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गैस चैंबर बनी दिल्ली, तिलतिल मरते लोग

👤 Veer Arjun | Updated on:18 Nov 2019 7:03 AM GMT

गैस चैंबर बनी दिल्ली, तिलतिल मरते लोग

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-आदित्य नरेन्द्र

वायु प्रादूषण जैसी खतरनाक स्थितियों से अपने नागरिकों को बचाने की जिम्मेदारी वेंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर है। यदि समय रहते इस मामले में वुछ ठोस कदम तुरन्त नहीं उठाए गए तो स्थिति हाथ से निकल सकती है। दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य पिछले वुछ हफ्तों से एक बार फिर खतरनाक वायु प्रादूषण की चपेट में हैं।

वायु प्रादूषण का स्तर सुधारने के लिए राजधानी में चल रही सम-विषम योजना अब समाप्त हो चुकी है। लेकिन वायु प्रादूषण के खतरनाक स्तर से लोग अभी भी जूझ रहे हैं। वायु प्रादूषण का सीधा सादा अर्थ है कि वातावरण में ऑक्सीजन की अत्याधिक कमी और हवा में जहरीली गैसों की उपस्थिति।

वायु प्रादूषण की तीव्रता उसमें तैरती हुईं जहरीली गैसों के कणों पर निर्भर करती है। सामान्यतय 0.1 से 0.25 माइक्रोन के कण जहरीले होते हैं। पांच माइव््राोन से बड़े जहरीले कण सांस से संबंधित बीमारियों को उत्पन्न करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप प्रादूषण न केवल हमारे शारीरिक स्वास्थ्य बल्कि हमारे मानसिक स्वास्थ्य को भी प्राभावित करता है।

जिसके चलते उत्पादन घटता है और देश को आर्थिक हानि उठानी पड़ती है। इससे कितना नुकसान हो रहा है इसका अंदाजा पिछले दिनों आईं एक खबर से लगा जिसमें कहा गया था कि प्रादूषण के चलते दिल्ली में लोग 10 साल तक कम जी रहे हैं। स्पष्ट है कि दिल्ली चाहे- अनचाहे एक गैस चैंबर में तब्दील हो चुकी है और यहां पर लोग तिलतिल कर मरने को मजबूर हैं। विश्व के सर्वाधिक प्रादूषित शहरों में शामिल दिल्ली का भला अब प्रादूषण कम करने वाली छिटपुट योजनाओं से होने वाला नहीं है। यह ठीक है कि सम-विषम जैसी योजना से वुछ हद तक फायदा हुआ है जिसे खारिज नहीं किया जा सकता। हालांकि विशेषज्ञों की राय इस योजना पर बंटी हुईं है। वुछ पर्यांवरण विशेषज्ञों का कहना है कि इस योजना का वायु गुणवत्ता पर कोईं फर्व नहीं पड़ा। इससे सिर्प इतना हुआ है कि सड़कों पर वाहनों की भीड़ वुछ कम हुईं है।

महिला ड्राइवरों, कॉमर्शियल और दोपहिया वाहनों को मिली छूट के चलते इस योजना का लाभ घट गया। एक अन्य पर्यांवरणविद सम-विषम को एक आपात उपाय बताते हुए कहते हैं कि जब प्रादूषण इतना अधिक है तो सरकार को प्रादूषण कम करने के लिए सभी विकल्पों का इस्तेमाल करना चाहिए।

राजधानी के वुल प्रादूषण में वाहनों से होने वाले प्रादूषण का हिस्सा 28 प्रातिशत है। इसका अर्थ है कि 72 प्रातिशत प्रादूषण अन्य कारणों से होता है। इसमें बड़ा हिस्सा पड़ोसी राज्यों में पराली जलाने से होने वाले प्रादूषण का भी है जिसका सीधा असर दिल्ली पर पड़ता है। इसकी बड़ी वजह हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रादेश में धान की बुवाईं और उसका समय है। धान की फसल में एक तो पानी बहुत ज्यादा खर्च होता है दूसरे फसल काटने के बाद किसान उसके ठूंठ जिसे पराली कहते हैं, जला देते हैं क्योंकि इसे मानवीय श्रम से हटाने में खर्च काफी है और इसे हटाने वाली मशीनें भी महंगी हैं। अफसोस यह है कि इस समस्या से निपटने के लिए जमीनी स्तर पर ज्यादा वुछ नहीं किया गया। इसे लेकर जनप्रातिनिधियों और सरकारी अधिकारियों का निराशाजनक रवैया उस समय देखने को मिला जब दिल्ली- एनसीआर में वायु प्रादूषण की गंभीर स्थिति पर चर्चा के लिए शुव््रावार को आयोजित संसदीय समिति की बैठक में 28 में से सिर्प चार सांसद पहुंचे।

इसके अलावा कईं शीर्ष अधिकारी भी बैठक से अनुपस्थित रहे। नेताओं और अधिकारियों का यह हाल तब है जब वह और उनके परिजन इसी प्रादूषित वातावरण में रहते हैं और सांस लेते हैं। इसी बीच दिल्ली-एनसीआर में बढ़ते प्रादूषण को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाईं शुरू हो गईं है। वेंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर वायु प्रादूषण का डेटा भी दिया है। वेंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि वायु प्रादूषण को लेकर एक साल की स्टडी की जरूरत पड़ेगी। कोर्ट ने किसानों को पराली जलाने से रोकने के लिए क्या कदम उठाए गए इसके जवाब के लिए एक बार फिर हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रादेश और दिल्ली के मुख्य सचिवों को तलब किया है। इन चारों राज्यों को 26 नवम्बर तक हलफनामा दायर करना है। उधर दिल्ली में प्रादूषण को एक व्यापारिक अवसर समझते हुए ऑक्सीजन बार खुलने शुरू हो गए हैं। लेकिन यह समस्या का निदान नहीं है। वायु प्रादूषण जैसी खतरनाक स्थितियों से अपने नागरिकों को बचाने की जिम्मेदारी वेंद्र और राज्य दोनों सरकारों पर है। यदि समय रहते इस मामले में वुछ ठोस कदम तुरन्त नहीं उठाए गए तो स्थिति हाथ से निकल सकती है। उम्मीद है कि सरकारें वोट की राजनीति से ऊपर उठकर वुछ कड़े और बड़े कदम उठाएंगी।

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