन अवसर है कि वह चीन की आर्थिक मजबूरियों को अपने हित में इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़े। भारत और चीन दोनों ही देशों के आपस में उलझे हुए रिश्ते किसी भी देश के हित में नहीं है। भारतीय दृष्टिकोण से आर्थिक मुद्दों के साथ-साथ कईं ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें जल्द सुलझाए जाने की जरूरत है। इनमें आतंकवाद और सीमा विवाद शामिल हैं। भारत के लिए भी उसका चीन के साथ व्यापार घाटा बेहद चिन्ता का विषय रहा है। वर्ष 2017- 18 में यह लगभग 60 अरब डॉलर का था जो कि 2018-19 में वुछ घटकर 53 अरब डॉलर का रह गया। जहां तक आतंकवाद का सवाल है तो चीन अकसर हमें इस मामले में पाकिस्तान के साथ खड़ा दिखाईं देता है। सीमा विवाद में भी स्थिति जस की तस है और हम यही कहकर खुश हो जाते हैं कि कईं दशकों से भारत-चीन सीमा पर एक भी गोली नहीं चली।
हालांकि भारत अमेरिका और चीन दोनों देशों के साथ संतुलित रिश्तों का पक्षधर है और एक की कीमत पर दूसरे के साथ रिश्ते नहीं बनाना चाहता। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि भारत-चीन दोनों देशों के बीच आज भी विश्वास की बेहद कमी है। बुहान के बाद महाबलीपुरम समिट से दोनों देश विश्वास बहाली की ओर बढ़े हैं। इस समय भारत चीन के साथ व्यापारिक एवं राजनीतिक सौदेबाजी करने के लिए बेहतर स्थिति में है। उम्मीद है कि प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस स्थिति को भारत के पक्ष में मोड़ने में कामयाब रहेंगे।