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हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव : भाजपा कमजोर हुईं या विपक्ष मजबूत हुआ

👤 manish kumar | Updated on:29 Oct 2019 9:08 AM GMT

हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव : भाजपा कमजोर हुईं या विपक्ष मजबूत हुआ

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-आदित्‍य नरेन्‍द्र

हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा 2019 के चुनाव परिणाम आने के बाद एक ओर जहां हरियाणा में मुख्यमंत्री मनोहर लाल शपथ ले चुके हैं वहीं दूसरी ओर महाराष्ट्र में अगले कुछ दिनों में भाजपा-शिवसेना द्वारा सरकार गठित किए जाने की उम्मीद है। लेकिन एक सवाल जो इन चुनावों से निकला है वह यह है कि इन चुनावों में भाजपा कमजोर हुईं है या विपक्ष मजबूत दिखाईं दिया है।

राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा जनादेश की चीर-फाड़ के बीच यह कहा जा रहा है कि दोनों राज्यों में भाजपा की सत्ता वापसी किसी उपलब्धि से कम नहीं है। इसे कम करके नहीं आंका जाना चाहिए। उधर हरियाणा में कांग्रोस और महाराष्ट्र में एनसीपी के प्रादर्शन की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसे में इस जनादेश से निकले संदेश को समझने के लिए दोनों राज्यों की राजनीति और वहां के राजनीतिक हालात को भी समझना होगा। पहले हरियाणा की बात की जाए। हरियाणा में भाजपा ने 2014 के विधानसभा चुनावों में 47 सीटें हरियाणा-महाराष्ट्र चुनाव : भाजपा कमजोर हुईं या विपक्ष मजबूत हुआ जीतकर स्पष्ट बहुमत हासिल किया था और सरकार बनाईं थी लेकिन 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा सिर्प 40 सीटें ही जीत पाईं। लेकिन भाजपा इन चुनावों में भी सबसे बड़ी पाटा बनी हुईं है जो स्पष्ट बहुमत से छह कदम दूर रह गईं है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा के लगभग आधा दर्जन मंत्री और प्रादेशाध्यक्ष चुनाव हार गए।

यदि यह आधा दर्जन मंत्री और प्रादेशाध्यक्ष अपनी-अपनी सीटें ही निकाल लेते तो भाजपा इस बार भी अपने दम पर ही दोबारा सरकार बनाने मे कामयाब रहती। टिकटों का गलत आबंटन भी भाजपा की हार की एक प्रामुख वजह बना है। जो निर्दलीय जीते हैं उनमें पांच ऐसे हैं जो भाजपा से टिकट मांग रहे थे लेकिन उन्हें भाजपा से टिकट नहीं मिली। जाहिर है कि यदि टिकट आबंटन में लापरवाही न बरती जाती तो भी भाजपा स्पष्ट बहुमत पा सकती थी। जहां तक कांग्रोस और इनेलोजेजेपी का सवाल है तो इसमें कोईं शक नहीं कि कांग्रोस ने 2014 के विधानसभा चुनावों में सिर्प 15 सीटें जीती थीं जो अब बढ़कर दोगुने से भी ज्यादा 31 हो गईं हैं। अब देखना यह है कि कांग्रोस का बढ़ा हुआ वोट शेयर अगले पांच वर्षो तक कांग्रोस के साथ बना रहता है या नहीं। कांग्रोस इसे बचाए रखने और भाजपा इसे पाने के लिए क्या कोशिश करती है इस पर भी नजर रखनी होगी। जहां तक इनेलो-जेजेपी का सवाल है तो पिछले विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला इनेलो में ही थे। उस समय इनेलो को 19 सीटें मिली थीं जबकि इस बार जेजेपी को 10 और इनेलो को मात्र एक सीट मिली है। इस तरह दोनों ने अलग-अलग चुनाव लड़कर आठ सीटें खोईं हैं।

हरियाणा में सत्तारूढ़ भाजपा यदि अति-आत्मविश्वास का शिकार दिखाईं दी है तो कांग्रोस को जरूरी पैसलों में देरी करने का खामियाजा भुगतना पड़ा है। उधर महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने सत्ता में वापसी कर ली है परन्तु यहां भी भाजपा की सीटें हरियाणा की तरह कम हुईं हैं। जिस तरह हरियाणा में जाट भाजपा से नाराज दिखाईं दे रहे थे उसी तरह महाराष्ट्र में मराठा फड़नवीस सरकार से नाखुश थे। शरद पवार के साथ उनकी एकजुटता ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। मतदाताओं ने कांग्रोस-एनसीपी से भाजपा में गए कईं दलबदलुओं को खारिज कर दिया। इन दलबदलुओं को टिकट देने का असर उन भाजपा कार्यंकर्ताओं पर भी पड़ा जो भाजपा का टिकट चाहते थे लेकिन पैराशूट से दलबदलू उम्मीदवार को टिकट देने दृष्टिकोण . आदित्य नरेन्द्र के चलते वह टिकट से वंचित रह गए थे।

महाराष्ट्र में एनसीपी ही एकमात्र ऐसी राजनीतिक पाटा है जिसने अपने प्रादर्शन में उल्लेखनीय सुधार किया है। भाजपा को मराठाओं की नाराजगी के साथ-साथ लगातार तीन साल तक राज्य में पड़े सूखे से भी नुकसान उठाना पड़ा है। हालांकि सत्ता में वापसी से भाजपा को दोनों राज्यों में खुद को मजबूत करने का एक और मौका मिला है लेकिन इसमें भी कोईं शक नहीं है कि दोनों राज्यों में अभी तक बेसुध पड़े विपक्ष में एक नईं ऊर्जा का संचार हुआ है। फिलहाल स्थिति यह है कि मतदाताओं ने भाजपा को इतना कमजोर नहीं किया कि उसे सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाए और न ही विपक्ष को इतना मजबूत किया है कि उसे सत्ता सौंप दी जाए। दोनों राज्यों के मतदाताओं का संदेश स्पष्ट है कि राज्य सरकारें स्थानीय मुद्दों पर ज्यादा ध्यान दें। खेती की समस्याओं और रोजगार के मोच्रे पर सरकार की नाकामी मतदाता पसंद नहीं करेंगे।

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