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आखिर जुबान को लगाम क्यों नहीं देते नेता

👤 Veer Arjun | Updated on:10 Feb 2020 1:25 PM GMT

आखिर जुबान को लगाम क्यों नहीं देते नेता

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-आदित्य नरेन्द्र

राजनीति अपनी बात या विचारों को दूसरों तक पहुंचाकर सत्ता हासिल करने का एक ऐसा तरीका है जिसमें शब्दों का चयन सबसे महत्वपूर्ण होता है। दुर्भाग्यवश इस दौर के कईं नेता अपनी बात कहने के लिए संसदीय शब्दों की मर्यांदा को लांघते हुए आपत्तिजनक शब्दों का प्रायोग धड़ल्ले से कर रहे हैं।

उन्हें शायद इसका अंदाजा नहीं है कि उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए आपत्तिजनक शब्द या नारे देश के लोकतंत्र को कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हमने नेताओं को मौत का सौदागर, रामजादे-हरामजादे, गंदी नाली का कीड़ा, गंगू तेली, नीच, आतंकी, देशद्रोही और देश के गद्दारों को, गोली मारो सालो को तक कहते सुना है। यह भारतीय लोकतंत्र का वह स्तर है जिसे गिराने के लिए आज लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां दोषी हैं। फौरी राजनीतिक फायदे के लिए देश के बड़े-बड़े नेता भी आज अपने विरोधियों पर कमर से नीचे वार करने में जरा भी नहीं हिचक रहे हैं। इससे राजनीतिक संवाद को क्षति पहुंच रही है और पूरे देश में एक तनाव-भरा माहौल बनता जा रहा है। उधर आपत्तिजनक भाषा को राजनीतिक फायदे के लिए एक टूल के रूप में इस्तेमाल करने वाले नेता इससे बेपरवाह हैं। ऐसे नेता पिछले कईं सालों से बेखौफ होकर अपनी राजनीति में आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किए जा रहे हैं। अब सवाल उठता है कि आखिर ऐसे नेता अपनी जुबान को लगाम क्यों नहीं देते।

दरअसल इसके पीछे सारा दोष उन्हीं को दे देना बेमानी है। इसके लिए कहीं न कहीं हम भी दोषी हैं। जब यह नेता इस तरह के आपत्तिजनक बयान देते हैं तो हम में से कईं लोग उनके बयानों पर खुश होते हैं और उनका समर्थन करते हुए तालियां बजाते हैं। जिससे उन्हें ऐसे शब्दों का बार-बार प्रायोग करने का हौसला मिलता है। यह सही है कि आजादी के बाद कईं दशकों तक पक्षविपक्ष् ा की राजनीति में सव््िराय रहे राजनेताओं ने राजनीति करते हुए अपनी भाषायी मर्यांदा को बचाए रखने की भरपूर कोशिश की लेकिन बदलते वक्त के साथ सत्ता की चाहत और विरोधियों पर हावी होने की चेष्टा के चलते भाषायी मर्यांदा की अवहेलना की गईं। जिसके चलते राजनीति में धीरे-धीरे नफरत का जहर घुलने लगा। इसका असर अब स्पष्ट रूप से दिखाईं देने लगा है।

अब कईं नेता लोगों से जुड़ने और उनका राजनीतिक समर्थन पाने के लिए अमर्यांदित शब्दों का प्रायोग बिना किसी डर के कर रहे हैं। यह संभव नहीं है कि ऐसे नेता इस बात से अनजान हों कि उनके बयान समाज के भीतर खाईं पैदा कर रहे हैं। मुश्किल तब और भी ज्यादा होती है जब प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरा पक्ष इन आपत्तिजनक बयानों से फायदा उठाने के लिए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। चुनाव का वक्त आते ही ऐसी कोशिशें तेज हो जाती हैं।

चूंकि देश में कहीं न कहीं किसी न किसी स्तर पर चुनाव होते रहते हैं इसलिए कहीं न कहीं ऐसी भाषा का इस्तेमाल मीडिया की सुर्खियां बटोरता रहता है। अभी तक इस तरीके का इस्तेमाल राजनीतिक दलों के नेताओं द्वारा ही किया जा रहा था लेकिन पिछले वुछ समय से देखने में आ रहा है कि विश्वविदृालय स्तर के नेता भी मीडिया में छाने के लिए आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल करने लगे हैं। जेएनयू, एएमयू और अन्य वुछ जगहों पर ऐसी भाषा का इस्तेमाल बताता है कि यह जहर समाज में कितनी नीचे तक पैलता जा रहा है। राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग में धरने पर बैठे वुछ बच्चों ने प्राधानमंत्री मोदी के बारे में जो कहा वह इसकी पुष्टि करने के लिए काफी है। इस मामले में किसी एक राजनीतिक दल या नेता को दोष देने से समस्या हल नहीं होगी क्योंकि इस हमाम में सभी बड़े राजनीतिक दल नंगे हैं।

इसके मूल में सत्ता पाने या सत्ता जाने की छटपटाहट है। राजनीति इतने निचले स्तर पर जा पहुंची है जहां एक पक्ष दूसरे पक्ष के चरित्र हनन और उसे बदनाम करने में कोईं बुराईं नहीं समझता। इस खेल में सब एक-दूसरे को मात देना चाहते हैं। जल्द ही हमें इस बीमारी का कोईं उचित इलाज ढूंढना होगा ताकि लोकतंत्र को कमजोर होने से बचाया जा सके।

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