संस्कृत गैर-हिन्दुओं के लिए भी रोजगार का जरिया क्यों न बने
-आदित्य नरेन्द्र
विश्व की प्राचीनतम भाषाओं में से एक संस्कृत आज आधुनिक विश्व में ऐसे दोराहे पर खड़ी हुईं है जहां उसे न केवल बचाने बल्कि आगे बढ़ाने की चुनौती भी हमारे सामने है। देश में अंग्रोजी भाषा के बढ़ते वर्चस्व के आगे जहां अन्य भाषाएं जूझ रही हैं वहीं संस्कृत के प्राचारप्रासार के लिए भी हालात बहुत बेहतर नहीं कहे जा सकते। चूंकि हिन्दुओं के आदिग्रांथ और पूजा-पाठ के मंत्र संस्कृत में ही हैं। ऐसे में संस्कृत का हिन्दुओं के लिए धार्मिक दृष्टि से भी विशेष महत्व है। कईं संस्थाएं और विद्वान अपने-अपने स्तर पर संस्कृत को आगे बढ़ाने की कोशिशों में जुटे हैं। लेकिन इन कोशिशों को लगभग दो सप्ताह पहले उस समय झटका लगा जब बीएचयू के संस्कृत विदृा धर्म विज्ञान संकाय में एक मुस्लिम शिक्षक फिरोज खान की नियुक्ति कर दी गईं।
यह खबर मिलते ही छात्रों का एक धड़ा यह कहते हुए इस नियुक्ति के विरोध पर उतर आया कि संस्कृत भाषा तो कोईं भी पढ़ और पढ़ा सकता है। इस पर हमारा ऐतराज नहीं है। हमारा ऐतराज तो इस बात पर है कि किसी दूसरे धर्म का व्यक्ति सनातन धर्म की बारीकियां, महत्व और आचरण के बारे में वैसे पढ़ा सकता है। अब सवाल उठता है कि यदि फिरोज खान की नियुक्ति उनके सभी मापदंडों पर खरा उतरने के बाद की गईं थी तो फिर छात्रों के एक वर्ग द्वारा उनके विरोध का क्या औचित्य रहसंस्कृत गैर-हिन्दुओं के लिए भी रोजगार का जरिया क्यों न बने
जाता है। क्या इस नियुक्ति को धार्मिक और प्राशासनिक दो अलग- अलग दृष्टियों से देखना चाहिए था। एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में जहां सभी धर्मो के लोग मिलजुल कर रहते हैं वहां क्या ऐसी मांग जायज है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से जुड़ी संस्था संस्कृत भारती ने भी फिरोज खान का समर्थन करते हुए पूछा है कि किसी मुस्लिम के संस्कृत पढ़ाने में गलत क्या है। उसका कहना है कि संस्कृत भारती पूरी दुनिया को संस्कृत भाषा सिखाने में जुटी है।
भारत ही नहीं यह संस्था अरब देशों में भी सक्रिय है। डॉक्टर फिरोज खान उन हजारों लोगों में से एक हैं जिन्हें हमने प्राशिक्षित किया है। उधर दोतीन दिन पहले कोलकाता के समीप बेलूर कॉलेज के संस्कृत विभाग में भी एक मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति की खबर आईं है। रमजान अली नाम के इन मुस्लिम शिक्षक की नियुक्ति बेलूर के रामवृष्ण मिशन विदृा मंदिर में की गईं है। अपनी नियुक्ति के बाद रमजान अली ने कहा कि संस्कृत भारत की समावेशी प्रावृत्ति और समृद्ध परंपरा को परिलक्षित करती है। यह मत भूलिए कि संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। संस्कृत के इस महत्व को देशविदेश के विभिन्न धर्मावलंबियों ने समझा है और अपना समय व ऊर्जा इसे आगे बढ़ाने में लगाईं है।
इस क्षेत्र में जहां हम अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जर्मन विद्वान मैक्स मूलर के योगदान को याद करते हैं वहीं देश में ही संस्कृत के प्राकांड ज्ञाता पाश्री मोहम्मद हनीफ खान शास्त्री, वाराणसी की पाश्री नाहिद आबिदी, मुंबईं के गुलाम दस्तगीर, प्रायागराज के हयातुल्ला और मेरठ के शाहीन जमाली (जिन्हें चारों वेदों पर समान रूप से पकड़ होने के चलते मौलाना चतुव्रेदी के नाम से जाना जाता है) जैसे न जाने कितने लोग हैं जो संस्कृत के जरिये न केवल देश के सामाजिक तानेबाने को मजबूत कर रहे हैं बल्कि संस्कृत भाषा के जरिये देश की अनमोल विरासत को भी दुनिया के सामने लाने का प्रायास कर रहे हैं। लाख प्रायास के बावजूद भी हम हिन्दी को उसका वह स्थान नहीं दिला पाए हैं जो वास्तव में उसे मिलना चाहिए था तो फिर संस्कृत के बारे में ऐसा सोचना तो अभी दूर की कौड़ी लगता है।
यदि हम वास्तव में संस्कृत को उसका वही स्थान दिलाने का प्रायास करना चाहते हैं जो उसे मिलना चाहिए तो हमें इस मुहिम में हिन्दुओं के साथ गैर-हिन्दुओं को भी शामिल करना होगा। संस्कृत का अपने प्राचीन विराट स्वरूप में दुनिया के सामने आना अभी बाकी है। यदि हम वास्तव में संस्कृत का विकास चाहते हैं तो हमें इस प्राश्न पर भी गंभीरतापूर्वक सोचना होगा कि संस्कृत को रोजगार से वैसे जोड़ा जाए और संस्कृत हिन्दुओं के साथ-साथ गैर-हिन्दुओं के लिए भी रोजगार का जरिया क्यों न बने। क्योंकि आर्थिक दृष्टि से मजबूत होकर ही कोईं हिन्दू या गैरहिन्दू संस्कृत के प्राचार-प्रासार में अपना अमूल्य योगदान दे सकता है।