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सियासत के गिरते स्तर की गवाह है दिल्ली हिंसा

👤 Veer Arjun | Updated on:2 March 2020 9:35 AM GMT

सियासत के गिरते स्तर की गवाह है दिल्ली हिंसा

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-आदित्य नरेन्द्र

लोकतंत्र की अजीब विडंबना है कि यहां कईं बार वुछ राजनीतिक नेता जनसमर्थन जुटाने और बढ़ाने के लिए लाशों पर राजनीति करने में भी संकोच नहीं करते। जबकि यह समय उनके लिए मुश्किल दौर में पंसे लोगों की मदद के लिए होना चाहिए। इसके बावजूद हमने बार-बार देखा है कि ऐसे मौके को वुछ राजनीतिक नेता छवि चमकाने के एक अवसर के रूप में भी इस्तेमाल करने से परहेज नहीं करते।

सबसे बुरी बात यह है कि यह बीमारी छुटभैया नेताओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक के कईं नेताओं में फैल चुकी है। इसीलिए दिल्ली में पिछले वुछ दिनों से फैली हिंसा की घटनाएं एक बार फिर सियासत के इसी गिरते स्तर की गवाह बनी हैं। अभी तक 43 जानें लील जाने वाली हिंसा पर तल्ख टिप्पणी करते हुए दिल्ली हाईं कोर्ट ने भी कह दिया है कि दिल्ली में दोबारा 1984 जैसे हालात पैदा नहीं होने देंगे। हाईं कोर्ट की यह टिप्पणी बताती है कि वाकईं में हालात कितने खराब हैं। स्थानीय स्तर पर समर्थन बटोरने के लिए शुरू हुईं राजनीति अब राष्ट्रीय स्तर पर पहुंच चुकी है और सत्तापक्ष और विपक्ष आमने-सामने दिखाईं दे रहे हैं। इस बीच सुनवाईं के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली में हिंसा को लेकर राजनीतिक दलों को संदेश देते हुए आगाह किया था कि हिंसा का तरीका समाज में बहस का तरीका नहीं है।

स्वस्थ बहस होनी चाहिए लेकिन हिंसा नहीं होनी चाहिए। स्पष्ट है कि राजधानी में पिछले वुछ दिनों से क्या हो रहा है इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट और हाईं कोर्ट अनजान नहीं हैं लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस समय भी स्थानीय और राजनीतिक नेता अपनी- अपनी पाटा लाइन के हिंसाब से राजनीति करते हुए दिखाईं दे रहे हैं। कांग्रोस, आप और लेफ्ट सहित विपक्ष के नेता सव््िराय हो गए हैं। यदि आप उनके बयानों को देखें तो आपको वह उनके पुराने दायरे में ही दिखाईं देंगे।

यह नेता हिंसा वाली जगहों पर अमन कमेटियां बनाने और लोगों की भावनाओं पर मरहम लगाने की बजाय राष्ट्रपति को ज्ञापन देने और ट्विटर पर बयान जारी करने को ही प्रामुखता दे रहे हैं। कांग्रोस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने वेंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को इस हिंसा का जिम्मेदार बताते हुए उनसे इस्तीफा मांग लिया है। यह मांग करते हुए वह यह भूल गईं कि फिलहाल इस समय ऐसी मांगों का कोईं मतलब नहीं है क्योंकि दिल्ली में 1984 में हुईं सिखों के साथ हिंसा और इसके बाद यूपीए सरकार के समय में देश के कईं भागों में हुईं हिंसा के बाद किसी भी कांग्रोसी गृहमंत्री ने इस्तीफा नहीं दिया है। फिर इस समय ऐसी मांगों का क्या मतलब है। इसी तरह मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने जब जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया वुमार और नौ अन्य लोगों पर मुकदमा चलाने की मंजूरी दे दी तो भाकपा ने इसकी आलोचना करते हुए कहा है कि वह अपने नेता कन्हैया वुमार के खिलाफ राजद्रोह मामले में कानूनी और राजनीतिक दोनों तरह की लड़ाईं लड़ेगी। भाकपा का आरोप है कि आम आदमी पाटा की सरकार ने राजनीतिक दबाव के आगे घुटने टेक दिए हैं।

भाकपा को शायद ऐसा लगता है कि राजधानी में हुईं हिंसा में एक आप नेता ताहिर हुसैन का नाम आने पर आम आदमी पाटा की सरकार दबाव में आ गईं और इसी दबाव के चलते उसने कन्हैया पर राजद्रोह के मुकदमे को मंजूरी दी है। यहां सवाल यह है कि यदि किसी पर कोईं गंभीर आरोप है तो इसका फैसला प्राशासन की बजाय कोर्ट को करने देने में क्या बुराईं है।

ओवैसी की पाटा के वारिस पठान ने जो सौ करोड़ पर 15 करोड़ वाला बयान दिया है उसके बारे में आप क्या कहेंगे। कपिल मिश्रा का बयान तो हाईं कोर्ट तक पहुंच चुका है। अपने- अपने फायदे-नुकसान के हिंसाब से अपनी जिम्मेदारियों को भूलकर राजनीतिक बिसात पर जो चालें चली जा रही हैं उससे पिछले वुछ वर्षो में राजनीति का स्तर काफी गिरा है।

दरअसल अब राजनेताओं का एक हिस्सा खुद को राजनीति में प्रासंगिक बनाए रखने के लिए भड़काऊ बयान देना ज्यादा पसंद करता है। दिल्ली में पिछले दिनों हुईं हिंसा ने हमें जो सबक सिखाया है उसे हमें याद रखना होगा। यदि हम उसे भूल जाएंगे तो भविष्य में सियासत के इस गिरते स्तर को रोकना मुश्किल होगा।

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