महाराष्ट्र : आखिर क्यों उड़ रहा है जनादेश का मजाक
-आदित्य नरेन्द्र
ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि आपसी विवाद के चलते क्या भाजपा इतनी दूर तक जाएगी कि महाराष्ट्र की सत्ता पूरी तरह उसके हाथ से फिसल जाए या शिवसेना वाकईं भाजपा से ढाईं दशक पुराना नाता तोड़कर एनसीपी-कांग्रोस से हाथ मिला लेगी।
महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में चुनाव से पूर्व बने भाजपा-शिवसेना के राजनीतिक गठबंधन ने स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया है लेकिन इसके बाद भी अब जब 10 दिन से भी ज्यादा का समय हो गया है, वहां भाजपा-शिवसेना के बीच उभरे मतभेदों के चलते सरकार का गठन होना तो दूर की बात है अभी तक राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा भी पेश नहीं किया गया है।
आजाद भारत के इतिहास में यह शायद पहला अवसर होगा जब किसी चुनाव पूर्व बने गठबंधन द्वारा स्पष्ट बहुमत पाने के बाद छोटी पाटा बड़ी पाटा के सामने मुख्यमंत्री पद की मांग को लेकर इस कदर अड़ गईं हो। ऐसे हालात में नैतिक रूप से तो मुख्यमंत्री पद पर बड़ी पाटा का ही दावा बनता है और वह होना भी चाहिए लेकिन इसे नकारते हुए महाराष्ट्र में एक ओर जहां शिवसेना की तरफ से रोज नए-नए बयान सामने आ रहे हैं वहीं भाजपा नेतृत्व लगभग चुप्पी साधे बैठा है। उसकी तरफ से सिर्प दो-तीन उल्लेखनीय बयान सामने आए हैं जिसमें से दो देवेंद्र फड़नवीस ने दिए हैं। एक बयान में उन्होंने राज्य में गठबंधन की ही सरकार बनने की बात की है जबकि दूसरे बयान में उन्होंने कहा है कि वही दोबारा मुख्यमंत्री बनेंगे। एक अन्य भाजपा नेता की तरफ से आए बयान में राज्य में राष्ट्रपति शासन के विकल्प की तरफ इशारा किया गया है। महाराष्ट्र की जनता बेहद भ्रमित है। उसे समझ नहीं आ रहा है कि जब उसने भाजपा-शिवसेना को स्पष्ट बहुमत दे दिया है तो सरकार गठन में अड़चन क्यों आ रही है। वह जानना चाहती है कि आखिर उसके दिए जनादेश का मजाक क्यों उड़ाया जा रहा है।
दरअसल जब राजनीतिक आकांक्षाएं या मजबूरियां एक हद से आगे बढ़ जाती हैं तो ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं। इस बार शिवसेना के सामने ऐसे ही हालात हैं। उसकी यह महत्वाकांक्षा सत्ता के रथ पर सवार होकर पाटा को विस्तार देने की है। लगभग ढाईं दशक पहले 1995 में जब भाजपा-शिवसेना गठबंधन बना था तो कहा गया था कि शिवसेना महाराष्ट्र में बड़ी पाटा के रूप में रहेगी जबकि भाजपा बाकी पूरे देश में बड़े भाईं की भूमिका निभाएगी।
इसी फार्मूले के तहत शिवसेना महाराष्ट्र में विधानसभा की ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ती थी जबकि भाजपा लोकसभा में ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारती थी। 2014 आते- आते यह फार्मूला उस समय हांफने लगा जब मोदी लहर में शिवसेना ने भाजपा की ज्यादा सीटों की मांग को ठुकरा दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि भाजपा और शिवसेना अलग- अलग विधानसभा चुनाव लड़े। उधर विपक्ष में कांग्रोस और एनसीपी भी अलग-अलग चुनाव मैदान में थे। इस चौकोणीय मुकाबले में भाजपा 122 सीटों के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी जबकि शिवसेना 63 सीटों के साथ कहीं पीछे छूट गईं। चूंकि भाजपा उस समय भी बहुमत से पीछे थी ऐसे समय में एनसीपी की मदद से राज्य में सरकार बनने की संभावना थी। यह देखकर शिवसेना भाजपा के पास लौट तो आईं लेकिन बड़े भाईं से छोटा भाईं बनने की टीस उसके अंतर्मन में कहीं न कहीं मौजूद रही।
इस बार विधानसभा चुनाव के दौरान मराठा क्षत्रप और एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार के ईंडी प्राकरण के बाद शिवसेना नेतृत्व को सौ फीसदी भरोसा है कि एनसीपी किसी भी कीमत पर भाजपा के साथ हाथ नहीं मिलाएगी। यही वजह है कि जिसके चलते शिवसेना नेता संजय राउत अपने तीखे बयानों के जरिये भाजपा पर दबाव बनाने का लगातार प्रायास कर रहे हैं। हुसैन दलवईं जैसे कांग्रोसी नेता राज्य में शिवसेना के नेतृत्व में सरकार बनाने का समर्थन कर भाजपा-शिवसेना विवाद में तड़का लगा रहे हैं। लेकिन भाजपा से अलग होकर शिवसेना के लिए सरकार बनाना इतना आसान भी नहीं है। कहा जा रहा है कि यह सारा विवाद मलाईंदार कहे जाने वाले मंत्रालयों को लेकर है जिसे सीएम पद की मांग की आड़ में छुपाया जा रहा है। अगर शिवसेना एनसीपी और कांग्रोस के साथ मिलकर सरकार बनाना चाहती है तो मलाईंदार मंत्रालय इन्हीं तीनों दलों के बीच बंटेंगे जबकि भाजपा-शिवसेना गठबंधन में सिर्प दो ही दावेदार हैं।
यदि शिवसेना को एनसीपी और कांग्रोस बाहर से समर्थन देती है तो ऐसी सरकार ज्यादा दिनों तक चलेगी इसमें संदेह है क्योंकि यह दोनों पार्टियां कभी नहीं चाहेंगी कि शिवसेना मजबूत होकर भविष्य में उन्हें चुनौती दे। एनसीपी के लिए तो लंबे समय तक शिवसेना का साथ देना और भी मुश्किल है क्योंकि दोनों के पास मराठी वोट बैंक अच्छा- खासा है। शिवसेना की हिन्दुत्व वाली छवि को पचाना भी एनसीपी-कांग्रोस के लिए आसान नहीं होगा। उधर भाजपा की रणनीति शिवसेना को थकाने की लगती है। ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि आपसी विवाद के चलते क्या भाजपा इतनी दूर तक जाएगी कि महाराष्ट्र की सत्ता पूरी तरह उसके हाथ से फिसल जाए या शिवसेना वाकईं भाजपा से ढाईं दशक पुराना नाता तोड़कर एनसीपी-कांग्रोस से हाथ मिला लेगी। यदि ऐसा हुआ तो खांटी हिन्दुत्व की विचारधारा वाले अपने प्रातिबद्ध वोटरों को शिवसेना क्या जवाब देगी।